न विकास,न करिश्मा, इस बार जाति का दम…

एंटी-इंकम्बेंसी नहीं, जातियां बिगाड़ेंगी खेल,65 फीसदी मतदाता को अपनी जाति का नेता पसंद
भले ही लोग दावा करें कि वे मिलनसार, विकास करने वाले नेता को चुनेंगे, लेकिन यह पूरा सच नहीं हैं। ज्यादातर लोग ऐसे नेताओं को ही विधायक चुनते हैं जो उनके धर्म या जाति का हो। हाल ही में हुए एक सर्वे के मुताबिक मध्य प्रदेश उन आठ राज्यों में शामिल हैं, जहां वोटर अपने धर्म और जाति के प्रत्याशी को चुनने को तरजीह देते हैं। इसे आधार बनाया जाए तो मुद्दों के बजाय पार्टियों की सोशल इंजीनियरिंग और जाति-धर्म इस बार भी महत्वपूर्ण रहने वाले हैं। साफ है कि जो पार्टी विधानसभा क्षेत्र के जातीय और धार्मिक समीकरणों के मुताबिक तैयारी करेगी, उसके जीतने के अवसर ज्यादा होंगे।

लेखक:- मनीष द्विवेदी मंगल भारत.

इस साल होने वाले मध्यप्रदेश विधानसभा चुनावों में चार करोड़, 94 लाख, 42 हजार मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। इनमें से 65 फीसदी यानी करीब 3 करोड़ 19 लाख मतदाता जाति के आधार पर अपने मत का प्रयोग करेंगे। यह तथ्य सामने आया है कुछ स्वयंसेवी संगठनों, वेबसाइट्स, न्यूज पोर्टल आदि की सर्वे रिपेार्ट में।
देश के 22 राज्यों के सर्वे में यह बात सामने आई है कि मप्र के बहुसंख्यक मतदाता जाति और धर्म के आधार पर वोट करते हैं। इस विधानसभा में भी वे इसके लिए तैयार हैं। इस रिपोर्ट के बाद भाजपा-कांग्रेस के साथ सभी पार्टियों ने इसी आधार पर चुनावी तैयारी शुरू कर दी हैं। खासकर पिछड़ा वर्ग और दलित मतदाताओं को रिझाने के लिए खास कवायद हो रही है। सर्वे के अनुसार, समकालीन भारत जातीय उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा है, जो राजनीतिक दल इस जाति शास्त्र को समझेगा और उसके अनुरूप व्यवहार करेगा, वही राज करेगा। यही कारण है कि मप्र में विधानसभा चुनाव को जीतने के लिए पार्टियों द्वारा जातिगत वोट के आधार पर रणनीति बनाई जा रही है। यानी अपनी जीत के लिए राजनीतिक पार्टियां धर्म और जाति के आधार पर टिकट तो देंगी हीं, मतदाता भी इसी आधार पर वोट देंगे।
जातिवादी राज्यों में मप्र सबसे आगे
सर्वे में यह बात सामने आई है कि देश में 8 राज्य ऐसे हैं जहां चुनावों में सबसे अधिक जातिवाद है। मध्य प्रदेश में जहां 65 फीसदी मतदाता अपनी जाति के प्रत्याशी को वोट देते हैं वहीं 12 फीसदी दूसरी जाति को। जबकि 31 फीसदी के लिए चुनाव में जाति का कोई मतलब नहीं है। वहीं, आंध्रप्रदेश में जहां 43, बिहार में 57, महाराष्ट्र में 54, राजस्थान में 62, झारखंड में 52, छतीसगढ़ में 61 और तेलंगाना में 48 फीसदी मतदाता जाति के आधार पर वोट देते हैं। वहीं आंध्रप्रदेश में 10, बिहार में 12, महाराष्ट्र में 5, राजस्थान में 15, झारखंड में 19, छतीसगढ़ में 3 और तेलंगाना 6 फीसदी दूसरी जाति को वोट देते हैं। जबकि आंध्रप्रदेश में जहां 47, बिहार में 31, महाराष्ट्र में 41, राजस्थान में 22, झारखंड में 29, छतीसगढ़ में 36 और तेलंगाना में 46 फीसदी के लिए चुनाव में जाति का कोई मतलब नहीं है।
64 फीसदी धर्म आधारित वोट
इसी तरह धर्म के आधार पर वोट देने वालों में भी मप्र सबसे आगे है। मध्य प्रदेश में 64 फीसदी मतदाता अपने धर्म के आधार पर वोट देते हैं वहीं 9 फीसदी दूसरे धर्म को। जबकि 27 फीसदी के लिए चुनाव में धर्म का कोई मतलब नहीं है। वहीं आंध्रप्रदेश में जहां 38, बिहार में 61, महाराष्ट्र में 54, राजस्थान में 62, झारखंड में 54, छतीसगढ़ में 62 और तेलंगाना में 46 फीसदी मतदाता अपने धर्म के प्रत्याशी को वोट देते हैं। वहीं आंध्रप्रदेश में 9, बिहार में 10, महाराष्ट्र में 4, राजस्थान में 15, झारखंड में 13, छतीसगढ़ में 3 और तेलंगाना 5 फीसदी दूसरे धर्म के प्रत्याशी को वोट देते हैं। जबकि आंध्रप्रदेश में जहां 53, बिहार में 28, महाराष्ट्र में 42, राजस्थान में 23, झारखंड में 33, छतीसगढ़ में 35 और तेलंगाना में 49 फीसदी के लिए चुनाव में धर्म का कोई मतलब नहीं है।
जाति-वर्ग के बाहर के नेताओं पर भरोसा नहीं
सर्वे में यह बात सामने आई है कि सभी वर्गों में समुदाय और जाति-वर्ग के बाहर से नेताओं पर भरोसा नहीं है। 27 फीसदी से अधिक लोगों को अपनी जाति-वर्ग के बाहर के नेताओं पर भरोसा नहीं है। इसलिए वे अपनी जाति के नेता को वोट देते हैं चाहें वह किसी भी पार्टी का क्यों न हो। खासकर ऊपरी जातियां आम तौर पर अपने समुदाय से बाहर के नेताओं में सबसे कम विश्वास करती हैं। राजनीतिक विश£ेषकों का कहना है कि राजनीति में जातिवाद की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ही चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवारों की संख्या भी बढ़ रही हैं। वहीं सर्वे में 9 फीसदी से अधिक लोगों का कहना था कि वे अलग धर्म के नेताओं को वोट नहीं देते हैं। सर्वे में 64 फीसदी मतदाताओं ने कहा कि वे अपने धर्म के प्रत्याशी को वोट देते हैं, वहीं 9 फीसदी का कहना था कि वे दूसरे धर्म के प्रत्याशी को वोट देते हैं, जबकि 27 फीसदी ने कहा उन्हें राजनीतिक नेता के धर्म से कोई फर्क नहीं पड़ता है। सर्वे के अनुसार, विभिन्न सामाजिक समूहों में प्रत्याशियों की जाति और धर्म को लोकर भरोसे का अंतर बहुत ज्यादा नहीं है। अगर जाति के अनुसार देखें तो गैर-साक्षर 63 फीसदी, स्कूल स्तर तक शिक्षित लोगों में 56 फीसदी और कॉलेज तक शिक्षित लोगों में 47 फीसदी ने मंशा जाहिर की है कि उन्हें अपनी जाति का नेता पसंद है। सर्वे के दैारान मिले तथ्यों के मुताबिक जबकि ऊपरी जातियों ने आम तौर पर अपने आप से बाहर के नेताओं में सबसे कम विश्वास व्यक्त किया है। अगर धर्म के आधार पर देखें तो गैर-साक्षर 60 फीसदी, स्कूल स्तर तक शिक्षित लोगों में 56 फीसदी और कॉलेज तक शिक्षित लोगों में 47 फीसदी ने मंशा जाहिर की है कि उन्हें अपने धर्म का नेता पसंद है।
दांव पर शिवराज का करिश्माई व्यक्तित्व…
इसमें शक नहीं कि शिवराज सिंह चौहान में एक करिश्माई व्यक्तित्व है, जो भाजपा के लिए संकटमोचक सिद्ध हो चुका है। 2008 और 2013 के विधानसभा चुनाव में यह दिख भी चुका है। इस बार के विधानसभा चुनाव में शिवराज का करिश्माई व्यक्तित्व दांव पर है। आगामी विधानसभा चुनाव में एक नेता के रूप में वह कमलनाथ पर भारी पड़ते दिख रहे हैं। मप्र में इस बार जिस तरह जातियों का जाल बुना जा रहा है उससे ऐसा लग रहा है कि विधानसभा चुनाव में न विकास, न करिश्मा बल्कि जाति का दम दिखेगा। अभी तक जातियों को साधने में कांग्रेस आगेे है। अगर 2013 के विधानसभा चुनाव के आधार पर आकलन करें तो यह तथ्य सामने आता है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति ने भाजपा पर जमकर मेहरबानी दिखाई थी। प्रदेश की अनुसूचित जाति की 35 सीटें हैं, जिसमें 28 पर भाजपा को मिली। वहीं 47 अनुसूचित जनजाति बहुत सीटों में से 32 पर भाजपा ने अपना कब्जा जमाया। लेकिन इस बार कांग्रेस ने भाजपा के इस वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश शुरू कर दी है। सर्वे में बताया गया है कि मप्र में भले ही उत्तर प्रदेश और बिहार की तरह जातिवाद चरम पर नहीं है, लेकिन पिछले एक दशक में देखने को मिला है कि यहां की राजनीति में जातिवाद का दायरा तेजी से बढ़ा है। विधानसभा चुनाव का लेकर किए गए सर्वे में यह तथ्य सामने आया कि प्रदेश के दो तिहाई से अधिक मतदाताओं को अपनी ही जाति (65 फीसदी) और धर्म (64 फीसदी) का नेता पसंद है। जबकि 12 फीसदी मतदाता दूसरी जाति और 9 फीसदी दूसरे धर्म के प्रत्याशी को वोट देते हैं। वहीं 31 फीसदी मतदाता ऐसे हैं जो प्रत्याशी को जाति और 27 फीसदी ऐसे हैं जो धर्म के बजाय पार्टी के आधार पर वोट देते हैं। यानी इस बार के चुनाव में जाति और धर्म को बोलबाला रहेगा। यह कारण है कि विधानसभा और लोकसभा चुनावों में बहसंख्यक मतदाताओं की जाति और धर्म के आधार पर पार्टियां टिकटों का वितरण करती हैं। इस विधानसभा चुनाव में भी पार्टिया जाति कि आधार पर टिकट वितरण की तैयारी में जुट गई हैं। इसके लिए हर विधानसभा क्षेत्र में सर्वे कराया जा रहा है।
110 सीटों पर धर्म, जाति का प्रभाव
सर्वे में यह तथ्य सामने आ गया है कि अधिकांश मतदाताओं को पार्टियों की विचारधारा या उनके वादों से कोई मतलब नहीं है। मतदाताओं की मानसिकता को राजनीतिक पार्टियां भली-भांति जानती है। इसी वजह से चुनावों में जाति और धर्म की बहुलता के आधार पर प्रत्याशी का चयन किया जाता है। अगर सर्वे के आधार पर 2013 के चुनाव परिणामों पर नजर डालें तो 230 विधानसभा सीटों में से 110 सीटों पर धर्म, जाति, भाषा के आधार पर प्रत्याशी चुनाव जीते थे। मप्र में अनुसूचित जाति, जनजाति सीटों की संख्या भी अधिक है। यहां करीब 25 से 48 सीटें इसी वर्ग से संबंधित हैं। प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी 15.2 फीसदी, और अनुसूचित जनजाति की आबादी 20.8 फीसदी है। सूबे में अनुसूचित जाति की 35 सीटें हैं, जिसमें फिलहाल 28 पर बीजेपी काबिज है। 47 अनुसूचित जनजाति बहुत सीटों में 32 पर भाजपा का कब्जा है। बसपा को 7 फीसदी वोट मिलते रहे हैं, उसके पास 4 विधायक हैं। जीजीपी और छोटे दलों को लगभग 6 फीसदी वोट मिले थे। इनमें से अधिकांश सीटों पर जाति का दबदबा रहा।
धर्म, जाति के आधार पर…
सर्वे के दौरान जब लोगों से पूछा गया कि वे धर्म, जाति के आधार पर वोट क्यों देते हैं, तो उनका कहना था कि राजनीतिक पार्टियां ही जनता को धर्म, जाति के आधार पर बांटती हैं। मतदाताओं की इस बात में दम भी दिखता है। देश हो या प्रदेश में धर्म, भाषा या समुदाय के नाम पर वोट मांगने वाले दलों की कमी नहीं है। कई दलों का तो रजिस्ट्रेशन ही इस आधार पर करवाया गया है। पंजाब में अकाली दल सिख समुदाय को अल्पसंख्यक बताकर उनके नाम पर चुनाव लड़ता है। इसी आधार पर पार्टी का रजिस्ट्रेशन है। मुस्लिम लीग पार्टी भी मुस्लिमों के हितों की रक्षा की बात करती है। वहीं डीएमके भी द्रमुक भाषा के विकास को चुनावी मुद्दा बताती है। इन दलों का रजिस्ट्रेशन ही धर्म और भाषा के आधार पर हुआ है। यह उसी आधार पर वोट मांगते हैं। ऐसे कई दल हैं। मप्र में 2013 में विधानसभा चुनाव लडऩे वाली कई पार्टियों का आधार भी जाति और क्षेत्र रह। जिनमें बहुजन संघर्ष दल के, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, अखिल भारतीय गोंडवाना पार्टी, आर्थिक समानता पार्टी, ऑल इंडिया फारवर्ड ब्लॉक, जन न्याय दल, गोंडवाना मुक्ति सेना, भारतीय बहुजन पार्टी, माइनॉरटीज डेमोक्रेटिक पार्टी, सवर्ण समाज पार्टी, भारतीय माइनॉरटीज सुरक्षा महासंघ, बुंदेलखण्ड कांग्रेस, जय मानवता पार्टी, अम्बेडकर समाज पार्टी, अखिल भारत हिन्दू महासभा, बहुजन संघर्ष पार्टी (कांशीराम), सोशलिस्ट पार्टी (इंडिया), रहबर पार्टी, नारायणी सेना इसी श्रेणी में आती हैं।
जाति की होने लगी जमावट
विधानसभा चुनाव आते ही, कांग्रेस-भाजपा दोनों को दलित वोटों की फिक्र सताने लगी है। दलित वोटरों में किसकी कितनी पैठ है, ये भी आंका जाने लगा है। जहां कांग्रेस जिताऊ उम्मीदवार का वजन देखने के साथ जाति धर्म के आधार पर सर्वे करवा रही है, वहीं भाजपा दलित वोटरों पर नजर रखने हर बूथ पर जाति प्रमुखों की तैनाती कर रही है। महिला कांग्रेस कार्यकर्ताओं को इन दिनों एक फॉर्म दिया जा रहा है जिसमें उन्हें, जाति-उपजाति की जानकारी देनी है। वहीं, पार्टी उम्मीदवारों के चयन के लिए भी हर विधानसभा में 10 पन्ने के फॉर्म को भरवाकर सर्वे करवा रही है। इस फॉर्म में मतदाताओं की 5 प्रमुख जाति और धर्म की प्रतिशत में जानकारी मांगी गई है, इसी फॉर्म में विधायक चुनने के लिए पहला विकल्प जाति और धर्म है। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष मांडवी चौहान ने कहा जब सीट की बात आती है तो पता होना चाहिए कौन महिला काम कर रही है, अगर रिजर्व सीट है पिछड़ा वर्ग से आती है तो उसे देखते हुए डेटा इकठ्ठा कर रहे हैं। वहीं, मानक अग्रवाल ने कहा जाति का डेटा इकट्ठा कर रहे ताकि टिकट बांटने में वहां के लोगों को मोबिलाइज कर सकें। धर्म-जाति खंगालने और अपना वोट बैंक संवारने में भाजपा भी पीछे नहीं है। पार्टी राज्य के सभी 65200 पोलिंग बूथों पर जाति प्रमुख की तैनाती कर रही है, जिम्मा अनुसूचित जाति वर्ग मोर्चा को सौंपा गया है। जाति प्रमुख अनुसूचित जाति का वो कार्यकर्ता होगा जिसके वोटरों की संख्या उस बूथ पर सबसे ज्यादा होगी। उसका काम अपने वर्ग के वोटरों की जानकारी रखना, उनसे संपर्क करना और पार्टी के पक्ष में माहौल बनाना होगा। भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष सूरज कैरों ने कहा एक बूथ पर वर्चस्व जिस समाज का है उन्हें लेंगे लेकिन दस घर एक समाज का है उसकी बात मानते हैं तो उसी समाज का कार्यकर्ता खड़ा करेंगे। हमारा एक प्रहरी हर बूथ पर हो उसी को अंजाम देने बूथ प्रमुख बनाने जा रहे हैं। लगभग सवा तीन लाख कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी होगी जो निश्चित रूप से पार्टी के लिए हितकर होगा।
जाति-धर्म के आधार पर टिकटों की मांग
प्रदेश में कई ऐसी सीटें हैं, जहां जातिगत समीकरण नतीजे प्रभावित करते नजर आएंगे। चुनाव में इस बार भी उन नेताओं ने टिकट की कवायद करना शुरू कर दी है, जिन्हें अपनी जाति और भाषा पर भरोसा है। टिकट के दावेदार, नेताओं को यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि यदि उन्हें टिकट मिलता है तो इस समाज का इतना फीसदी वोट हमारी पार्टी की सीधी झोली में होगा।
मध्यप्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में सामाजिक आधार पर भी टिकटों का बंटवारा किया जाएगा। इस बात का विश्वास उन नेताओं को कुछ अधिक है, जो उन सामाजिक क्षेत्रों से आते हैं, जहां जातिगत समीकरणों के आधार पर वोटों को आसानी से बांटा जा सकता है। प्रदेश में अनेक ऐसी विधानसभा सीटें हैं, जहां जातिगत समीकरण पार्टियों को प्रभावित करते नजर आएंगे। विधानसभा चुनाव में इस बार भी उन नेताओं ने टिकट की कवायद करना शुरू कर दी है, जिन्हें अपनी जाति और भाषा पर भरोसा है। टिकट के दावेदार, नेताओं को बार -बार यह समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि यदि उन्हें टिकट मिलता है तो इस समाज का इतना फीसदी वोट हमारी पार्टी की सीधी झोली में होगा। ऐसे नेताओं में कांग्रेस और भाजपा दोनों दलों के नेता शामिल हैं। ऐसे नेता अपने समाज के साथ ही अपने धार्मिक आयोजनों को भी पार्टी के सामने रख रहे हैं। प्रदेश में भाजपा को लगातार चौथी बार सरकार बनाने से रोककर कांग्रेस हर हाल में सरकार बनाना चाहती है। इसके लिए कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने सामाजिक दांव खेलना शुरू किया। यही नहीं कमलनाथ से मुलाकात के बाद अलग-अलग समाज ने टिकट की दावेदारी की है। कमलनाथ ने सबसे पहले सिंधी समाज से मुलाकात की थी, इसके बाद ये सिलसिला जैन, साहू, मांझी, यादव, राजपूत, मीना, गुर्जर, लोधी, मुस्लिम, क्रिस्चन, बोहरा, बाल्मिकी, माली, कोली समेत दूसरी जाति तक पहुंचा। मीना समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष किरोड़ीलाल मीणा कहते हैं कि मप्र में मीना समाज राजनीतिक रूप से उपेक्षित है। जबकि प्रदेश में इस वर्ग को बड़ा वोट बैंक है। कई विधानसभा क्षेत्रों में हमारे समाज का वर्चस्व है। इसलिए हमारे समाज के लोग सभी राजनीतिक पार्टियों से टिकट की मांग कर रहे हैं।
दलितों को साधने में जुटे
प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में 80 लाख दलित वोटों को साधने के लिए राजनीतिक दलों की कोशिशें तेज हो गई हैं। कांग्रेस ने दलित उपमुख्यमंत्री बनाने का शिगूफा छेडक़र दलितों को साधने का दांव चला है। भाजपा दलित वोटों को रिझाने के लिए पहले ही ग्राम स्वराज और समरसता अभियान शुरू कर चुकी है। उधर, बसपा दलितों के दम पर अकेले चुनाव लडऩे का दम भर रही है। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों में बसपा को 21 लाख 27 हजार वोट मिले थे। ये कुल वोटर्स का 6.29 फीसदी थे। पिछले 5 चुनाव का ट्रेंड देखे तो लगभग 7 फीसदी वोट बसपा का फिक्स रहा है। बसपा अनुसूचित जाति की 35 सीटों पर सीधे मुकाबले की स्थिति में है। 80 सीट ऐसी हैं, जिन पर दलित वोटर्स फैक्टर होते हैं।
बसपा ग्वालियर, चंबल, रीवा, और सागर में ज्यादा मजबूत है। वर्तमान में बसपा के 4 विधायक हैं, वर्ष 2013 में बसपा 12 सीटों में दूसरे स्थान पर रही थी। दलित राजनीति के पॉवर सेंटर में दलित राजनीति के चेहरे फूलसिंह बरैया ने बहुजन संघर्ष दल बनाया है। बरैया ने ऐलान किया है कि उनकी पार्टी 80 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। भाजपा को हराने के लिए बसपा से गठबंधन को तैयार है। अगर ऐसा होगा तो दलित वोट बैंक नहीं बिखरेगा। बरैया की पार्टी का असर ग्वालियर-चंबल संभाग में अच्छा है। बरैया के मुताबिक वे भाजपा को हराने के लिए किसी भी दल से जुडऩे को तैयार हैं। कांग्रेस 150 सीट पर और 80 सीट पर बाकी दल लड़ेंगे तो भाजपा सत्ता से बाहर होगी।
52 प्रतिशत ओबीसी आबादी को भुनाने की जुगत
प्रदेश में ओबीसी आबादी बड़ा वोट बैंक है। इस वर्ग को भुनाने के लिए हर पार्टी जुगत में लगी हुई है। सर्वे के अनुसार विभिन्न पार्टियों से जुड़े इस वर्ग के नेता टिकट के लिए अपनी जाति के लोगों को एकजुट कर रहे हैं। यानी पहली बार राज्य की सियासत बिहार-यूपी की तरह ओबीसी मुद्दे के बीच जातिवाद के केंद्र में घूम रही है। प्रदेश में करीब 52 प्रतिशत ओबीसी आबादी है और अगर यह वर्ग एक खास पैटर्न में वोटिंग करे तो यहां ओबीसी फैक्टर निर्णायक साबित हो सकता है इसलिए दोनों ही पार्टियां इन्हें साधना चाहती हैं। प्रदेश की सत्ता में दिग्विजय सिंह के पराभव के बाद से यहां ओबीसी वर्ग के नेताओं का वर्चस्व रहा है और दिग्विजय सिंह के बाद से तीन मुख्यमंत्री हो चुके है और संयोग से उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराजसिंह चौहान तीनों ही पिछड़ा वर्ग और भाजपा के हैं। वर्तमान में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान खुद ओबीसी वर्ग से हैं ही नए प्रदेश अध्यक्ष राकेश सिंह भी इसी वर्ग से आते हैं। इधर, कांग्रेस में एक तरह से 2011 से 2018 के बीच प्रदेश कांग्रेस की कमान आदिवासी और पिछड़े वर्ग के नेताओं के हाथ में थी, अरुण यादव से पहले कांतिलाल भूरिया प्रदेश अध्यक्ष थे लेकिन अब तस्वीर बदल चुकी है। अब पार्टी में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधिया का वर्चस्व हो गया है।
प्रमोशन में आरक्षण बिगाड़ेगा गणित
प्रदेश की राजनीति में इस बार जातिवाद का जोर हर बार की अपेक्षा अधिक दिख रहा है। यही कारण है कि प्रदेश के अधिकारी-कर्मचारी इन दिनों सपाक्स और अजाक्स के बीच बंट गए हैं। सपाक्स यानी सामान्य एवं पिछड़ा अल्पसंख्यक वर्ग कर्मचारी संघ और अजाक्स संगठन में एसटी-एससी कर्मचारी शामिल हैं। सपाक्स चाहता है कि पदोन्नति में आरक्षण को खत्म किया जाए। वहीं अजाक्स सरकार पर दबाव बना रहा है कि चुनाव से पहले पदोन्नति के नए नियम बनाकर उन्हें आरक्षण का लाभ दिया जाए। दोनों ही संगठनों ने सरकार को चेतावनी दी है कि उनकी मांग को नजरअंदाज किया तो वोट नहीं मिलेंगे। अगर देखा जाए तो मप्र के इतिहास को देखें तो यहां जातिवाद की राजनीति प्रभावहीन रही है। बहुजन समाज पार्टी हो या समाजवादी पार्टी अथवा गोंडवाना पार्टी, इनकी जातिवादी राजनीति मप्र में कभी सफल नहीं रही है। भाजपा-कांग्रेस के अलावा न तो कोई तीसरा दल यहां खड़ा हो पाया और न ही ऐसे दलों को कभी लोगों ने बढ़ावा दिया पर आने वाले चुनाव की जिस तरह बिसात बिछाई जा रही है, उससे स्पष्ट है कि जातिवाद की सियासत नाक में दम कर देगी।
कांग्रेस-भाजपा को सताने लगी दलित वोटों की फिक्र
विधानसभा चुनाव आते ही, कांग्रेस-भाजपा दोनों को दलित वोटों की फिक्र सताने लगी है। दलित वोटरों में किसकी कितनी पैठ है ये भी आंका जाने लगा है। जहां कांग्रेस जिताऊ उम्मीदवार का वजन देखने के साथ जाति धर्म के आधार पर सर्वे करवा रही है, वहीं भाजपा दलित वोटरों पर नजर रखने हर बूथ पर जाति प्रमुखों की तैनाती कर रही है। महिला कांग्रेस कार्यकर्ताओं को इन दिनों एक फॉर्म दिया जा रहा है जिसमें उन्हें, जाति-उपजाति की जानकारी देनी है। वहीं पार्टी उम्मीदवारों के चयन के लिए भी हर विधानसभा में 10 पन्ने के फॉर्म को भरवाकर सर्वे करवा रही है। इस फॉर्म में मतदाताओं की 5 प्रमुख जाति और धर्म की प्रतिशत में जानकारी मांगी गई है, इसी फॉर्म में विधायक चुनने के लिए पहला विकल्प जाति और धर्म है। महिला कांग्रेस की अध्यक्ष मांडवी चौहान कहती हैं कि जब सीट की बात आती है तो पता होना चाहिए कौन महिला काम कर रही है, अगर रिजर्व सीट है पिछड़ा वर्ग से आती है तो उसे देखते हुए डेटा इकठ्ठा कर रहे हैं।
बूथों पर जाति बहुल कार्यकर्ता की तैनाती
धर्म-जाति खंगालने और अपना वोट बैंक संवारने में भाजपा भी पीछे नहीं है। पार्टी राज्य के सभी 65200 पोलिंग बूथों पर जाति प्रमुख की तैनाती कर रही है, जिम्मा अनुसूचित जाति वर्ग मोर्चा को सौंपा गया है। जाति प्रमुख अनुसूचित जाति का वो कार्यकर्ता होगा जिसके वोटरों की संख्या उस बूथ पर सबसे ज्यादा होगी। उसका काम अपने वर्ग के वोटरों की जानकारी रखना, उनसे संपर्क करना और पार्टी के पक्ष में माहौल बनाना होगा। भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा के अध्यक्ष सूरज कैरों ने कहा एक बूथ पर वर्चस्व जिस समाज का है उन्हें लेंगे लेकिन दस घर एक समाज का है उसकी बात मानते हैं तो उसी समाज का कार्यकर्ता खड़ा करेंगे। हमारा एक प्रहरी हर बूथ पर हो उसी को अंजाम देने बूथ प्रमुख बनाने जा रहे हैं। लगभग सवा तीन लाख कार्यकर्ताओं की टीम खड़ी होगी जो निश्चित रूप से पार्टी के लिए हितकर होगा। मप्र के 2013 के चुनाव परिणामों पर यदि नजर डालें तो 230 विधानसभा सीटों में से 110 सीटों पर धर्म, जाति, भाषा के आधार पर प्रत्याशी चुनाव जीते थे। मप्र में अनुसूचित जाति, जनजाति सीटों की संख्या भी अधिक है। यहां करीब 25 से 48 सीटें इसी वर्ग से संबंधित हैं। प्रदेश में अनुसूचित जाति की आबादी 15.2 फीसदी, और अनुसूचित जनजाति की आबादी 20.8 फीसदी है। सूबे में अनुसूचित जाति की 35 सीटें हैं, जिसमें फिलहाल 28 पर बीजेपी काबिज है। 47 अनुसूचित जनजाति बहुत सीटों में 32 पर भाजपा का कब्जा है। बसपा को 7 फीसदी वोट मिलते रहे हैं, उसके पास 4 विधायक हैं। जीजीपी और छोटे दलों को लगभग 6 फीसदी वोट मिले थे। चुनाव में क्षेत्रीय दलों के चुनावी गणित बड़े दल के प्रत्याशियों के हार-जीत के समीकरण को बिगाडऩे में बड़ा रोल अदा करते हैं।
इस रणनीति से एंटी-इनकंबेंसी को मात देगी भाजपा
आगामी लोकसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा अपने विधायकों-सांसदों के बारे में लगातार आंतरिक सर्वे और फीडबैक ले रही है, और ये देख रही है कि जनता के बीच उनकी कितनी पकड़ बची है। ऐसा माना जा रहा है कि बेरोजगारी, महंगाई और विधायकों-सांसदों के रवैये से जनता निराश है और इस बार के चुनावों में भाजपा को एंटी-इनकंबेंसी का भी सामना करना पड़ेगा। साथ ही विपक्ष के एक साथ आने से भी पार्टी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं। ऐसे में पार्टी इन सबको मात देने के लिए अपनी स्ट्रेटेजी तैयार कर रही है जिसमें सबसे पहली बात जो देखने को मिल सकती है वो होगी कई मौजूदा विधायकों को टिकट ना देना। मध्य प्रदेश में भाजपा के लिए सबसे बडी चुनौती एंटी-इनकंबेंसी से पार पाने की होगी। जिसके लिए पार्टी नए चेहरों पार भरोसा दिखा सकती है जिससे एक फायदा ये भी होगा कि पार्टी का आधार बढ़ेगा और लोगों का विश्वास भी। सर्वे के अनुसार प्रदेश में भाजपा के सामने एंटी इंकम्बेंसी सबसे बड़ी चुनौती दिख रहा है क्योंकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का यह तीसरा कार्यकाल है ऐसे में जनता दूसरे विकल्प का भी बटन दबा सकती है। वैसे हमने मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में इससे पहले भी देखा है कि इस तरह की बातें आई हों लेकिन शिवराज के नेतृत्व में पार्टी को हर बार सफलता मिली है।
2013 के मुकाबले कितनी मजबूत कांग्रेस
प्रदेश में कांग्रेस पंद्रह साल से विपक्ष में है। 2013 के विधानसभा चुनाव के समय प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरुण यादव और चुनाव प्रचार समिति के प्रमुख ज्योतिरादित्य सिंधिया थे। कांग्रेस को ये भरोसा था कि भाजपा लगातार 10 साल सत्ता में रहने के बाद एंटी इंकम्बेंसी का सामना करेगी और शायद कांग्रेस दस साल बाद सत्ता में वापसी कर लेगी। लेकिन उस समय प्रदेश कांग्रेस में गुटबाजी चरम पर थी। हालांकि, कांग्रेस के दिग्गज नेता इसे मीडिया के सामने स्वीकारते नहीं थे। प्रदेश कांग्रेस में आधा दर्जन से अधिक क्षत्रप सक्रिय थे। जिनमें दिग्विजय, कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सुरेश पचौरी, अजय सिंह और अरुण यादव जैसे नेताओं के गुट थे। इस कारण कांग्रेस 58 सीटों पर सिमट गई।
2013 से सबक लेकर कांग्रेस ने 2018 में अपनी रणनीति में कुछ बदलाव किए। पार्टी ने गुटबाजी से निपटने के लिए थोड़ा पहले से होमवर्क करना शुरू कर दिया। कहा गया कि इस बार प्रदेश कांग्रेस के नेता अपनी पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिए आपसी महत्वाकांक्षाओं से समझौता करने को भी तैयार हैं। 15 साल से सत्ता में बैठी भाजपा को हटाने के लिए कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने मन से मन मिला लिया है। आलाकमान ने प्रदेश कांग्रेस की कमान सबसे वरिष्ठ नेता 71 साल के कमलनाथ को सौंप दी और साथ में चार अलग-अलग अंचलों में कार्यकारी अध्यक्ष भी बना दिया। जिससे पार्टी में सबको शामिल किया जा सके। पिछले बार की तरह चुनाव प्रचार समिति की कमान ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथों में ही है। लेकिन कई स्तरों पर गुटबाजी भी देखने को मिली है। एकता और गुटबाजी के बीच सच्चाई यही है कि यदि इस बार पार्टी हारी तो प्रदेश में कांग्रेस की एक पूरी पीढ़ी पार्टी को सत्ता में देखे बिना निकल जाएगी।
दिग्विजय सिंह ने पार्टी को किया एकजुट
कांग्रेस की एक मुश्किल उस सवाल से जूझना भी है कि यदि कांग्रेस चुनाव जीत गई तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा? कभी कमलनाथ तो कभी सिंधिया के समर्थक पोस्टर के जरिये गुटबाजी बयान करने से नहीं चूक रहे है। हालांकि, दिग्विजय सिंह ने नर्मदा परिक्रमा के बहाने पार्टी के कार्यकर्ताओं को एकजुट करने का काम किया है और लगातार इस कोशिश में जुटें हुए हैं कि पुराने नेता पार्टी के लिए एकजुट होकर काम करें। अब दिग्विजय सिंह अपनी अगली पीढ़ी यानी विधायक बेटे जयवर्धन के बारे में सोच रहे हैं इसीलिए सभी नेताओं को साथ लेकर चलने की कवायद में लगे हैं। जाहिर है इस चुनाव में सभी दिग्गजों की चुनौती सत्ता पाने के साथ-साथ अपनी पीढ़ी को बचाने की भी है। कांग्रेस के पास इस बार व्यापमं घोटाला, मंदसौर किसान गोलीकांड जैसे बड़े मुद्दे और पंद्रह साल की एंटी इंकम्बेंसी का फैक्टर है। यदि ऐसे में कांग्रेस मतदाताओं को रिझाने में कामयाब नहीं हो पाती है तो अगले बार की लड़ाई और मुश्किल होगी। क्योंकि उस समय तक जनता पुराने कांग्रेस के नेताओं को कई बार खारिज कर चुकी होगी। इस बार कांग्रेस को जिताऊ चेहरा चाहिए, जिस पर जनता भरोसा कर सके। बड़ा सवाल ये है कि क्या कांग्रेस ने 2013 में विधानसभा चुनाव की हार से कोई सबक लिया? टिकटों के निष्पक्ष चयन और जनता में विश्वास के लिए कांग्रेस को तीन महीने में काफी काम करना बाकी है।
युवाओं के सहारे सत्ता की आस
मप्र की सत्ता पर कौन काबिज होगा यह प्रदेश के ढाई करोड़ से अधिक मतदाता तय करेंगे। इसको देखते हुए राजनीतिक पार्टियों ने युवा मतदाताओं को साधना शुरू कर दिया है। इस कवायद में फिलहाल भाजपा और कांग्रेस सबसे आगे हैं। भाजपा का भाजयुमो और कांग्रेस का भाराछासं युवाओं को अपने संगठन की ओर आकर्षित कर रहे हैं। यही नहीं भाजपा ने तो युवाओं को रिझाने के लिए खजाना ही खोल दिया है। प्रदेश में विधानसभा चुनाव संपन्न होने में करीब 3 से 4 माह बाकी है। राजनीतिक दलों ने चुनाव मैदान में उतरने के लिए कमर कस ली है। पार्टियों का मुख्य फोकस युवा मतदाता हैं। प्रदेश में करीब ढाई करोड़ से ज्यादा मतदाताओं की उम्र 40 साल से कम है। वोटरों की इस बड़ी संख्या में 50 प्रतिशत से ज्यादा का हिस्सा युवा और नौजवान वोटरों का है। वर्तमान में मतदाताओं के आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि आगामी चुनाव में सत्ता की चाभी युवा हाथों से होकर गुजरेगी। मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव के मद्देनजर विपक्षी दल कांग्रेस युवाओं को अपनी ओर आकर्षित करने में जुटी हुई है। भाजपा नेताओं का मानना है कि विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर 18 वर्ष और इससे ऊपर के जो मतदाता हैं, कांग्रेस उन्हें बरगला रही है। इन नव मतदाताओं ने दूसरी सरकार देखी नहीं है इसलिए वे कांग्रेस के बहकावे में आ रहे हैं। प्रदेश में इस समय 30 वर्ष से कम आयु के दो करोड़ मतदाता हैं। युवा मतदाताओं की नाराजगी को वोटों में बदलने के लिए कांग्रेस जी-जान से जुटी है। उधर, कांग्रेस ने प्रदेश में बेरोजगारों की बढ़ती फौज को मुद्दा बनाया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ हों या चुनाव अभियान समिति के अध्यक्ष ज्योतिरादित्य सिंधिया, दोनों ही नेता युवाओं को रोजगार दिलाने सहित भाजपा राज में घटे रोजगार के अवसरों का हवाला दे रहे हैं। भाजपा ने इससे निपटने के लिए अगले कुछ महीने के भीतर सरकारी और गैर सरकारी क्षेत्र में दो लाख युवाओं को रोजगार से जोडऩे का लक्ष्य रखा है। यही नहीं नए मतदाताओं को रिझाने के लिए ही सरकार ने मुख्यमंत्री मेधावी योजना शुरू की है। इसमें अब तक 28 लाख छात्रों की फीस सरकार ने भरी है। ये सभी युवा 18 साल से अधिक उम्र के हैं, जो इस चुनाव में पहली बार वोट डालेंगे। अब दबाव युवाओं पर फोकस करने का है। प्रदेश के अधिक से अधिक युवाओं को कांग्रेस की ओर आकर्षित करने के लिए पार्टी ने विधानसभा चुनाव में 30 प्रतिशत युवाओं को टिकट देने की घोषणा की है। सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया का कहना है कि कांग्रेस इस बार 30 प्रतिशत ऐसे युवाओं को टिकट देगी जिन्होंने इससे पहले कोई चुनाव ही नहीं लड़ा।
भाजपा के खिलाफ एकजुट हुए सभी दल
अब शरद यादव के लोकतांत्रिक जनता दल ने भी भाजपा को हराने के लिए मिलकर चुनाव लडऩे की अपील की है। यादव ने कहा कि हम सभी के पास जो ताकत है वो अकेली बीजेपी के पास नहीं है। शरद यादव लोकतांत्रिक जनता दल के राज्य स्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में भाग लेने राजधानी आए थे। यादव ने बताया कि मध्यप्रदेश में भाजपा के पास कुल 31 प्रतिशत वोट है, जबकि हम सभी के पास 69 फीसदी वोट प्रतिशत है। यादव ने भाजपा को सत्ता से बाहर करने करने के लिए कांग्रेस समेत सभी दलों से मिलकर साथ-साथ चुनाव लडऩे की अपील की है। पिछले कुछ समय से कांग्रेस का बसपा, समाजवादी पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के साथ गठबंधन की अटकलें चल रही है। इस बीच लोकतांत्रिक जनता दल के सुप्रीमो शरद यादव ने भी साफ कर दिया है कि वे भाजपा के खिलाफ तीसरे मोर्चे के पक्ष में हैं। इस बीच शरद यादव के साथ बहुजन संघर्ष दल, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, लोकतांत्रिक जनता दल, माक्र्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी और समानता दल की बैठक हुई। बसपा, समाजवादी पार्टी, गोंगपा और फिर लोकतांत्रिक जनता दल ने कांग्रेस के साथ गठबंधन की संभावनाओं पर विचार किया है। हालांकि, कौन से क्षेत्र में किस प्रत्याशी को मैदान में उतारा जाएगा और कितनी सीटें दी जाएंगी, इस पर समीकरण बैठाना कांग्रेस के लिए मुश्किल होगा।