उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा ने बनाई कांग्रेस से दूरी
– बिहार में रालोसपा के आने से महागठबंधन मजबूत
– महाराष्ट्र में एनसीपी-कांग्रेस गठजोड़, सीटों पर फैसला अटका
लोकसभा चुनावों की घोषणा मार्च में होने की उम्मीद है। ऐसे में पार्टियों ने अपने-अपने राज्यों में चुनावी रणनीति को अंतिम रूप देना शुरू कर दिया है। उत्तर प्रदेश में जहां सपा-बसपा ने कांग्रेस से दूरी बना ली है, वहीं बिहार में एनडीए से अलग हुए उपेंद्र कुशवाहा के रालोसपा ने राजद-कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया है। महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा की परस्पर विरोधी तैयारियों के बीच कांग्रेस-एनसीपी ने गठबंधन कर सीटों पर भी फैसला कर लिया है। आने वाले दिनों में गठबंधनों की सियासत और स्पष्ट हो जाएगी। पर इतना तो तय है कि राहुल के नेतृत्व में मोदी-विरोधी दलों का गठबंधन होता नहीं दिख रहा। जो एकता कुछ समय पहले कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में दिखाई दी थी, वह अब बिखर चुकी है।
मंगल भारत भोपाल। सपा प्रमुख अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती ने कांग्रेस की महागठबंधन की कवायदों को झटका देने का मन बना लिया है और कांग्रेस को छोड़ एक साथ चुनाव लडऩे की तैयारी कर चुके हैं। मायावती और अखिलेश यादव इस साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर सीट-बंटवारे के फॉर्मूले को अंतिम रूप देने के करीब पहुंच गए हैं और बस सिर्फ ऐलान की देरी है। सूत्रों का दावा है कि उत्तर प्रदेश की ये दोनों बड़ी पार्टियां 37-37 लोकसभा सीटों पर साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगी। बता दें कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं। यूपी की सियासी गलियाओं में चर्चा इस बात पर भी है कि बसपा-सपा गठबंधन में अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ दी जाएंगी और वहां किसी भी उम्मीदवार को नहीं उतारा जाएगा। इसके बाद जो सीटें बच रही हैं उससे राष्ट्रीय लोक दल और अन्य छोटी पार्टियों के लिए छोड़ा जाएगा। यानी सपा और बसपा के बीच गठबंधन की बात सही साबित होती है तो इसका मतलब है कि कांग्रेस इस गठबंधन का हिस्सा नहीं होगी और यूपी की अन्य क्षेत्रीय पार्टियों को जोडऩे की सपा-बसपा पूरजोर कोशिश करेगी। इस तरह से देखा जाए तो सपा-बसपा का संगम होता है तो कांग्रेस को बड़ा झटका तो होगा। साथ ही बीजेपी के लिए भी किसी बड़े झटके से कम नहीं होगी।
कांग्रेस के साथ-साथ बीजेपी के लिए झटके की बात को समझने के लिए लोकसभा चुनाव 2014 के वोट शेयर पर गौर करने की जरूरत होगी। दरअसल, 2014 में भले ही बसपा को एक भी सीट नहीं मिल पाई थी, मगर उसका वोट फीसदी सपा के करीब ही था। 2014 के लोकसभा चुनाव भारतीय जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और उसने 80 में से 71 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था। उस वक्त 71 सीटें जीतने वाली बीजेपी ने रिकॉर्ड करीब 42 फीसदी वोट हासिल किए थे। वहीं, समाजवादी पार्टी के खाते में करीब 22 फीसदी वोटों के साथ 5 सीटें आई थीं। 2014 में मायावती की बसपा को एक भी सीट नहीं मिल पाई थी, मगर उसके करीब 20 फीसदी वोट थे। वहीं, कांग्रेस ने रायबरेली और अमेठी की सीटें जीती थीं और उसने करीब 7 फीसदी वोट शेयर हासिल किए थे। अब अगर 2014 में यूपी में सभी पार्टियों के वोट फीसदी पर नजर डालें तो ऐसा लगता है कि सपा-बसपा के साथ होने से यूपी की सियासत में बड़ा बदलाव देखने को मिलेगा। अगर सपा-बसपा साथ आती है तो यूपी में इन दोनों पार्टियों को ही सबसे ज्यादा फायदा होगा। इसकी वजह है कि अगर सपा-बसपा के वोट शेयर को मिला दिया जाए तो यह करीब 40 फीसदी के आस-पास बैठता है, जो 2014 के मुकाबले में बीजेपी के बराबर है। अब अगर इसी वोट शेयर से सीटों की जीत का अनुमान लगाया जाए तो हो सकता है कि 2019 में सपा-बसपा गठबंधन का आधे से ज्यादा सीटों पर कब्जा हो जाए। इसके अलावा सपा-बसपा चाहेगी कि पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक दल जैसे- निषाद पार्टी, अपना दल (कृष्णा पटेल) उसके साथ हो जाए। अगर ऐसा होता है तो कांग्रेस के लिए 2019 की राह और भी मुश्किल हो जाएगी। क्योंकि गठबंधन में ना शामिल किए जाने पर पिछले चुनाव में महज 7.5 फीसदी वोट पाने वाली कांग्रेस के लिए मुश्किलें और बढ़ेंगी और केंद्र की सत्ता में वापसी के सपने बिखर सकते हैं। हालांकि, सपा-बसपा के गठबंधन से किसी तरह के सियासी नुकसान से बीजेपी इनकार कर रही है। यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या का कहना है कि सपा-बसपा गठबंधन करे या न करे, हमें नहीं लगता कि इससे हम पर कोई प्रभाव पड़ेगा। देश मोदी जी के साथ है और उन्हें एक बार फिर से लोग पीएम बनना देखना चाहते हैं। विधानसभा चुनाव में जहां बीजेपी को 39.6 प्रतिशत वोट मिले तो सपा और बीएसपी को 22 फीसदी। दोनों के वोटों को मिला दें तो 44 फीसदी हो जाता है। कांग्रेस को मात्र 6 फीसदी ही वोट मिले थे। वहीं, बात करें लोकसभा चुनाव 2014 की तो बीजेपी को उत्तर प्रदेश में 42.6 प्रतिशत वोट मिले थे। सपा को 22 फीसदी और बीएसपी को 20 फीसदी वोट मिले थे। बहरहाल, ऐसी खबरें हैं कि 15 जनवरी के बाद सीटों के बंटवारे को अंतिम रूप दिया जा सकता है।
महाराष्ट्र में 20-20 सीटों पर लड़ेगी कांग्रेस-एनसीपी, 8 सीटें सहयोगी दलों के लिए छोड़ीं
लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र की 48 सीटों में से कांग्रेस और एनसीपी 20-20 सीटों पर लडऩे को राजी हो गई हैं। जबकि आठ सीटें सहयोगी दलों के नेताओं के लिए छोड़ी गई हैं। दो-तीन सीटें ऐसी भी हैं, जहां दोनों दल उन पर अपना दावा जता रहे हैं। कांग्रेस-एनसीपी नेताओं के बीच कई दौर की वार्ता के बाद दोनों ने 20-20 सीटों पर लडऩे का फैसला किया। 2014 में कांग्रेस 26 सीटों पर लड़ी थी और उसके दो सांसद जीतकर आए थे, जबकि एनसीपी ने 21 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे और उसे पांच पर जीत मिली। सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस अमरावती और थाने संसदीय सीटों पर भी अपना दावा जता रही है। ये दोनों सीट अभी शिवसेना के पास हैं। भाजपा से अलग हुए निर्दलीय सांसद राजू शेट्टी का कहना है कि महागठबंधन को लेकर अभी कांग्रेस-एनसीपी ने अन्य नेताओं से बात नहीं की है। उन्हें इस बात की जानकारी नहीं है कि कांग्रेस-एनसीपी के बीच सीटों को लेकर कोई तालमेल हुआ है। हालांकि, सूत्रों का दावा है कि कई सीटों पर कांग्रेस और एनसीपी में सहमति बनाए जाने की कोशिशें जारी हैं। दरअसल, जिन 40 सीटों पर दोनों पार्टियां लडऩा चाहती है, उसे लेकर मतभेद सामने आ रहे हैं। हैरानी की बात यह है कि जब कांग्रेस-एनसीपी ने अपनी रणनीति स्पष्ट कर दी है, तब भाजपा और शिवसेना अब भी आपस में सुलह के रास्ते ही तलाश रहे हैं। शिवसेना तो सिरे से खारिज कर चुकी है कि वह भाजपा के साथ किसी तरह का कोई तालमेल नहीं चाहती है। दोनों के बीच लड़ाई जारी है। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि दोनों पार्टियां एक-दूसरे की पूरक हैं। दोनों का ही अस्तित्व एक-दूसरे पर आश्रित है, लेकिन शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे इसे अहं की लड़ाई बनाना चाहते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा सीटें हासिल करने के लिए भी दबाव बना रहे हैं। वैसे, लोकसभा चुनावों के बाद राज्य में विधानसभा चुनावों के लिए सुगबुगाहट शुरू हो जाएगी। ऐसे में शिवसेना अपने बड़े भाई की हैसियत फिर चाहती है। इसके लिए वह पूरी कोशिश कर रही है कि भाजपा नेतृत्व दबाव में आएं और भाजपा को ज्यादा सीटों पर चुनाव न लड़ाया जा सके।
ममता की कोलकाता रैली में होगी विपक्षी गठबंधन की परीक्षा
हाल के विधानसभा चुनावों में तीन हिंदी भाषी राज्यों में बीजेपी की हार के बाद अब विपक्षी दलों की नजर 2019 लोकसभा चुनाव पर टिकी है। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी को शायद पिछले काफी समय से ऐसे ही मौके का इंतजार था। या कहें कि वह पिछले कुछ वर्षों से बड़े राजनीतिक मौके पर नजर गड़ाए हैं। अब वह 2019 लोकसभा चुनाव से पहले भगवा ब्रिगेड के खिलाफ लडऩे के लिए महत्वपूर्ण भूमिका में आने की पुरजोर कोशिश में लगी हैं। इस समय पश्चिम बंगाल की 42 लोकसभा सीटों में से टीएमसी के पास 34 सीटें हैं। जबकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस बार कुल 42 सीटों पर जीत हासिल करने की जद्दोजहद में लगी हैं। जबकि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने 23 सीटों पर जीत का लक्ष्य तय किया है। शायद ममता बनर्जी की राजनीतिक चाहत यहीं तक सीमित नहीं है। वह फेडरल फ्रंट बनाने को बेताब हैं। इसी के तहत उन्होंने 19 जनवरी को कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में होने वाली टीएमसी की महारैली में लगभग सभी क्षेत्रीय दलों को शामिल होने का अनुरोध किया है। टीएमसी सांसद अभिषेक बनर्जी ने कहा कि नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के अध्यक्ष फारूक अब्दुल्ला, डीएमके अध्यक्ष एमके स्टालिन, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के सुप्रीमो शरद पवार, जाने-माने वकील राम जेठमलानी और बीजेपी नेता शत्रुघन सिन्हा सहित कई बड़े नेता शामिल होंगे। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष किरणमय नंदा ने कहा, मुझे अन्य पार्टी के नेताओं के बारे में नहीं पता है। लेकिन अखिलेश यादव जरूर इस कार्यक्रम में शामिल होंगे। सपा को ममता बनर्जी के सार्वजनिक सभा का हिस्सा क्यों होना चाहिए, संबंधित सवाल पर उन्होंने कहा, बीजेपी के खिलाफ शुरू हुई लड़ाई में ममता बनर्जी दूसरों की अपेक्षा मजबूती से उभरी हैं। हालांकि, बीएसपी के प्रवक्ता सुधींद्र भदौरिया ने बताया, मायावती ने अभी तक ममता बनर्जी के कार्यक्रम में जाने के बारे में कोई निर्णय नहीं लिया है। अगर आवश्यक होगा तो वह फोन करके सूचना देंगी। इस मेगा शो के आह्वान के साथ ही ममता बजर्नी ने कहा था कि यह देश के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ होगा और इससे बीजेपी के खिलाफ क्षेत्रीय दलों को एकजुट करने में मदद मिलेगी। इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए विभिन्न समितियों का गठन करके पार्टी के वरिष्ठ नेताओं की तैनाती की गई है। इस संबंध में बनर्जी ने कहा था, कई क्षेत्रीय दलों ने पहले ही इस रैली के लिए अपनी भागीदारी की पुष्टि कर दी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में इस रैली की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। आवास, स्वागत, परिवहन और कैंपेन संबंधित चार समितियां बनाई गई हैं। जिसके माध्यम से टीएमसी के नेता और कार्यकर्ता अन्य राज्यों से आने वाले नेताओं की आवभगत करेंगे।
बिहार: कुशवाहा के जाने से घबराई भाजपा!
बिहार में हर राजनीतिक दल अपने को सालों भर सक्रिय रखता है। चुनाव के मौसम में उनकी सक्रियता बढ़ जाती है। लेकिन हाल ही में बिहार भाजपा के नेताओं ने पूर्व सांसद और विधायक शकुनी चौधरी का जन्मदिन जिस तरह से बढ़-चढ़ कर मनाया उससे उनके विरोधियों से ज़्यादा उनके सहयोगियों को लगा कि भाजपा पूर्व केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा के जाने से राजनीतिक रूप से परेशान और घबराई हुई है। इस पर अधिकारिक रूप से जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) या लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के किसी नेता ने प्रतिक्रिया तो नहीं दी लेकिन दबी जुबान उन्होंने स्वीकार किया कि भाजपा को ऐसे कार्यक्रम के आयोजन की आवश्यनकता नहीं थी। हालांकि, शकुनि चौधरी के बेटे सम्राट चौधरी ख़ुद भाजपा में हैं और खगडिय़ा सीट से एनडीए के उम्मीदवार बनना चाहते हैं लेकिन पिता-पुत्र की राजनीतिक दास्तान यही रही है कि पिछले कई चुनावों से शकुनि चौधरी राजनीति के नौसिखियों से न केवल हारे हैं बल्कि कुशवाहा समाज में भी उनका प्रभाव काफी सीमित रहा है। अपने बेटे सम्राट चौधरी की सदस्यता बचाने के लिए उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से कई बार गुहार भी लगाई। जेडीयू के नेताओं का कहना है कि जब बीजेपी को मालूम है कि 1995 के बाद कुशवाहा समाज के एक बड़े तबके ने कभी भी नीतीश कुमार को छोड़ा नहीं है तब ऐसे समारोह का आयोजन करना एक प्रकार से उपेंद्र कुशवाहा का राजनीतिक भाव बढ़ाना ही है। वहीं, बीजेपी के नेताओं का कहना है कि हर दल को अपने तरीके से समाज के हर जाति और वर्ग को जोडऩे का प्रयास करने का हक है और बीजेपी ने भी ऐसा किया। हमारा लक्ष्य उपेंद्र कुशवाहा को कमजोर करना है और आगामी चुनाव में उन्हें उनकी राजनीतिक औकात दिखानी है। बिहार में भाजपा-नीत एनडीए के घटक दलों के बीच सीटों का बंटवारा होने के बाद कांग्रेस, राजद और दूसरी सहयोगी पार्टियां भी सीटों के तालमेल को जल्द अंतिम रूप देने की कोशिश में हैं। इसी के तहत अगले हफ्ते से औपचारिक बातचीत शुरू होगी। कांग्रेस का कहना है कि सीटों के तालमेल में कोई दिक्कत नहीं आएगी और उचित समय पर निर्णय हो जायेगा। पार्टी के राज्य प्रभारी शक्ति सिंह गोहिल ने कहा, यह तय हुआ है कि अगले हफ्ते किसी भी दिन राजद, कांग्रेस और दूसरे सहयोगी दल के नेता बैठेंगे। अभी ऐसा नहीं है कि इसी बैठक में सबकुछ तय हो जायेगा। यहां से बातचीत की औपचारिक शुरुआत होगी। उन्होंने कहा, इस बैठक में सीटों के तालमेल के साथ चुनाव प्रचार अभियान और इस रणनीति पर विचार किया जायेगा कि हम कैसे ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत सकते हैं। सीटों के बंटवारे पर अंतिम फैसले की अवधि पूछे जाने पर गोहिल ने कहा, उचित समय पर इसका निर्णय हो जाएगा। दरअसल, 2014 के लोकसभा चुनाव में बिहार की 40 सीटों में से 27 पर राजद और 12 पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा था। एक सीट राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के खाते में गई थी। उस चुनाव में राजद ने चार सीटों पर और कांग्रेस ने दो और राकांपा ने एक सीट पर जीत हासिल की थी। इस बार कई और पार्टियां महागठबंधन में शामिल हैं। इनमें उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा, पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी हम और शरद यादव की पार्टी लोकतांत्रिक जनता दल शामिल है। ऐसी भी चर्चा है कि वाम दलों को भी साथ लेने की कोशिश हो सकती है। माना जा रहा है कि महागठबंधन में पार्टियों की संख्या बढऩे के कारण राजद और कांग्रेस को 2014 की तुलना में अपनी सीटें कुछ कम करनी पड़ सकती हैं। यह पूछे जाने पर कि क्या कांग्रेस इस बार 2014 के चुनाव से कम सीटों पर मान जाएगी तो गोहिल ने कहा, यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम कितनी सीटों पर लड़ते हैं, बल्कि यह ज्यादा महत्वपूर्ण है कि महागठबंधन कैसे ज्यादा से ज्यादा सीटें जीते। गोहिल ने कहा, महागठबंधन वैचारिक प्रतिबद्धता पर आधारित है, इसलिए सीटों के तालमेल में दिक्कत नहीं आएगी। राजग के घटक दलों ने हाल ही में सीटों के तालमेल की घोषणा की जिसके तहत भाजपा और जदयू 17-17 और लोक जनशक्ति पार्टी छह सीटों पर चुनाव लड़ेगी।