निर्दलीय चुनाव जीतकर बागी बन जाते हैं अनमोल.
भोपाल/मंगल भारत।मनीष द्विवेदी। चुनाव कोई भी हो, पार्टियों का फोकस केवल जिताऊ उम्मीदवार पर ही होता है। जिस उम्मीदवार की चाहे वह मंत्री हो या विधायक की जीतने की संभावना नहीं के बराबर होती है, उसे रिजेक्ट करने में पार्टियां देरी नहीं करती हैं। लेकिन कई बार यह देखने को मिला है कि ‘रिजेक्टेड’ नेता बागी बनकर निर्दलीय चुनाव लड़ते हैं और अपनी पूर्व पार्टी का खेल बिगाड़ देते हैं। यही नहीं कई बार वे चुनाव जीत भी जाते हैं और सत्ता में भागीदार भी बन जाते हैं। इस चुनाव में भी कई ‘रिजेक्टेड’ नेता खेल बिगाड़ने के लिए निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर मैदानी मोर्चा संभालेंगे।
गौरतलब है कि प्रदेश में सत्ता की लड़ाई मुख्यत: भाजपा और कांग्रेस के ही बीच होती है। ऐसे में दोनों पार्टियां जांच परख और सर्वे के बाद ही टिकट वितरण करती हैं। इस बार भी ऐसा किया जा रहा है। ऐसे में जिन नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा, उनमें से कई निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। ऐसे प्रत्याशी अपनी पूर्व पार्टी की जीत में रोड़ा तो बनेंगे ही, इनमें से कुछ जीत भी दर्ज कर सकते हैं। जो जीतेगा वह अनमोल बन जाएगा।
निर्दलीय को मिल जाता है सत्ता सुख
कई बार यह देखने को मिला है कि जिन्हें पार्टी ने रिजेक्ट करके टिकट के लिए पात्र नहीं माना वे निर्दलीय चुनाव लड़कर जीत जाते हैं और सत्ता में भागीदार बन जाते हैं। मप्र की राजनीति में वैसे तो छोटे दलों का कोई महत्व नहीं है , मगर प्रत्येक विधानसभा चुनाव में कुछ नेता जातिगत या स्थानीय समीकरण से चुनाव जीतते हैं। चुनाव जीतने के बाद न केवल वह सत्ता के साथ खड़े नजर आते हैं बल्कि कुछ ने अगले चुनाव से पहले भाजपा या कांग्रेस का हाथ थाम लिया। वर्ष 2018 में वारासिवनी से कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया तो प्रदीप जायसवाल निर्दलीय चुनाव लड़े और जीते। कांग्रेस की सरकार बनते ही उन्होंने अपना समर्थन दिया और मंत्री बनाए गए। कमल नाथ सरकार गिरी तो वे भाजपा के साथ हो गए और शिवराज सरकार ने उन्हें खनिज विकास निगम के अध्यक्ष बना दिया। इसी तरह बसपा विधायक संजीव कुशवाह, सपा विधायक राजेश शुक्ला और निर्दलीय विधायक विक्रम सिंह राणा भी भाजपा में शामिल हो गए। प्रत्येक विधानसभा चुनावों में यही स्थिति बनती है।
इस बार भी निर्दलीय दिखेंगे दमदार
प्रदेश में भाजपा ने अभी तक 79 प्रत्याशियों की घोषणा की है। जिन सीटों पर प्रत्याशी घोषित किए गए हैं, वहां बगावत होने लगी है। इसको देखते हुए कांग्रेस ने अभी प्रत्याशियों की सूची होल्ड कर रखी है। संभावना जताई जा रही है कि दोनों पार्टियां अपने सभी प्रत्याशियों की घोषणा कर देंगी तो टिकट ने मिलने वाले कई नेता बागी बनकर निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। इसमें कई दमदार नेता भी होंगे। गौरतलब है कि प्रदेश में मुख्य चुनावी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होता आया है। अभी भी यही स्थिति है। 1993 और 1998 में बसपा ने अपना प्रभाव दिखाया था और 11-11 प्रत्याशी चुनाव जीते थे। वर्ष 2013 में बसपा के चार प्रत्याशी चुनाव जीते थे। पार्टी ने इन सभी पर विश्वास जताते हुए 2018 का चुनाव लड़ाया पर सभी हार गए। इसके बाद उषा चौधरी, शीला त्यागी और सत्यप्रकाश सखवार ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली। वर्ष 2023 में उषा चौधरी और सत्यप्रकाश सखवार कांग्रेस छोड़कर भविष्य की संभावना को देखते हुए भाजपा में आ गए। वर्ष 2013 के चुनाव में दिनेश राय मुनमुन, सुदेश राय और कल सिंह भाबर निर्दलीय चुनाव जीते थे और पूरे समय भाजपा सरकार का समर्थन किया। 2018 के चुनाव से पहले भाजपा में आ गए और पार्टी ने चुनाव भी लड़ाया। कल सिंह भाबर को छोडक़र बाकी दोनों चुनाव जीत गए। यही स्थिति 2008 के चुनाव के बाद भी बनी। मानवेंद्र सिंह और संजय शाह निर्दलीय चुनाव जीते थे और 2013 में भाजपा से चुनाव लड़े। राष्ट्रपति चुनाव से पहले बसपा, सपा और एक निर्दलीय विधायक ने प्रदेश भाजपा पहुंचकर पार्टी में शामिल होने की घोषणा की थी।