इस बार भाजपा की जीत 2008 व 2013 जैसी आसान न होगी। न ही बीजेपी 150 का आंकड़ा पार कर सकेगी।
बाकी राज्यों की तरह मध्य प्रदेश में भी इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में विकास की बात होगी। लेकिन विकास चुनावी मुद्दा नहीं होगा। आखिर में चुनाव जाएगा जात-पांत, धर्म और स्थानीय मुद्दों पर ही होगा। इस चुनाव में कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वह किस मुद्दे पर चुनाव लड़े? सॉफ्ट हिंदुत्व का मुद्दा गुजरात और कर्नाटक की तरह निर्णायक साबित नहीं होगा। कांग्रेस भ्रष्टाचार की बात उठाती रही है। पिछले तीन चुनाव से वहीं पुराने मुद्दे उसके पास है। व्यापमं घोटाले के सामने आने के बाद भी शिवराज सरकार बेअसर ही थी। ई-टेंडरिंग घोटाले में तो अभी तक कोई एफआईआर तक नहीं हुई है। प्रदेश में हेल्थ और एजुकेशन सेक्टर की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ रही है। बावजूद इसके कांग्रेस इसे मुद्दा नहीं बना पा रही है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ ने जो 40 दिन 40 सवाल पूछने का सिलसिला शुरू किया है उसमें सभी मुद्दे पुराने हैं। यह मुद्दे विधानसभा के पटल पर आ चुके हैं। पब्लिक डोमेन में है या लोगों की जानकारी में है। दूसरी लड़ाई कांग्रेस के भीतर चेहरे की है कि आखिर चेहरा कौन होगा? 70 वर्ष के कमलनाथ या युवा ज्योतिरादित्य सिंधिया और इन सबसे हटकर… आखिर कांग्रेस का वह कौन-सा चेहरा है जो शिवराज सिंह के मुकाबले खड़ा हो सके। जहां तक गठबंधन की बात है निश्चित रूप से अगर बसपा का साथ कांग्रेस को मिला होता तो वह ग्वालियर चंबल में बेहतर कर पाती। दूसरा झटका जयस और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से कांग्रेस को लगा है। खासतौर से गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का जनाधार विंध्य और महाकौशल के आदिवासी इलाकों में है। वह कांग्रेस के साथ आने को तैयार हो जाती तो बीजेपी के लिए महाकौशल का रण मुश्किल-भरा हो सकता था। क्योंकि जीजीपी भले ही अकेले निर्णायक स्थिति में न हो लेकिन वह खेल बिगाडऩे की ताकत रखती है। रही बात सपाक्स की तो वह केवल कागजी तौर पर ही सक्रियता दिखा पाएगा। किसी मुद्दे पर लोगों को एक साथ लाना अलग बात है। चुनावी राजनीति में उतरकर खुद को साबित करना दूसरी बात है। सपाक्स के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है। इस सरकार की यूएसपी है कि उसने लोगों को व्यक्तिगत लाभ दिया है। यानी अब लोग खुद का भला देख रहे हैं फिर चाहे वह संभल योजना में मिल रहा लाभ हो या भावंातर में या चाहे लाड़ली लक्ष्मी योजना, कन्यादान योजना में या उससे जुड़ी मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना में। सरकार की ऐसी तमाम योजनाएं जो व्यक्तिगत लाभ दे रही है, उनका लाभ उठाने वाला समाज का एक बड़ा वर्ग कभी भी भाजपा से दूर नहीं जाएगा। रही बात एट्रोसिटी एक्ट को लेकर हो रहे विरोध की तो अंतत: वह भी बीजेपी के पक्ष में जाएगा क्योंकि वह उसका ही वोटबैंक है। वह कभी भी कांग्रेस के साथ नहीं जाएगा और जैसा कि हल्ला है कि बीजेपी को नहीं नोटा को वोट दो तो कोई एक आम वोटर जो 2 घंटे लाइन में लगेगा और जान-बूझकर नोटा को वोट करता है तो भी वह बीजेपी की मदद करेगा क्योंकि वह कांग्रेस को वोट नहीं कर रहा है। इसके साथ ही पूरी कांग्रेस में कोई भी ऐसा नेता नहीं है जो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के मुकाबले इतनी मेहनत कर सके। इतिहास बना सके और जनता के बीच जा सके क्योंकि जो कांग्रेस के नेता हैं वह टुकड़ों में जा रहे हैं। बहुत लोगों के पास पहुंच तक नहीं पा रहे हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि कांग्रेस के संग अभी दिशाहीनता की स्थिति है। मुद्दों का अभाव है। और ऐसे में सीएम उम्मीदवार के चेहरे की कमी कांग्रेस को खल रही है जो इस सरकार के खिलाफ एंटी-कम्बेंसी को विरोध को वोटों में बदल दे जैसा 2003 में उमा भारती ने तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार के खिलाफ किया था। यह भी साफ है कि इस बार की जीत 2008 और 2013 की तरह आसान नहीं होगी और न ही बीजेपी 150 का आंकड़ा पार कर पाएगी।