मप्र के आदिवासी अंचलों में लामबंद होकर आदिवासी उठा रहे मांग.
मप्र में पिछले कुछ महीनों से जनजातीय बंधुओं के अधिकारों को बचाने के लिए आदिवासी लामबंद होकर डीलिस्टिंग के समर्थन में रैलियां और सभाएं कर रहे हैं। इन रैलियों में आदिवासी संगठनों की ओर से यह मांग की गई कि धर्मांतरित आदिवासियों को अनुसूचित जनजाति की सूची से बाहर किया जाए और उन्हें रिजर्वेशन का लाभ न दिया जाए। संगठनों की ओर से मांग की जा रही है कि जिस तरह धारा 341 में अनुसूचित जाति की डीलिस्टिंग लागू की गई है, उसी तरह संविधान के अनुच्छेद 342 में संशोधन करके डीलिस्टिंग लागू की जाए। दरअसल अनुच्छेद 341 में जो डीलिस्टिंग की गई है, उसके हिसाब से अगर कोई अनुसूचित जाति का सदस्य भारतीय धर्मों के अलावा कोई धर्म जैसे ईसाई या मुस्लिम धर्म अपनाता है तो उसे अनुसूचित जाति को मिलने वाली सुविधाओं से वंचित कर दिया जाता है। आदिवासी संगठनों की मांग है कि इसी तरह अनुच्छेद 342 में संशोधन किया जाए, ताकि अगर कोई आदिवासी धर्मांतरण करे तो उसे आदिवासी समाज को मिलने वाली सरकारी योजनाओं का कोई लाभ न मिल सके। धर्म बदलने वालों को रिजर्वेशन के लाभ से वंचित करने के लिए प्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में अभियान चलाया जा रहा है। प्रदेश के मालवा-निमाड़ के आदिवासी अंचल में इन दिनों एक नारा बहुत तेजी से चल रहा है-जो भोलेनाथ का नहीं वो मेरी जात का नहीं। यह अचानक नहीं हुआ है। संघ परिवार की दो दशक से चल रही सोशल इंजीनियरिंग का असर अब दिखने लगा है। छह महीने में रतलाम, धार-झाबुआ, खरगोन और बड़वानी जैसे जिलों में डीलिस्टिंग के समर्थन में रैलियां करने के बाद आदिवासियों ने ताकत दिखाने के लिए 10 फरवरी को भोपाल में गर्जना डीलिस्टिंग महारैली की। अगला लक्ष्य दिल्ली कूच का है, ताकि 1970 से संसद में लंबित डीलिस्टिंग बिल को पारित कराया जा सके। गौरतलब है कि पूरे देश में सबसे अधिक आदिवासी मध्यप्रदेश में हैं। 2011 की जनगणना के अनुसार उस समय इनकी जनसंख्या 1.53 करोड़ थी। इसमें 39 प्रतिशत अकेले भील हैं, जो सिर्फ मालवा और निमाड़ में रहते हैं। ऐसा माना जाता रहा है कि आदिवासियों में सबसे भोले भील ही हैं। यही वजह रही कि धर्मांतरण भी इनका ही तेजी से हुआ। नियम-कानूनों में ऐसे कोई सख्त प्रावधान नहीं थे, जिनसे इसे रोका जा सके। यही कारण है 2006 के बाद आरएसएस ने सबसे पहले जनजाति सुरक्षा मंच का गठन किया। धीरे-धीरे यह 14 राज्यों तक फैल गया।
डीलिस्टिंग को लेकर आम राय नहीं
मध्य प्रदेश में पांचवी अनुसूची की मांग को लेकर कांग्रेस,जयस (जय आदिवासी संगठन), गोंडवाना गणतंत्र पार्टी समेत तमाम दल लंबे समय से अड़े हुए हैं। डीलिस्टिंग को लेकर इन दलों की आम राय अभी तक नहीं बन पाई है। मामला संवेदनशील है क्योंकि पूरे देश में आदिवासियों के धर्मकोट और पांचवी-छठी अनुसूची पर संवाद चल रहा है। जिसका बहुत बड़ा क्षेत्र न्यायपालिका के तहत भी आता है, ऐसे में इस रैली में उठाई गई मांगों पर बड़ी चर्चा होनी तय है। उधर जनजाति सुरक्षा मंच मध्य भारत प्रांत के प्रमुख कैलाश निनामा आदिवासियों को इस मुद्दे पर एकजुट करने के लिए इस समय दो राज्य मप्र और छत्तीसगढ़ में सक्रिय हैं। निनामा कहते हैं-न्याय केंद्र सरकार को ही करना पड़ेगा, क्योंकि सिर्फ 5 प्रतिशत धर्मांतरण करने वाले लोग मूल जनजाति की 70 प्रतिशत नौकरियों, छात्रवृत्ति और विकास फंड का उपयोग कर रहे हैं। इसका नतीजा यह है कि 95 प्रतिशत को लाभ का मात्र 30 फीसदी हिस्सा ही मिल पा रहा है। उन्होंने बताया कि अब तक देश के 288 जिलों में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के नाम ज्ञापन दिए जा चुके हैं। 244 सांसदों का समर्थन जुटाया जा चुका है। दिल्ली कूच कब तक? उन्होंने कहा-जाना तय है डेट अभी तय नहीं की है।
आज तक लंबित है बिल
आजादी के बाद अनुसूचित जाति और जनजातियों को आरक्षण का लाभ देने का प्रावधान संविधान में ही किया था। 341-1 अनुसूचित जातियों के संबंध में व्याख्या करती है। 341-2 जनजातियों के लिए है। अनुसूचित जाति से यदि कोई धर्म परिवर्तन करता है तो उसे डीलिस्टेड माना है, जबकि जनजाति से धर्म परिवर्तन के बाद भी वह आदिवासियों को मिलने वाली सुविधाओं और आरक्षण का लाभ ले सकता है। विरोध की असली वजह भी यही है। इसकी शुरुआत 1967 में बिहार के जनजातीय नेता कार्तिक उरांव ने की थी। डीलिस्टिंग के लिए उन्होंने 235 सांसदों का समर्थन जुटाया और 1970 में प्राइवेट बिल लेकर आए। यही बिल आज तक लंबित है।
डीलिस्टिंग का कानून बनाने की मांग
जनजाति सुरक्षा मंच के अनुसार 2020 में 448 जिलों में जिला कलेक्टर एवं संभागीय आयुक्त के माध्यम से तथा विभिन्न राज्यों के राज्यपाल व मुख्यमंत्रियों से मिलकर, राष्ट्रपति महोदय को ज्ञापन द्वारा निवेदन किया गया। 2021 में डॉ. कार्तिक उरांव के जन्मदिवस, 29 अक्तूबर के अवसर पर विस्तृत चर्चा की गई। अब तक के प्रयासों पर विस्तृत चर्चा एवं मंथन के उपरांत, एक महाअभियान शुरू किया है, जो सड़क से संसद तक चल रहा है। जनजाति सुरक्षा मंच ने उक्त विसंगति को सभी के समक्ष रखा है। इस क्रम में ग्राम संपर्क कर, देशभर में जिला सम्मेलनों का भी आयोजन किया जा रहा है। विगत दिनों दिल्ली में जनजाति सुरक्षा मंच के कार्यकर्ताओं ने सांसद संपर्क अभियान भी चलाया है, जिसमें 442 सांसदों से संपर्क कर डीलिस्टिंग का कानून बनाने का आग्रह किया है। इस एक सूत्रीय कार्यक्रम को लेकर जनजाति सुरक्षा मंच, सड़क से संसद तक एवं सरपंच से सांसद तक आंदोलन, संघर्ष एवं संपर्क का अभियान चला रहा है। जनजाति सुरक्षा मंच तब तक संघर्ष करेगा, जब तक कि धर्मांतरित ईसाई और मुसलमानों को एसटी की पात्रता और परिभाषा से बाहर नहीं निकाला जाता, और इस हेतु संसद द्वारा 1970 से लंबित कानून नहीं बना दिया जाता।