सालों से ठंडे बस्ते में पड़े हैं कई मामले…
मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालते ही डॉ. मोहन यादव ने जिस तरह ताबड़तोड़ फैसले लिए उससे यह आस जगी थी कि कानून व्यवस्था, जनता और कर्मचारियों के हित के जो मुद्दे वर्षों से लंबित पड़े हैं, उन पर मुख्यमंत्री जल्द से जल्द निर्णय लेंगे। लेकिन सरकार गठन के करीब आठ माह बाद भी मदरसों के रजिस्ट्रेशन, यूसीसी, प्रमोशन पर बैन, शराब की ऑनलाइन डिलिवरी, अहाते खोलने आदि पर निर्णय नहीं हो सका है। ये मुद्दे काफी महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सरकार असमंजस में हैं कि करें या न करें।
गौरतलब है कि सत्ता में आने के बाद डॉ. मोहन यादव सरकार ने कुछ कड़े फैसले किए हैं, लेकिन कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर आगे बढ़ने को लेकर सरकार असमंजस में हैं। ये ऐसे विषय पर हैं, जिन पर फैसले को लेकर सरकार को डर है कि उसे राजनीतिक रूप से नुकसान न हो जाए। यही वजह है कि इन मुद्दों पर अंतिम निर्णय लेने से पूर्व सरकार राजनीति नफा-नुकसान का बारीकी से आंकलन कर रही है। कुछ मुद्दों पर निर्णय लेने के लिए सरकार सही समय का इंतजार कर रही है। इनमें से कुछ मुद्दे ऐसे हैं, जिन पर शिवराज सरकार भी निर्णय नहीं ले पाई और उन्हें ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
ताबड़तोड़ नए निर्णय, पुराने पर ध्यान नहीं
मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव सरकार धार्मिक स्थलों से लाउडस्पीकर हटाने, खुले में मांस-मछली बेचने पर प्रतिबंध लगाने, शहीद को मिलने वाली सम्मान निधि माता-पिता व पत्नी को आधी-आधी देने जैसे निर्णय कर चुकी है, लेकिन पहले से चल रहे जिन मुद्दों पर निर्णय लेना था, उस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मप्र में मदरसों का रजिस्ट्रेशन कराना अनिवार्य नहीं है। मदरसों के सर्वे की कोई व्यवस्था नहीं है। यही वजह है कि प्रदेश में बड़ी संख्या में मदरसे अवैध रूप से संचालित हो रहे हैं। प्रदेश में मदरसों की वास्तविक संख्या, उनमें पढ़ने वाले छात्रों की संख्या, पाठ्यक्रम आदि का सरकार के पास लेखा-जोखा नहीं है। कई बार मदरसों की जांच में अनियमितताएं सामने आती हैं। तत्कालीन शिवराज सरकार मदरसों का न तो पंजीयन अनिवार्य कर पाई और न ही उनके सर्वे की योजना बनाई गई। वर्तमान सरकार में इस संबंध में चर्चा हुई, पर अंतिम निर्णय नहीं लिया जा सका। प्रदेश में 2689 मदरसे रजिस्टर्ड हैं। वहीं मप्र सरकार यूनिफॉर्म सिविल कोड (यूसीसी) के मुद्दे पर असमंजस में है। उत्तराखंड, गोवा व महाराष्ट्र सरकार यूसीसी को लेकर कमेटी गठित कर चुकी है। तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दिसंबर, 2022 में यूसीसी के संबंध में कमेटी गठित करने की घोषणा की थी, लेकिन कमेटी का गठन नहीं ही पाया। वर्तमान सरकार में इस मुद्दे पर उच्च स्तर पर चर्चा हुई, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई। अभी यह मामला ठंडे बस्ते में हैं। महाराष्ट्र की तर्ज पर मप्र सरकार भी शराब की ऑनलाइन डिलिवरी पर विचार कर रही है। इस संबंध में आबकारी विभाग के अधिकारी लगातार एक्सरसइज कर रहे हैं। सरकार मानती है कि शराब की ऑनलाइन बिक्री आज की जरूरत है, लेकिन सरकार को डर है कि विपक्ष इस मुद्दे पर उसे घेर न लें और उसका राजनीतिक दृष्टि से नुकसान हो जाए, यही वजह है कि इस मुद्दे पर सरकार कोई अंतिम फैसला नहीं कर पा रही है। पिछले साल विधानसभा चुनाव से पूर्व तत्कालीन शिवराज सरकार ने प्रदेश में अहाते बंद करने का निर्णय लिया था। अहाते बंद होने से शराब दुकानों के आसपास शराब पीने वालों की सड़कों के किनारे भीड़ लगी रहती है। इससे वाहन चालक और आम आदमी परेशान होते हैं। साथ ही शराब दुकान संचालकों को आर्थिक नुकसान हो रहा है। आबकारी विभाग इस संबंध में सर्वे करा चुका है। इसमें सामने आया कि अहाते खोले जाना हर तरह से फायदेमंद है, लेकिन इस मुद्दे पर सरकार अंतिम निर्णय नहीं ले पा रही है।
पदोन्नति के लिए सीएम मोहन से आस
मप्र के कर्मचारियों का दुर्भाग्य ही है कि प्रदेश में भाजपा व कांग्रेस की सरकारों में भी उनकी पदोन्नति का रास्ता नहीं खुल सका है। राजनैतिक नफा नुकसान के फेर में प्रदेश के कर्मचारियों को सरकार पदोन्नति देने से बच रही है। इसके लिए न्यायालय को सरकार बतौर हथियार प्रयोग कर रही है। इसकी वजह से सरकार को आर्थिक हानी तो हो ही रही है, साथ ही बड़ी संख्या में कर्मचारियों को भी बगैर पदोन्नति के ही सेवानिवृत्त होना पड़ रहा है। यह बात अलग है कि इस दौरान पदोन्नति का रास्ता निकालने के लिए जरुर जमकर दिखावा किया गया है। मप्र में आठ साल से पदोन्नति पर प्रतिबंध लगा है। मामला सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है। इस अवधि में प्रदेश में तीन सरकारें बदल गई। करीब 80 हजार कर्मचारी प्रमोशन के इंतजार में सेवानिवृत्त हो गए। प्रमोशन नही होने से कर्मचारियों में भारी निराशा है। सरकार बीच का रास्ता निकालते हुए उन्हें उच्च पदों का प्रभार दे रही है। कमलनाथ और शिवराज सरकार की तरह डॉ. मोहन यादव सरकार भी लाखो कर्मचारियों से जुड़े इस मामले से पूरी तरह से दूरी बनाए हुए हैं। दरअसल प्रदेश में पदोन्नति में आरक्षण के मामले को लेकर विवाद की स्थिति बनने के बाद सरकार ने इस मामले से खुद को अलग करने के लिए मामले को टालना ही उचित समझा है। यही वजह है कि मामला सुलझने की जगह उलझता ही जा रहा है। इस बीच मामले की सुनवाई के लिए सरकार वकीलों को करीब बीस करोड़ की फीस का भुगतान कर चुकी है। इसके अलावा मंत्रियों की समिति से लेकर अन्य तरह के दिखावटी प्रयास भी कर चुकी है। इस बीच शिवराज सरकार फिर कमलनाथ और फिर शिवराज सरकार के बाद अब प्रदेश में डॉ मोहन यादव की सरकार आ गई है। पुरानी सरकारों से निराशा हाथ लगने के बाद अब नई सरकार से कर्मचारियों को इस मामले में उम्मीद लगी हुई है। पदोन्नति का मामला भले ही सुप्रीम कोर्ट में चल रहा हो, लेकिन मप्र हाईकोर्ट कई प्रकरणों में कहा चुका है कि पदोन्नति पर कोई रोक नहीं है। हाईकोर्ट में अलग-अलग बेंचों में लगे कुछ प्रकरणों में सुनवाई के बाद सरकार को कर्मचारियों को पदोन्नति देनी पड़ी है।