संघ की पसंद ना पसंद से होगा… भाजपा प्रत्याशी का चयन

प्रदेश में इस बार विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा


प्रत्याशियों का चयन संघ की पसंद नापसंद के आधार पर किया जाएगा। इसकी वजह है इस बार प्रदेश में बीते चुनाव की ही तरह कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिलना तय माना जा रहा है। बीते विधानसभा आम चुनाव में मिली हार से सबक लेते हुए इस बार चुनाव के सभी सूत्र संघ ने अपने हाथ में ले रखे हैं। इसकी वजह है अब तक जितने भी सर्वे संघ, संगठन और सरकार ने कराए हैं ,उन सभी में प्रदेश सरकार के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी की बात सामने तो आयी ही है साथ ही यह भी पाया गया है कि इस बार भी बीते चुनाव की ही तरह स्थिति रहने की संभावना है। इसकी वजह से ही अब भाजपा आलाकमान ने अपनी रणनीति में बदलाव करते हुए एंटी इनकम्बेंसी से निपटने और चुनाव में जीत के लिए नए सिरे से मास्टर प्लान तैयार किया है, जिसमें तय किया गया है कि इस बार पार्टी नेताओं की पसंद की जगह सिर्फ जिताऊ उम्मीदवारों को ही प्रत्याशी बनाया जाए। भले ही दावेदार किसी भी नेता का कितना भी खास क्यों न हो , लेकिन उसे संघ के मापदंडों पर खरा उतरने पर ही प्रत्याशी बनने का मौका मिल सकेगा।
दरअसल, 2018 में मिली हार के बाद जिस तरह से 2020 के उपचुनाव में श्रीमंत समर्थकों को हार का सामना करना पड़ा था , उसकी वजह से यह फैसला किया गया है। दरअसल बीते आम चुनाव में प्रदेश के दो नेताओं की पसंद की वजह से अधिकांश टिकटों का बंटवारा हुआ था। इनमें एक नेता के अधिकांश करीबी नेताओं को चुनाव हारना पड़ा था। इनमें शिवराज शिवराज कैबिनेट के तेरह मंत्री भी शामिल थे। इसलिए इस बार आलाकमान ने संघ को सर्वे से लेकर टिकट वितरण तक की जिम्मेदारी दी हैं। जानकारी के अनुसार, आलाकमान ने जो फैसला लिया है, उसके अनुसार मप्र में अब भाजपा की नियति संघ के हाथ में है। पिछले कुछ दिनों से कार्यकर्ता की नाराजगी की खबरों को संघ ने अब गंभीरता से लेना शुरू कर दिया है। इस नाराजगी के अलावा नेताओं के गुटों में बंट चुकी भाजपा का मप्र में हाल-बेहाल है। इन हालातों को भापकर संघ ने प्रदेश में समानांतर स्तर पर काम शुरू कर दिया है। इसका असर पार्टी के टिकट वितरण होते ही दिखना शुरु हो जाएगा। सूत्रों के अनुसार, हर बड़े नेता के दावों और गुट की काट बनने का जिम्मा अब खुद आलाकमान ने अपने हाथों में ले लिया है। प्रदेश में भाजपा की मौजूदा स्थिति का आंकलन कर आलाकमान ने पहली बार इस तरह का सख्त कदम उठाया है। दरअसल संघ के कई राष्ट्रीय पदाधिकारियों का मुख्यालय भोपाल होने से वे भी प्रदेश की राजनीति पर पैनी नजर रखते हैं। वैसे भी इन दिनों मनमोहन बैद्य का भी मुख्यालय भोपाल है। इसके अलावा क्षेत्र प्रमुख दीपक विस्पुते की भी नजर सत्ता व संगठन पर रहती है। संघ की अपनी कार्यशैली है, जिसकी वजह से हर छोटी से लेकर बड़ी जानकारी संघ के पदाधिकारियों के पास बेहद गोपनीय तरीके से पहुंचती रहती है। राजनैतिक मामलों में भले ही संघ खुलकर कुछ न बोले , लेकिन वह समय-समय पर समन्वय बैठकों में अपनी मंशा जाहिर करने में पीछे नही रहता है।
नहीं चलेगी किसी की सिफारिश….
संघ सूत्रों का कहना है कि 2018 में प्रदेश के नेताओं पर विश्वास कर भाजपा आलाकमान ने टिकटों का वितरण किया था। लेकिन इस बार ऐसा नहीं होगा। मप्र में इस बार बड़े नेताओं से करीबी कोई खास कमाल नहीं दिखाने वाली है। क्योंकि इस बार सत्ता की नहीं संघ की रिपोर्ट पर ही टिकट का फैसला लिया जाएगा। इस रिपोर्ट को खुद क्षेत्रीय संगठन महामंत्री अजय जामवाल द्वारा तैयार किया जा रहा है। दरअसल जामवाल के काम करने का तरीका अलग है। संगठन को मजबूत करने की उनकी अपनी शैली के साथ जामवाल मैदानी मोर्चा सम्हाले हुए हैं। यही वजह है कि इन दिनों भाजपा के दिग्गजों में भी खलबली मची हुई है। वैसे भी संगठन की कसावट के लिए जामवाल को जाना जाता है।
54 विधायक खतरे में
भाजपा सूत्रों का कहना है कि आलाकमान ने प्रदेश के नेताओं को संदेश दे दिया है कि इस बार केवल जिताऊ नेताओं को ही टिकट दिया जाएगा। ऐसे में संभावना जताई जा रही है कि जिन विधायकों के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी है और आखिरी सर्वे में उनकी स्थिति नहीं सुधरी तो उनका टिकट कटना तय है। गौरतलब है कि संघ के सर्वे में भाजपा के 54 विधायक जीतने के स्थिति में नहीं हैं। ऐसे विधायकों को प्रदेश का कोई भी बड़ा नेता टिकट नहीं दिला पाएगा।
जामवाल की रिपोर्ट को महत्व
अजय जामवाल बिना किसी लाव-लश्कर और बड़े नेताओं के हुजूम के बगैर मैदानी स्तर पर लगातार प्रवास कर रहे हैं। उनके प्रवास की शुरुआत संबंधित क्षेत्र के मंदिर दर्शन से होती है। उसके बाद बारी आती है डबल लेयर मीटिंग की। हर जगह वो कार्यकर्ताओं को संबोधित करने के अलावा बंद कमरे में भी बैठक कर रहे हैं। पहली लेयर में कार्यकर्ताओं के साथ और दूसरी लेयर में पदाधिकारियों के साथ बैठक करते हैं। इन बैठकों से पहले गोपनीयता का पूरा ख्याल रखा जाता है , जिससे की अंदर की चर्चा की कोई बात बाहर न आ सके। खास बात यह है कि जामवाल कार्यकर्ताओं और जिला पदाधिकारियों को अपनी बात रखने का भरपूर मौका देते हैं। वे इस दौरान सत्ता और संगठन के बारे में भी फीडबैक लेना नहीं भूलते हैं। भाजपा के गलियारों में चर्चा यहां तक है कि जामवाल की रिपोर्ट को हर सर्वे की रिपोर्ट से ज्यादा महत्व दिया जा रहा है। दरअसल नगरीय निकाय चुनाव के नतीजे देखते हुए आलाकमान और संघ दोनों को डर है कि आने वाला चुनाव जनता वर्सेज भाजपा ना हो जाएं। एंटी इनकंबेंसी का फैक्टर जबरदस्त तरीके से नाराज हैं, जिसका शिकार खुद भाजपा का कार्यकर्ता भी है। इसके अलावा भाजपा में अब कांग्रेस की तरह ही गुट पनपने लगे हैं। दिग्गजों की भीड़ में पार्टी का आम कार्यकर्ता अलग-थलग महसूस कर रहा है, जिसकी सुनवाई कहीं नहीं हो रही। ऐसे कार्यकर्ताओं को जब अपनी बात रखने का मौका मिला तो उन्होंने दिल खोलकर अपनी ही सरकार और संगठन की खामियों को सामने लाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।