मंगल भारत।मनीष द्विवेदी। मप्र में अब तक कभी भी चुनाव
जाति आधारित नहीं रहा है , लेकिन अब प्रदेश की सियासी पिच बदलती हुई दिखना शुरु हो गई है। इसकी वजह है दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों का इस बार पूरी तरह से जातियों पर फोकस करना। इस वजह से अभी से यह तय होता दिखने लगा है कि इस बार चुनावी मुद्दों की तासीर बदलना तय है। अब तक के चुनावी इतिहास में विकास ही प्रमुख मुद्दा रहता आया है , जिस पर इस वार जातिवाद का मुद्दा हावी होता जा रहा है। सियासी दलों द्वारा इस मुद्दे को प्राथमिकता दिए जाने का असर यह हुआ है कि तमाम जातियों के कई संगठन बन गए हैं और वे अब खुलकर जाति के आधार पर टिकटों की मांग कर रहे हैं। इसमें भी विशेषकर ओबीसी और आदिवासी वर्ग से जुड़े संगठनों ने भाजपा और कांग्रेस पर टिकट के लिए दबाव बनाना तेज कर दिया है। अब यह जातीय संगठन अपनी आबादी की तुलना में टिकट की मांग कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से प्रदेश में ओबीसी संगठन टिकट को लेकर बेहद सक्रिय हैं। बीते रोज फ्रंट फॉर ओबीसी राइट ने तो 126 टिकट दिए जाने का मांग कर डाली। इस दल ने नारा भी दिया कि जो ओबीसी की बात करेगा, वही मप्र में राज करेगा। अगर मध्य प्रदेश में पिछड़े वर्ग की जनसंख्या और मतदाताओं की संख्या पर नजर डालें तो यहां अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या 50.09 है और इस वर्ग का 48 प्रतिशत मतदाता हैं। ऐसे में इस वर्ग से जुड़े संगठन चाहते हैं कि कांग्रेस हो या भाजपा उन्हें 126 टिकट मिलना चाहिए। गौरतलब है कि वर्तमान विधानसभा में इस वर्ग के ही सर्वाधिक विधायक हैं। अगर सत्तारुढ़ दल की बात की जाए तो मौजूदा सदन में उसके कुल 125 विधायक हैं।
इनमें सर्वाधिक 30 विधायक पिछड़ा वर्ग से ही आते हैं। इसी तरह से कांग्रेस के 25 विधायक पिछड़ा वर्ग से हैं। एक विधायक बसपा से है जबकि एक ओबीसी विधायक निर्दलीय है। इस तरह से मौजूदा विधानसभा में 57 विधायक ओबीसी वर्ग से आते हैं। इस वर्ग में शामिल जातियों की बात की जाए तो सबसे अधिक 8 विधायक लोधी समाज से हैं। यादव समाज से 7, कुर्मी समाज के 5, कुशवाह एवं गुर्जर समाज के 6-6 विधायक हैं। कलार और किरार समाज के 4-4 विधायक हैं। दांगी समाज के 2, सोनी समाज से 1, जाट- विश्नोई समाज के 2, खाती समाज के 4 विधायक हैं। जबकि ओबीसी के ही 8 अन्य विधायक भी हैं।
आधी सीटों की दावेदारी
फ्रंट फॉर ओबीसी के तत्वावधान में पिछड़ा वर्ग से जुड़े संगठनों ने जनसंख्या के हिसाब से 126 टिकट का दावा किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे प्रांतीय कुशवाह समाज के प्रदेश अध्यक्ष योगेश मानसिंह कुशवाह ने कहा कि एससी-एसटी वर्ग के भाइयों के लिये लोकसभा और विधानसभा में सीटें आरक्षित हैं, लेकिन हम पिछड़ों को आरक्षित वर्ग का तो बोला जाता है लेकिन बहुसंख्यक होने के बावजूद भी आरक्षण सिर्फ पंचायत के चुनावों में ही दिया जाता है। ओबीसी फंट की इस मंच से हमारा साफ ऐलान है कि जो पिछड़ों की बात करेगा वहीं प्रदेश पर राज करेगा। मतलब साफ है जो पार्टी पिछड़ों को संख्या के अनुपात में 126 टिकट देगी हमारा वर्ग उसी की सरकार बनायेगा दामोदर सिंह यादव ने कहा हम सब ने ये नारा बहुत सुना है कि जो पिछड़ों को तौलेगा वो लाल किले से बोलेगा लेकिन अभी ज़रूरत एक नये नारे की है कि पिछड़ों को तौलेगा वही वल्लभ भवन में बैठेगा।
हक है हमारा
फ्रंट फॉर ओबीसी राइट की अगुवाई कर रहे योगेश मानसिंह कुशवाहा का कहना है कि सूबे में ओबीसी समाज 55 प्रतिशत है। ऐसे में हम एकसूत्रीय मांग कर रहे हैं कि हमें 126 सीटें मिलनी चाहिए, क्योंकि आज भी कई ऐसे समाज हैं, जिनकी राजनैतिक क्षेत्र में एक प्रतिशत भी भागीदारी नहीं रहती। यह हमारा हक है, हम किसी का विरोध नहीं कर रहे हैं। इसी तरह से जयस प्रमुख एवं विधायक डॉ. हीरालाल अलावा का कहना है कि हम दूसरे वर्गों के संगठन की तरह टिकट की मांग नहीं कर रहे हैं, अलबत्ता प्रदेश में आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित 47 सीटों के अलावा आदिवासी प्रभावित सीटों पर अपने लिए टिकट की मांग कर रहे हैं। हम आदिवासी युवाओं को आगे बढ़ाना चाहते है।
आदिवासी संगठनों ने भी ठोकी ताल
आदिवासी बाहुल्य अंचलों में भी जयस और गोंडवाना गणतंत्र जैसे संगठन भी सूबे की 80 सीटों पर अपने प्रभाव का दावा कर कांग्रेस और भाजपा से आबादी के हिसाब से टिकट की मांग कर रहे हैं। प्रदेश में आदिवासी समाज की सहभागिता 21.1 प्रतिशत है। इस वर्ग के लिए 47 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं। जयस पहले ही घोषणा कर चुका है कि अगर उसे उसके हिसाब से टिकट नहीं मिले तो वह अपने खुद प्रत्याशी चुनाव में उतारेगा। इसी तरह से गौंडवाना गणतंत्र पार्टी भी अपना असर बताते हुए मनमाफिक संख्या में टिकट की उम्मीद में है। इसी तरह से ब्राह्मण समाज से जुड़े संगठन भी कभी कभार अपने प्रभाव की बात कहकर ज्यादा से ज्यादा चुनावी टिकट की मांग करते रहे। इनके अलावा दूसरे जाति वर्ग से जुड़े संगठनों ने भी अपने समाज के लिए टिकट की मांग की है। इस मामले में राजनैतिक विश्लेष्कों का कहना है कि मध्यप्रदेश में भी उत्तर प्रदेश और बिहार की तर्ज पर चुनाव होता दिख रहा है। इसके लिए समाज और मतदाताओं की जगह नेता जिम्मेदार हैं, जो जीतने के लिए जातिवाद को चुनावी हथियार बनाते हुए उसके सबसे बड़े पैरोकार बनने में पीछे नहीं रहते हैं।