ओबीसी वर्ग की एक दर्जन जातियां ही बनी हुई हैं सियासत में सिरमौर

मंगल भारत।मनीष द्विवेदी। प्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए


अब महज तीन माह का ही समय रह गया है। ऐसे में प्रत्याशी चयन को लेकर कवायद तेज हो चुकी है। इस बीच भाजपा सहित कुछ दलों ने तो अपने प्रत्याशी तक घोषित करना शुरु कर दिए हैं। इसमें जातिगत समीकरणों का विशेष ध्यान रखा जा रहा है। इसमें भी खासतौर पर प्रदेश की आधी आबादी वाले पिछड़ा वर्ग को महत्व दिया जा रहा है। इसकी वजह है, जिस दल को इस वर्ग का साथ मिलेगा उसकी सरकार बनना तय है। यह बात अलग है कि प्रदेश में इस वर्ग के तहत करीब 94 जातियां आती है, जिसमें से महज एक दर्जन जातियां ही ऐसी हैं, जिनका प्रदेश की राजनीति में वर्चस्व बना हुआ है। इसकी वजह से इस वर्ग में शामिल लगभग 88 फीसदी जातियों को सियासी भागीदारी ही नहीं मिल पाती है। प्रदेश की विधानसभा सीटों की बात की जाए तो प्रदेश में 230 विधानसभा सीटों में से 82 सीट अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित हैं। जबकि 148 सीटें गैर आरक्षित वर्ग की हैं। इन सीटों पर टिकट चयन में राजनीतिक दलों द्वारा पिछड़े वर्ग का भी खासा ध्यान रखा जाता है। इसके बाद भी करीब 88 जातियों का विधानसभा और लोकसभा में प्रतिनिधित्व ही नहीं रहता है। इस वजह से यह जातियां अपने आप को ठगा हुआ महसूस करती हैं। इस वर्ग की जो जातियां वर्चस्व रखती हैं उनमें भी आधा दर्जन जातियों की भागीदारी सर्वाधिक है। उन्हें राजनैतिक दल भी जमकर महत्व देते हैं। यानी पिछड़े वर्ग की चुनिंदा जातियों का ही राजनीतिक में वर्चस्व हैं। पंचायत से लेकर लोकसभा तक इन्हीं जातियों का दबदबा रहता है। मध्यप्रदेश में आरक्षण की अलग-अलग प्रक्रिया है। सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग को आरक्षण है, जबकि लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में सिर्फ अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण है। विधानसभा में अनुसूचित जाति के लिए 35 सीट हैं। जो कुल सीटों का करीब 15 फीसदी होता है। इस वर्ग की आबादी भी इतनी ही है। इसी तरह अनुसूचित जनजाति के लिए 47 सीटें आरक्षित हैं, जो कुल सीटों का 21 फीसदी है। इस वर्ग की आबादी भी इतनी ही है। शेष 148 सीटों पर अन्य पिछड़ा एवं सामान्य वर्ग के प्रत्याशी खड़े होते हैं। राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग के अनुसार मप्र में पिछड़ा वर्ग की आबादी 52 फीसदी से ज्यादा है। नगरीय निकाय चुनाव के दौरान राज्य शासन की ओर से यह जानकारी दी गई थी। जबकि मौजूदा स्थिति में मप्र विधानसभा में पिछड़े वर्ग के सिर्फ 57 विधायक हैं। जो कि कुल सीटों का 25 फीसदी होता है। हालांकि 148 सीटों में से 91 सीटों पर सामान्य विधायक हैं। जो कि कुल सीटों का 40 फीसदी होता है। अजा, जनजाति और ओबीसी की कुल आबादी सरकारी आंकड़ों के अनुसार 88 फीसदी होती है। ऐसे में शेष 12 फीसदी आबादी ही सामान्य वर्ग की रह जाती है।
आबादी के अनुपात में मौका
आमतौर पर राजनीतिक दल चुनाव में जातियों का वोट बैंक देखकर ही टिकट चयन करने में ज्यादा भरोसा करते हैं। यानी जिस क्षेत्र में जिस जाति का ज्यादा वोट होता है, टिकट उसी जाति के खाते में जाता है। साथ ही क्षेत्र में जातिगत एकजुटता को भी देखा जाता है। विधानसभा में ओबीसी की जिन जातियों के ज्यादा विधायक हैं, उनकी आबादी और वोट भी ज्यादा हैं।
भाजपा के सर्वाधिक विधायक पिछड़ा वर्ग से
अगर सत्तारूढ़ दल की बात की जाए तो मौजूदा सदन में उसके कुल 125 विधायक हैं। इनमें सर्वाधिक 30 विधायक पिछड़ा वर्ग से ही आते हैं। इसी तरह से कांग्रेस के 25 विधायक पिछड़ा वर्ग से हैं। एक विधायक बसपा से है , जबकि एक ओबीसी विधायक निर्दलीय है। इस तरह से मौजूदा विधानसभा में 57 विधायक ओबीसी वर्ग से आते हैं।
इन जातियों का वर्चस्व
विधानसभा में ओबीसी की जिन चुनिंदा जातियों के ज्यादा विधायक हैं, उनमें सबसे अधिक 8 विधायक लोधी समाज से हैं। यादव समाज से 7, कुर्मी समाज के 5, कुशवाह एवं गुर्जर समाज के 6-6 विधायक हैं। कलार और किरार समाज के 4-4 विधायक हैं। दांगी समाज के 2, सोनी समाज से 1, जाट- विश्नोई समाज के 2, खाती समाज के 4 विधायक हैं। जबकि ओबीसी के ही 8 अन्य विधायक भी हैं।