भोपाल/मंगल भारत।मनीष द्विवेदी। सरकार भले ही
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद प्रदेश में पंचायत चुनाव की तैयारी के लिए प्रक्रिया शुरू करने की तैयारी कर रही है , लेकिन इसमें अब भी ओबीसी आरक्षण के कार्ड की राह आसान नहीं है। यही वजह है कि इस मामले में सरकार में मंथन का दौर जारी है। अब इस मामले में सरकार जल्द ही विधि विशेषज्ञों से भी सलाह लेने की तैयारी कर रही है। दरअसल मप्र सरकार महराष्ट्र में लागू आरक्षण की राह पकड़ना चाहती है , लेकिन इसमें भी पेंच बना हुआ है इसकी वजह है वहां पर आरक्षण से लेकर परिसीमन तक का काम चुनाव आयोग करता है, जबकि मप्र में यह काम राज्य सरकार द्वारा किया जाता है। इसके अलावा इस मामले सबसे बड़ा पेंच कोर्ट का वह आदेश बना हुआ है जिसमें साफ कहा गया है कि आरक्षण 50 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए। इसकी वजह से सरकार के सामने बड़ी चुनौति बनी हुई है। खास बात यह है कि महाराष्ट्र में अभी पंचायत चुनाव की प्रक्रिया चालू है। महाराष्ट्र में ओबीसी आरक्षण के बजाय निर्वाचन आयोग महज एससी, एसटी आरक्षण व सामान्य के आधार पर ही चुनाव करवा रही है, जबकि मप्र में स्थितियां बदलने की वजह खुद सरकार ही है। सरकार के लिए यह मामला अब गंले की फंस बन चुका है। यही वजह है कि सरकार किसी तरह से सुरक्षित उपाय की तलाश में है, जिससे की ओबीसी वर्ग भी खुश रहे और न्यायालय के आदेश का पालन भी हो जाए। दरअसल मप्र में ओबीसी वर्ग की बड़ी आबादी को देखते हुए राजनैतिक दलों द्वारा इन्हें अपने पाले में लाने के लिए ही 27 फीसदी आरक्षण की मांग की जाती रही। इस मामले को पूर्व की कमलनाथ सरकार ने आगे बढ़ाया था, लेकिन यह मामला कानूनी दांव पेंच में फंस गया। अब शिव सरकार भी इस प्रयास में लगी हुई है कि ओबीसी वर्ग को 27 फीसद आरक्षण का लाभ मिल जाए, जिससे की उसे इसका चुनावी फायदा हो सके। ऐसे में सरकार पर यह दबाव भी बढ़ा है कि 50 फीसदी आरक्षण के फार्मूेले को कैसे लागू किया जाए। यदि इस फार्मूेले पर काम हुआ तो सरकार को एससी, एसटी व ओबीसी को मिलाकर 50 फीसदी तक की सीमा के दायरे में आरक्षण लागू करने का अंसभव काम करना होगा। अगर मौजूदा दायरे में आरक्षण को लागू किया जाएगा तो ओबीसी के लिए महज 13 फीसदी आरक्षण ही दिया जा सकेगा। यही वजह है कि अब सरकार को इस मामले में विशेषज्ञों से राय लेनी पड़ रही है।
स्वतंत्र आयोग के जिम्मे पिछड़ेपन का सत्यापन
इस मामले में अब सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने ट्रिपल टेस्ट तय किया है। इसमें ओबीसी जातियों के पिछड़ेपन का सत्यापन होगा। यह सत्यापन राज्य सरकारों द्वारा गठित एक स्वतंत्र आयोग करेगा, जो वर्तमान या रिटायर जज की अध्यक्षता में बनेगा। उधर, आर्टिकल 342ए में संशोधन करते हुए पार्लियामेंट ने ओबीसी जातियों की लिस्टिंग करने की जवाबदारी राज्यों को दी है, जिसे तैयार कर केंद्र को भेजा जाएगा, जहां इनका पिछड़ापन तय होगा। इसमें भी खास बात यह है कि इस टेस्ट के बाद भी राज्य सरकार पंचायत चुनावों में 50 फीसद आरक्षण ही कर पाएगी। मप्र में अभी एसटी के लिए 20 फीसदी और एससी के लिए 16 फीसदी आरक्षण है। इसकी वजह से अभी ओबीसी वर्ग को 14 फीसदी आरक्षण ही मिल सकता है।
यह है मामला
प्रदेश सरकार द्वारा अध्यादेश जारी कर 2014 के परिसीमन के आधार पर पंचायत चुनाव कराए जा रहे थे। इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई, जिस पर कोर्ट ने 17 दिसंबर को ओबीसी सीटों को सामान्य में बदलकर ही पंचायत चुनाव कराने के आदेश दिए थे। यह चुनाव 6 जनवरी से तीन चरणों में होने थे, ऐसे में सीटों को परिवर्तित करने में समय लगता और सरकार का कहना था कि बिना ओबीसी आरक्षण के चुनाव नहीं कराएंगे। ऐसे में अंतिम रास्ता अध्यादेश को रद्द करना ही बचा था, लिहाजा सरकार ने ऐसा ही किया। इसके बाद आयोग को भी प्रक्रिया शुरू होने के बाद भी चुनाव निरस्त करने पड़े।
पिछड़े वर्ग के साथ अन्याय नहीं होने देंगे: भूपेंद्र सिंह
पंचायत चुनाव में ओबीसी आरक्षण मामले में नगरीय विकास एवं आवास मंत्री भूपेंद्र सिंह का साफ कहना है कि शिव सरकार पिछड़े वर्ग के साथ किसी भी हाल में अन्याय नहीं होने देगी। सरकार नए सिरे से पंचायत चुनाव में ट्रिपल टेस्ट के आधार पर प्रक्रिया पूरी कराएगी। उन्होंने कहा कि अब थ्री लेयर टेस्ट रिपोर्ट के बाद पंचायतों के त्रिस्तरीय चुनावों में ओबीसी आरक्षण लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने हरी झंडी दी है। दरअसल, महाराष्ट्र के प्रकरणों में पारित निर्णय 19 जनवरी को मप्र के पंचायतों में भी लागू किए जाने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने दिया है।
सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी की वजह
सुप्रीम कोर्ट इस बात पर भी नाराज था कि स्थानीय निकायों के चुनाव के बारे में हमने 2010, 2015 और 2021 में जो फैसले दिए, उनका पालन क्यों नहीं किया गया। ओबीसी आरक्षण की अनुशंसा के जब तक मापदंड पूरे नहीं किए जाएंगे, लागू नहीं किया जा सकता। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के फार्मूेले के पालन में सरकार प शासन दोनों द्वारा ही गंभीर लापरवाही बरती जाती है। यही वजह है कि सुप्रीम कोर्ट को कई बार इस तरह के मामलों में कड़ी नाराजगी तक जतानी पड़ती है।