भिंड: क्षत्रिय व ब्राह्मण करते हैं मिलकर हार जीत का फैसला

भोपाल/मंगल भारत। मध्य प्रदेश के चंबल इलाके में आने


वाली भिंड लोकसभा सीट कई मायनों में बेहद खास है। इस लोकसभा सीट में प्रदेश के दो जिले भिंड और दतिया शामिल है। यह ऐसी सीट है, जहां पर बीते तीन दशक से सिर्फ कमल ही खिल रहा है। इस सीट पर भाजपा 1989 से लेकर 2019 तक लगातार जीतती आ रही है। इस सीट पर भाजपा ने संध्या राय पर एक बार फिर से भरोसा जताया है, तो कांग्रेस ने अपने विधायक फूल सिंह बरैया पर दांव लगाया है। अगर विधानसभा चुनाव के परिणामों को देखें तो इस सीट के तहत आने वाली आठ सीटों में से चार भाजपा व चार कांग्रेस के पास हैं। यह सीट यूपी-एमपी बॉर्डर पर मौजूद है, जिसकी वजह से यहां पर पड़ोसी राज्य की राजनीति का मिला-जुला असर भी दिखता है। वर्ष 2009 में यह सीट एससी वर्ग के लिए आरक्षित हुई थी। वर्ष 1962 से अब तक लोकसभा क्षेत्र में चार बार कांग्रेस, एक बार जनसंघ, एक बार जनता पार्टी और नौ बार भाजपा के प्रत्याशी चुनाव जीते हैं। वर्ष 1962 से पहले भिंड स्वतंत्र सीट नहीं थी। यह मुरैना लोकसभा सीट का हिस्सा थी।
वसुंधरा को मिली थी हार
1971 में विजयाराजे सिंधिया भिंड लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुनी गई थीं। वर्ष 1984 में राजनीति के मैदान में पहली बार उतरीं सिंधिया राजघराने की बेटी वसुंधरा राजे यहां से लोकसभा चुनाव हार चुकी हैं। वसुंधरा राजे भाजपा की संस्थापक सदस्य विजयाराजे सिंधिया की पुत्री होने के नाते राजनीतिक पृष्ठभूमि की थीं, जबकि कांग्रेस के कृष्ण सिंह जूदेव गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि के थे। उन्हें पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. माधवराव सिंधिया पहली बार राजनीति में लेकर आए थे। कृष्ण सिंह जूदेव ने ही वसुधंरा को हराया था। इस सीट पर वर्ष 1971 में हुए चुनाव में राजमाता विजयाराजे सिंधिया यहां से जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ीं। उन्होंने कांग्रेस के नरसिंह राव दीक्षित को शिकस्त दी। वर्ष 1980 में यहां से कांग्रेस प्रत्याशी कालीचरण शर्मा चुनाव जीते। 1984 में कांग्रेस प्रत्याशी कृष्ण सिंह जूदेव सांसद बने। वर्ष 1989 में कांग्रेस के दिग्गज नेता नरसिंह राव दीक्षित कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा ने उन्हें अपना उम्मीदवार बना दिया और वे जीत भी गए। वर्ष 1991 में भाजपा ने योगानंद सरस्वती को टिकट दिया। जबकि इस चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने अपने पत्रकार मित्र उदयन शर्मा को इस सीट पर उतारकर जोर-आजमाइश की, लेकिन वे जीत का सेहरा नहीं बांध पाए। वर्ष 1996 में भाजपा ने रामलखन सिंह को टिकट दिया। वे जीते और उन्होंने 1998, 1999 और 2004 के चुनाव में भी जीत हासिल की। वैसे यहां हार की वजह कांग्रेस की आपसी गुटबाजी ही रहती है। एससी के लिए आरिक्षत होने के बाद इस सीट पर 2009 में भाजपा के अशोक अर्गल ने जीत हासिल की। उन्होंने तब कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े डा. भागीरथ प्रसाद को हराया। वर्ष 2014 के चुनाव में डा. भागीरथ प्रसाद भाजपा के टिकट पर लड़े और सांसद बने। यहां से फिलहाल बीजेपी से संख्या राय सांसद हैं जिन्होंने 2019 के चुनाव में कांग्रेस के देवाशीष जरारिया को करीब 2 लाख वोट से हराया था।
बसपा बिगाड़ेगी गणित
इस सीट पर बसपा भी कांग्रेेस व भाजपा प्रत्याशियों का गणित बिगाड़ेगी। इसकी वजह है बसपा ने बीते चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी रहे देवाशीष जरारिया को प्रत्याशी बनाया है । बीते चुनाव में उन्हें तीन लाख से अधिक मत मिले थे। अगर बसपा के मतों को देखें तो 2009 में बसपा को इस सीट पर 11.6 फीसदी वोट मिल चुके हैं। इसके बाद के चुनावों में उसे क्रमश: 4.63 और 6.93 प्रतिशत मिले थे।
जातिगत समीकरण
अगर इस सीट पर जातिगत समीकरण की चर्चा करें तो यहां पर करीब 3-3 लाख क्षत्रिय-ब्राह्मण मतदाता हैं। दलित वोट बैंक प्रतिशत के हिसाब से यहां पर सबसे ज्यादा यानी करीब साढ़े तीन लाख हैं। वोट बैंक में अन्य जातियों की बात की जाए तो आदिवासी और अल्पसंख्यक करीब साढ़े चार लाख और धाकड़, किरार, गुर्जर, कुशवाह, रावत समाज करीब-करीब 3 लाख है। यहां पर जातिगत समीकरण ज्यादा मायने नहीं रखते हैं, क्योंकि इनका मिला जुला असर दिखाई देता है।