प्रदेश में बुरी हार से कांग्रेस के उम्रदराज नेताओं की बढ़ी मुश्किलें

कयासों का दौर शुरु, युवाओं का दाव भी नहीं चला.

प्रदेश में लोकसभा की सभी 29 सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों की जीत ने कांग्रेस को बुरी तरह से हतप्रभ कर दिया है। प्रदेश में भाजपा के पक्ष में चल हवा की चपेट में इस बार कांग्रेस की पंरपरागत सीट छिंदवाड़ा भी नहीं बच कसी है। इसी तरह से पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह भी अपने ही घर राजगढ़ में तो पूर्व केन्द्रीय मंत्री कांति लाल भूरिया भी बड़े अंतर से चुनाव हार गए। इन तीनों ही सीटों पर पार्टी की कम, बल्कि नेताओं की व्यक्तिगत हार अधिक मानी जा रही है। दोनों सीटों पर मिली हार के बाद से प्रदेश के साथ ही देश के बड़े नेताओं में शुमार इन बुजुर्ग नेताओं के भविष्य को लेकर कयासों का दौर चल निकला है। अहम बात यह है कि पार्टी हाईकमान द्वारा प्रदेश में युवाओं को जिम्मेदारी देने का प्रयोग भी इस चुनाव में पूरी तरह से फोल हो गया है। दरअसल कांग्रेस ने हाल ही में पीसीसी चीफ की कमान जीतू पटवारी को दी थी। वहीं विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद आदिवासी युवा नेता उमंग सिंघार को नेता प्रतिपक्ष बनाया गया था। इसके बाद से यह माना जा रहा था कि कांग्रेस के इस परिवर्तन से नई पीढ़ी उनके साथ जुड़ेगी और उन्हें लोकसभा चुनाव में आधा दजर्न से अधिक सीटें मिल जाएंगी। लेकिन इसके उलट कांग्रेस मध्य प्रदेश में खाता भी नहीं खोल पाई। अब जीतू पटवारी और उमंग सिंघार के भविष्य पर भी सवालिया निशान खड़े हो गए हैं। देखना होगा कि क्या कांग्रेस आलाकमान इन नेताओं को आगे भी काम करने का मौका देगी या एक बार फिर से बदलाव किया जाएगा। हालांकि जीतू पटवारी ने मीडिया के सामने प्रदेश में मिली करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए किसी भी परिवर्तन के लिए तैयार रहने की बात कही है।
और लगातार दूसरा चुनाव हारे दिग्विजय
दिग्विजय सिंह को राजगढ़ से चुनावी रण में उतारा था। इस सीट पर कांग्रेस के पास उनसे अच्छा नेता भी नहीं है। उनके चुनाव में उतरने से माना जा रहा था कि इस सीट पर पार्टी को जीत मिल जाएगी। लेकिन उन्हें अपने घर में ही बड़ी हार का सामना करना पड़ा है। हार से दिग्विजय सिंह के करियर पर भी सवालिया निशान खड़ा हो रहा है। गौरतलब है कि भले ही दिग्विजय सिंह प्रदेश में चुनाव नहीं लड़ते थे, लेकिन हर चुनाव में उनकी अहम भूमिका रहती थी। चाहे टिकट वितरण का मामला हो या फिर प्रत्याशियों के प्रचार प्रसार का। कार्यकर्ताओं के बीच उनकी अच्छी पकड़ है। लेकिन अब वह इस चुनाव को आखिरी बता रहे थे उनका साफ कहना था कि इसके बाद में वे चुनाव नहीं लड़ेंगे लेकिन उनको जाते-जाते भी हर का सामना करना पड़ा है।
नकुल के लिए होगी मुश्किल
कमलनाथ लगातार 45 सालों से छिंदवाड़ा में जीतते आए हैं। वे तब भी नहीं हारे, जब पूरे देश में मोदी के नाम की सुनामी आयी थी। 2019 में उनके पुत्र नकुलनाथ छिंदवाड़ा से सांसद निर्वाचित हुए थे। लेकिन इस बार वे बंटी साहू से बड़े अंतर से चुनाव हार गए। इसका सीधा असर कमलनाथ की राजनीतिक करियर पर पड़ेगा। खास बात यह है कि कमलनाथ के साथ-साथ उनके पुत्र नकुलनाथ के भविष्य पर भी संकट के बदल छाने लगे हैं। क्योंकि कमलनाथ ने अपने पुत्र को छिंदवाड़ा से जीत दिलाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। कांग्रेस के बड़े नेता होने के बावजूद वे एक सीट पर सिमटकर रह गए थे। अब ऐसे में नकुलनाथ को दोबारा छिंदवाड़ा से टिकट दिलवा पाना उनके लिए टेढ़ी खीर होगी।
जीत के दावे हुए हवा
कांग्रेस के सभी बड़े नेता लगातार दावा कर रहे थे कि प्रदेश में उन्हें 10 से 15 सीटों पर विजय मिलेगी। लेकिन वह इस बार प्रदेश में पार्टी का खाता तक नहीं खुला। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 28 सीट पर जीत दर्ज की थी। छिंदवाड़ा सीट जीतकर कांग्रेस ने भाजपा को क्लीन स्वीप से रोका था। इस बार ऐसा नहीं हो पाया। एग्जिट पोल में भी भाजपा के इस बार क्लीन स्वीप का अनुमान लगाया गया था।
भाजपा के दरवाजे भी हुए बंद
लोकसभा चुनाव से पहले कमलनाथ अपने पुत्र नकुलनाथ के साथ बीजेपी में शामिल होने की पूरी तैयारी कर ली थी। लेकिन अचानक उनका मन बदला तो उन्होंने अपना निर्णय भी बदल दिया और कांग्रेस में ही रहकर छिंदवाड़ा से एक बार फिर चुनाव लड़ा। अब अगर कमलनाथ अपने बेटे नकुलनाथ का भविष्य संवारने के लिए बीजेपी में जाने का रुख करते हैं, तो ऐसे में भाजपा उन्हें स्वीकार नहीं करेगी। क्योंकि भाजपा उन्हें छिंदवाड़ा से ही चुनाव लडऩे के लिए अपने पार्टी में शामिल कर रही थी। अब बीजेपी को छिंदवाड़ा में विजय हासिल हो गई है, इसलिए अब उन्हें कमलनाथ की जरूरत ही नहीं रही है।