घोंघा फाड़ कर कहिये गण़तंत्र अमर रहे.

गोहार मारियें की आज देश गणतंत्र हुआ था.
घोंघा फार के कहिये “गण़तंत्र दिवस अमर रहे”.

सबसे पहले आप सबको ६९वें गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई,
फक्र है की हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र मे रहते हैं .

यह दिन हर साल के पहले महीने मे आता है,
आज के दिन राजधानी मे बडा जलसा होगा पर सबको पता है इस गणतंत्र दिवस पर भी कुछ नया नहीं होने वाला है.
राष्ट्रपति ध्वजारोहण करके खानापूर्ति कर देंगे और कुछ लोग भाषण देकर अपनी जिम्मेवारी से पल्ला झाड लेंगे.

हर एक देश प्रेमी को रह-रह के कुछ बाते बेचैन जरूर करती होगी —-

शिक्षा का क्षेत्र व्यापार बन गया.
नालंदा-तक्षशिला जैसे प्राचीन नाम तो हमने बड़े गर्व के साथ अपना लिए लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता के स्तर पर कोई अहम सुधार हम नहीं ला सके. शिक्षक आज के दौर में एक ऐसा व्यक्ति बन गया जिसकी ‘सीख’ में शक होने लगा है.
वहीं पेरेन्ट्स ‘रेन्ट’ ‘पे’ कर के मुक्त हो गए.
जबकि विद्यार्थियों ने विद्या की अर्थी बहुत पहले निकाल दी.

राजनीति – ६९वर्षों में राजनीति सिर्फ एक गाली बनकर रह गई है तो यह दोष सिर्फ राजनीति का नहीं बल्कि उस ‘गण़’ का भी है जिसके दम पर तंत्र कायम होता है.
हमारे चुनाव का सच यह है कि संसद में भेजे जाने वाले प्रतिनिधि वास्तव में प्रतिनिधि होते ही नहीं है. चुनावों के दौरान किसी भी शहर की आधी जनता मतदान के लिए जाती ही नहीं है. जो आधी जनता मतदान करती है उनमें से भी कुछ प्रतिश‍त बाहुबल, धनबल, और जातिबल के आधार पर उम्मीदवार का चयन करती है. इसी में एक हिस्सा उस जनता का भी होता है जो मतदान का मतलब व तरीका भी नहीं जानती.
चुनावी षणयंत्र करके लोग वर्षो सत्ता मे काबिज रहते है जबकी हर पॉच साल मे चुनाव का प्रावधान है.
नेता विकास के नाम जुमले छोडता है और जनता ताली बजाकर उसका हौसला बढ़ाती है की हा बहुत अच्छा छोड़ते हो और छोडो मजा आ रहा है तुमसे पहले वाला तो कुछ बोलता ही नही था,
नतीजा यह हुआ की मुंहबाज सत्ता मे काबिज हो गये मगर मुंह चलाने से काम नही चलता देश की GDP लगातार घट रही है बेरोजगारी अपने चरम पर है उसके जिम्मेदार केवल मुंह चलाने वाले नेता ही नही बल्की हम भी है.
ऐसे में सवाल उठता है की संसद तक पहुँचे उस व्यक्ति को प्रतिनिधि कैसे मान लें और किसका प्रतिनिधि मान लें.

मीडिया – एक समझदार गणतंत्र में देश का मीडिया जितना सशक्त होना चाहिए उतना वह नहीं हो सका. सशक्तता का अर्थ यह कदापि नहीं है जब चाहे किसी को फलक पर सजा दें और जब चाहे किसी को खाक में मिला दें.किसी देश का मीडिया ‘न्यूक्लियर पावर’ से ज्यादा शक्तिशाली होता है.
परमाणु ताकत किसी भी देश को नष्ट करने के लिये काफी है मगर उस देश पर राज करने के लिए वहाँ की बौद्धिक शक्ति पर नियंत्रण होना आवश्यक है.
स्थिति यह की समाचार पढ़ने के लिये बैठा एंकर किसी राजनैतिक विचारधारा से ओत-प्रोत उसका प्रचार करता नजर आता है,
एंकर दिन भर न्यूक्लियर से भी विध्वंशक शब्दो का स्तेमाल करते है जिससे सोसल मीडिया मे घमासान मचा रहता है.
मीडिया अगर अपनी ताकत को पहचानता और समझदारी का गुण दिखाता तो शायद यूँ आरोपों के कटघरे में खड़ा नजर नहीं आता.

सौरभ सिंह
(विद्रोही)