मंगल भारत।मनीष द्विवेदी। मप्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो
टॉलरेंस नीति के प्रति सरकार सतर्क है, लेकिन विभागों की भर्राशाही और लाल फीताशाही के कारण भ्रष्टों के खिलाफ जांच प्रभावित हो रही है। आलम यह है कि प्रदेश में लोकायुक्त और ईओडब्ल्यू में जिनके खिलाफ केस दर्ज हैं वे, रिटायर होते जा रहे हैं, लेकिन उनके खिलाफ विभागीय जांच पूरी ही नहीं हो पा रही है।
मप्र के भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ जांच के नाम पर खानापूर्ति की जाती है। कार्रवाई कम बचाने की कोशिश ज्यादा होती है। तभी तो जांच के नाम पर सिर्फ कागजी घोड़ा दौड़ाया जा रहा है। जांच के नाम पर कोरम पूरा हो रहा, इधर जिनके खिलाफ आरोप हैं वे ,आराम से सेवानिवृत होते जा रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के निर्देश के बाद 15 मार्च से अभी तक यानी करीब 2 माह में 119 दोषी अधिकारी-कर्मचारियों के विरूद्ध अभियोजन की स्वीकृति दे दी गई है। वहीं मुख्यमंत्री ने दोषियों पर 15 जून तक कार्रवाई पूरी करने का निर्देश दिए थे, साथ ही उन्होंने हिदायत दी थी , कि अगर समय सीमा में कार्रवाई पूरी नहीं की गई तो एक्शन लिया जाएगा। लेकिन स्थिति यह है कि जून का महीना बीत जाने के बाद भी कार्रवाई पूरी नहीं हो पाई है।
विभागीय जांच में देरी
मप्र लोकायुक्त संगठन ने भ्रष्टाचार करने वाले अधिकारियों के खिलाफ प्रकरण दर्ज कर जांच की। जांच में आरोप सिद्ध भी पाए गए। इसके बावजूद ऐसे अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करने के बजाय मामला संबंधित विभाग के पाले में डाल दिया। वह भी यह कहकर कि इनकी विभागीय जांच की जाए। विभाग ने भी ऐसे मामलों को ठंडे बस्ते में डाल दिया। इस बीच अधिकांश अफसर रिटायर ही हो गए। सरकार की लाख कोशिशों के बाद लोकायुक्त सरकारी सिस्टम से टूट चुका है। इसका कारण है कि लोकायुक्त की कार्रवाई के बाद भी अफसरों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई है।
35 अफसरों के खिलाफ डिपार्टमेंटल इंक्वायरी (डीई) पूरी नहीं हुई है। कई सालों से लोकायुक्त भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ जांच रिपोर्ट मांग रहा है, मगर डीई दशकों तक पूरी नहीं हो पाई और असर यह हुआ कि 22 क्लास-1 अफसर रिटायर हो चुके हैं। बहरहाल, लोकायुक्त पुलिस ने जिन ट्रैप मामलों में कार्रवाई की है ,उनमें शामिल आरोपी सरकारी कर्मचारी-अधिकारियों को पिछले 26 सालों में सजा भी हो चुकी है। लोकायुक्त की रिपोर्ट के अनुसार 1600 मामलों में कोर्ट ने सजा भी सुनाई। खास बात है कि सरकारी प्रोजेक्ट या फिर विभागीय अनियमिमता के मामले में लोकायुक्त सरकारी सिस्टम से टूट गया। पिछले 14 सालों में भ्रष्टाचार और आर्थिक गड़बड़ी के मामलों में सरकारी विभागों ने 126 लोगों को क्लीन चिट दे दी। जबकि लोकायुक्त संगठन के साक्ष्यों के आधार पर जांच करते हुए विभागों ने विभागीय जांच कराने के लिए कहा था।
सिस्टम बना सुरक्षा कवच
दरअसल, जो सिस्टम भ्रष्टों को जेल पहुंचाने के लिए बना है, वही बड़े साहबों का सुरक्षा कवच भी है। मप्र में आईएएस अफसरों के खिलाफ 31, आईपीएस के खिलाफ 3 और आईएफएस पर 2 मामले लोकायुक्त पुलिस में दर्ज हैं। एक आईएएस पर तो 26 केस 10-12 साल से दर्ज हैं, लेकिन 25 में अभियोजन की स्वीकृति तक नहीं दी गई। हैरानी की बात है कि ये अफसर अब रिटायर हो चुके हैं। ऐसे ही पांच आईएएस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं, उनकी जांच जारी है। इनमें से तीन रिटायर हो चुके हैं, जबकि एक प्रमुख सचिव हैं तो, एक अन्य की मौत हो चुकी है। ईओडब्ल्यू में भी चार आईएएस के खिलाफ केस चलाने की स्वीकृति मांगी गई है। यहीं 15 साल पुराने मामले अटके पड़े हैं। मप्र में बड़े साहबों के मामले सालों अटके रहते हैं, जबकि राजस्थान में सिस्टम इससे ठीक उलट है। वहां ऐसे केस की जांच और कार्रवाई एसीबी करती है। वहां कई आईएएस-आईपीएस ट्रैप हो चुके हैं और जेल जा चुके हैं। इस पर सामान्य प्रशासन विभाग का कहना है कि केंद्र की मंजूरी पर ही अभियोजन की स्वीकृति देते हैं। दिल्ली में अभी दो अभियोजन पेंडिंग हैं। आईएएस अंजू सिंह बघेल पर ईओडब्ल्यू में केस दर्ज हैं और इसका इन्वेस्टिगेशन पूरा होने पर अभियोजन स्वीकृति हाल ही में मिल चुकी है।
लोकायुक्त की मेहनत पर फिर रहा पानी
पिछले कुछ सालों में दर्जनों ऐसे अफसर रिटायर हो चुके हैं, जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। लोकायुक्त की कार्यशैली का एक नमूना यह भी है कि जिस विभाग के अफसर पर आर्थिक अनियमितता का आरोप लगा, उसकी विभागीय जांच और कार्रवाई के लिए उसी विभाग को प्रकरण भेज दिया। इसका विपरीत असर यह हुआ कि संबंधित विभागों ने इन प्रकरणों पर दस-दस साल तक कोई कार्रवाई नहीं की। इसके चलते संगठन ने जिन अधिकारियों पर प्रकरण दर्ज किए थे, वे सभी सेवानिवृत्त हो गए। संगठन की मेहनत भी जाया चली गई। लोकायुक्त संगठन ने कई अफसरों के खिलाफ पद के दुरुपयोग, आर्थिक अनियमितता, नियमों का उल्लंघन संबंधी मामले दर्ज कर रखे थे। गड़बडिय़ों के चलते लोकायुक्त ने इन मामलों को कार्रवाई करने के लिए संबंधित विभागों को भेज दिया। इसके बाद यह मामले विभाग स्तर पर फाइलों में दबे रहे। संगठन ने बार-बार संबंधित विभाग को रिमाइंडर भेजे, लेकिन कार्रवाई तो दूर, विभागों ने जांच करने की जहमत तक नहीं उठाई। इस लापरवाही के चलते अफसर रिटायर होते चले गए। अगर आरोपी अधिकारी की समय पर विभागीय जांच की जाती तो रिटायरमेंट के पहले उसके खिलाफ कार्रवाई की जा सकती थी।
कागजों में दबी रह गई कार्रवाई
प्रदेश में भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकायुक्त लगातार कार्रवाई कर रहा है। लेकिन उसे विभागों का सहयोग नहीं मिल पा रहा है। ऐसे कई उदाहरण हैं कि विभागों ने अफसरों के खिलाफ कई सालों तक जांच नहीं की। इसका नतीजा रहा कि अधिकारी रिटायर हो गए और लोकायुक्त की कार्रवाई भी कागजों में दबी रह गई। तत्कालीन प्रशासक, नगर पालिका, सेंधवा आर एस पाटीदार के खिलाफ साल 1991 में लोकायुक्त ने अनुशंसा की थी। नालियों के फर्शीकरण कार्य और इंटेक वेल पर आयरन की सीढ़ी बनाने के कार्य में अनियमितता के लिए दोषी पाया गया। नतीजा रहा कि विभाग ने 10 साल तक कोई कार्रवाई नहीं की। इसके साथ ही पाटीदार रिटायर हो गए और उन पर लगे आरोप भी साफ हो गए। वहीं तत्कालीन कार्यपालन यंत्री, पीडब्ल्यूडी डीएन अग्रवाल के खिलाफ साल 2002 में भवन में निर्माण में अनियमिमता और भ्रष्टाचार कर सरकार को आर्थिक हानि तथा ठेकेदार को लाभ पहुंचाने के मामले में दोषी पाए गए। साल 2006 तक विभाग की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गई। अग्रवाल आसानी से रिटायर हो गए और लोकायुक्त की जांच धरी रह गई। वहीं तत्कालीन कार्यपालन यंत्री, पीडब्ल्यूडी घनश्याम तिवारी साल 2001 में विभिन्न मार्गों के निर्माण कार्य में अनियमिता के लिए दोषी पाए गए। इसके बाद उन्होंने वीआरएस मांगा और सरकार ने दे दिया। लोकायुक्त ने तिवारी के मामले में टिप्पणी को लोकायुक्त ने कहा कि सालों तक विभाग की ओर से कोई कार्रवाई नहीं की इस मामले में प्रमुख अभियंता ने कहा कि सरकार की तरफ से अंतिम निर्णय नहीं मिला। इसलिए कार्रवाई नहीं की गई।