कांग्रेस को समझना पड़ेगा: रामभरोसे नहीं, उम्मीदवार कराएंगे फतह

यदि कांग्रेस गुटबाजी के दलदल में फंसकर मैदानी पकड़ वाले प्रत्याशियों को दरकिनार कर चहेतों को टिकिट थमा देगी तो फिर भगवान शिव, राम और नर्मदा भक्त राहुल गांधी का भक्तिरस में सराबोर होना भी शायद उसे सत्ताशीर्ष तक पहुंचाने में कारगर न हो पाये। कांग्रेस को यदि डेढ़ दशक बाद अपने वनवास को समाप्त करते हुए सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना है तो 1993 की तरह उदारता दिखाना होगी।

भोपाल (मंगल भारत)। गुजरात विधानसभा चुनाव से कांग्रेस ने उदार हिंदुत्व का रास्ता अपना कर बहुसंख्यक मतदाताओं का नए सिरे से विश्वास जीतने की जो कोशिश प्रारम्भ की थी वह धीरे-धीरे काफी आगे बढ़ती जा रही है। यह जुमला भी काफी चल निकला है कि कांग्रेस इन दिनों चुनावी वैतरणी पार करने के लिए राम-भरोसे है? कांग्रेस की चुनावी हार या जीत टिकट वितरण की टेबल पर तय हो जाती है। यदि कांग्रेस गुटबाजी के दलदल में फंसकर मैदानी पकड़ वाले प्रत्याशियों को दरकिनार कर चहेतों को टिकिट थमा देगी तो फिर शिव, राम और नर्मदा भक्त राहुल गांधी का भक्तिरस में सराबोर होना भी शायद उसे सत्ताशीर्ष तक पहुंचाने में कारगर न हो पाये। कांग्रेस को यदि डेढ़ दशक बाद अपने वनवास को समाप्त करते हुए सत्ता के शीर्ष पर पहुंचना है तो 1993 की तरह उदारता दिखाना होगी। उस समय एक-दूसरे गुट के जमीनी पकड़ वाले उम्मीदवारों के प्रति तत्कालीन मध्य प्रदेश विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष श्यामाचरण शुक्ल, अर्जुन सिंह, माधवराव सिंधिया और प्रदेश अध्यक्ष के रुप में दिग्विजय सिंह ने जैसी उदारता दिखाई थी वैसी ही उदारता क्या उम्मीदवारों का चयन करते समय भी इस बार कमल नाथ, दिग्विजय सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया और अजय सिंह दिखा पाएंगे। ऐसा होता है तभी कांग्रेस को सत्ता में आने की उम्मीद रखना चाहिए, अन्यथा केवल ‘अंधा बांटे रेवड़ी, चीन्ह-चीन्ह कर देय’ वाली कहावत यदि चरितार्थ हुई तो फिर हो सकता है कि शायद मंदिर-मंदिर भटकना भी कांग्रेस की आंखों में तैरते सपने को पूरा न कर पाए।
ऐसा नहीं था कि 1993 में सारे टिकट केवल मैदानी पकड़ वालों को दिए गए हों और नेताओं की गणेश परिक्रमा करने वालों को दरकिनार कर दिया गया हो। उस समय मध्यप्रदेश में 320 विधानसभा सीट थीं और कांग्रेस ने लगभग 200 ऐसे उम्मीदवार छांट लिए जो चाहे किसी गुट के हों, चुनाव जीतने की उनमें पूरी क्षमता थी। उस समय यह सोच थी कि कम से कम इनमें से 161 उम्मीदवार तो चुनाव जीत ही जायेेंगे और विधानसभा में स्पष्ट बहुमत मिल जायेगा। कुछ ऐसे नेताओं को भी टिकट मिले थे जो अपने-अपने आकाओं की आंखों के तारे थे, लेकिन जिन-जिन की जीत के प्रति श्यामाचरण शुक्ल के मन में आशंका थी उन्हें टिकट तो मिली लेकिन वे चुनाव नहीं जीत पाए। ऐसे बहुत से नाम थे जो चुनाव जीत सकते थे लेकिन वे अर्जुन सिंह या सिंधिया खेमे के माने जाते थे। उदाहरण के तौर पर यहां कुछ नामों का उल्लेख करना ही पर्याप्त होगा। जब श्यामाचरण शुक्ल आपसी बातचीत में चर्चा कर रहे थे उस दौरान बिलासपुर की टिकट का मामला आया और कुछ ऐसे लोगों के नाम सामने रखे गये जो उनके चहेते थे इस पर उन्होंने तुरन्त कहा कि ये चुनाव नहीं जीत सकते। जैसे ही 1977 की जनता लहर में जीते कांग्रेस के बीआर यादव का नाम सामने आया तो शुक्ल का कहना था कि टिकट उन्हें दिलायेंगे, क्योंकि वे चुनाव जीतेंगे। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि टिकट तो बंशीलाल धृतलहरे को भी देना पड़ेगी लेकिन वे चुनाव नहीं जीतेंगे। होशंगाबाद जिले के सिवनी मालवा का नाम सामने आते ही शुक्ल ने कहा कि यहां से तो हजारीलाल रघुवंशी को ही टिकट देंगे, क्योंकि चुनाव वे ही जीत सकते हैं। साथ ही उन्होंने ये भी कहा कि यादव और रघुवंशी चुनाव जीतेंगे जरूर और हमारे साथ भी नहीं रहेंगे, लेकिन कांग्रेस को यदि बहुमत पाना है तो ऐसे लोगों को तवज्जो देना ही होगी।
श्यामाचरण शुक्ल ने उस चर्चा के दौरान यह भी कहा कि पहले हमें 161 सीटें जीतना है। तभी तो मुख्यमंत्री बनने का सवाल पैदा होगा। हमें कोई नेता प्रतिपक्ष का चुनाव थोड़े ही लडऩा है वह तो हम हैं ही। हुआ कुछ ऐसा ही सरकार कांग्रेस की बनी। विधायक दल के नेता के लिए श्यामाचरण शुक्ल और दिग्विजय सिंह के बीच में चुनाव हुआ तथा दिग्विजय सिंह विधायक दल के नेता चुने गए। पूरे पांच साल विधायक रहते हुए भी शुक्ल ने न तो कभी असंतुष्ट नेता की तरह व्यवहार किया और न ही इस प्रकार की किन्हीं गतिविधियों को परोक्ष या अपरोक्ष रूप से समर्थन दिया। रायपुर जिले में अर्जुन सिंह और विद्याचरण शुक्ल के दो चहेते नेताओं के बारे में भी शुक्ल की राय थी कि इन्हें टिकिट मिलेगी लेकिन ये चुनाव नहीं जीतेंगे। हुआ भी वैसा ही, ऐसी ही राय उनकी नर्मदा अंचल के अर्जुन सिंह के खास चहेते व्यक्ति के बारे में भी थी। उसे भी टिकट मिला लेकिन वह चुनाव नहीं जीत सका। वैसे 2018 के चुनाव को कांग्रेस करो या मरो की शैली में लडऩे जा रही है। कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया यही कह रहे हैं कि इस बार टिकट केवल सर्वे के आधार पर ही दिए जाएंगे। जो जीतने लायक होगा उसे ही टिकट मिलेगा। नेताओं से जुड़े उनकी गणेश परिक्रमा करने वाले लेकिन मतदाताओं व जमीन से कटे किसी भी व्यक्ति को टिकट नहीं दी जाएगी। टिकट केवल तीन सर्वे में आए नामों के आधार पर ही दिए जायेंगे जिसमें जीत की संभावना और कहीं-कहीं जातिगत समीकरणों का भी ध्यान रखा जाएगा। कहने के लिए तो हमेशा ही यह कहा जाता रहा है लेकिन पिछले डेढ़ दशक से यह देखने में आया है कि टिकट गुटबंदी के आधार पर मिले हैं और जहां जिस नेता के चहेते को टिकट नहीं मिला उसमें से कुछ विद्रोही उम्मीदवार के रूप में चुनाव में उतरे, वे भले ही जीत न पाए हों, लेकिन अधिकृत उम्मीदवार को चुनाव हराने में सफल रहे। सिवनी से दिनेश राय मुनमुन और सीहोर से सुदेश राय निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव जीत गए, जिन्हें टिकिट बांटने वाले कांग्रेस नेताओं ने टिकिट देने लायक भी नहीं समझा था।
कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी जब पिछले माह भोपाल आए और कांग्रेस कार्यकर्ताओं को सम्बोधित कर रहे थे उस समय सर्वाधिक तालियां तब बजीं जब उन्होंने कहा कि इस बार केवल संघर्ष करने वाले और मैदानी पकड़ वाले कार्यकर्ताओं को ही टिकिट दी जायेगी। पैराशूट से उतरने वाले किसी नेता को टिकट नहीं दी जाएगी। लेकिन जब सर्वे के आधार पर ही टिकट मिलना था तो फिर प्रदेश के नेताओं ने चुनाव स्क्रीनिंग कमेटी के सामने अपनी तरफ से यह क्राइटेरिया क्यों बना लिया कि लगातार दो चुनाव हारने वाले या पांच हजार मतों तक से हारने वाले को पार्टी टिकट देगी। आखिर यह काम सर्वे पर ही क्यों नहीं छोड़ा गया। हर चुनाव का अपना गणित होता है और वह हमेशा एक जैसा रहे यह जरूरी नहीं है। कम मतों से हारने वाला अगला चुनाव जीत ही जाएगा और कुछ अधिक मतों से चुनाव हारने वाला जीत ही नहीं पाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं होती। लगातार दो चुनाव हारने वालों का क्राइटेरिया कहीं इसलिए तो नहीं रखा गया कि उन्हें रेस से बाहर कर दिया जाए और ऐसे लोगों को जो किसी नेता के चहेते थे, विद्रोही बनकर मैदान में उतरे, कांग्रेस को हराया और अब उन्हें ही टिकट थमा दी जाए। कांग्रेस में अक्सर यह देखा गया है कि फार्मूले की आड़ में असली खेल होता है और इस बात को ध्यान में रखकर ही फार्मूला बनाया जाता है कि किसकी टिकट काटना है और किसको दिलाना है। देखने की बात यही होगी कि क्या वास्तव में कांग्रेस मैदानी पकड़ वाले और जीतने की संभावना वाले लोगों को ही टिकट देती है या चहेतों के बीच रेवडियां बांटती है।
और यह भी
भाजपा के भोपाल में हुए कार्यकर्ता महाकुंभ में जिस अंदाज में आगे बढक़र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर का हाथ थामा, दोनों ने ठहाके लगाए उसने बरबस ही सबका ध्यान खींचा क्योंकि मोदी मध्यप्रदेश में अक्सर अपने चेहरे पर गंभीरता ओढ़े रहते हैं। उन्होंने जैसे ही कहा कि गौर साहब एक बार और हो जाए और गौर साहब ने भी उसी अंदाज में उत्तर दिया। वैसे ही भले ही गोविंदपुरा विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के टिकट के दावेदारों के चेहरे मुरझा गए हों, लेकिन भाजपा और कांग्रेस में कुछ बुझे हुए चेहरों के अरमान जाग गए हैं। प्रधानमंत्री के इस वार्तालाप से सिवनी मालवा के विधायक सरताज सिंह सहित 75 की उम्र के इर्द-गिर्द पहुंचने वाले कुछ भाजपा नेताओं को फिर लगने लगा है कि शायद उनका टिकट न कटे। कांग्रेस में हजारीलाल रघुवंशी का चेहरा भी एकदम खिल उठा है और उन्हें भी लगने लगा कि जब उनके हम उम्र बाबूलाल गौर को भाजपा टिकट दे सकती है तो मुझे क्यों नहीं मिल सकती। उनकी टिकिट का मामला बड़ा ही दिलचस्प है। पहले उनकी टिकट कटी तो उनके बेटे ओमप्रकाश रघुवंशी विधायक बने और 1993 में ओमप्रकाश का टिकट कटा तो फिर हजारीलाल विधायक बने और लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीते। इस बार भी ओमप्रकाश रघुवंशी का नाम पैनल में है। दिलचस्पी की बात केवल इतनी है कि बाप-बेटे में से किसकी लॉटरी खुलती है।