लोकसभा चुनाव में हार को अति आत्मविश्वास का नतीजा बताने वाले योगी आदित्यनाथ उपचुनावों में भाजपा को वांछित जीत दिला देंगे तो माना जाएगा कि उनकी लोकप्रियता का लिटमस टेस्ट हो गया.
वहीं, विपक्षी गठबंधन को साबित करना है कि आम चुनाव में उसकी बढ़त तुक्का नहीं थी.
देश के सबसे ज्यादा जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश ने अतीत में अपनी विधानसभा के कई बेहद चुनौतीपूर्ण कहें या ‘अभूूतपूर्व’ उपचुनाव देखे हैं. इनमें से एक में (जो स्वतंत्रता के बाद का पहला उपचुनाव था और 1948 में हुआ) ‘भारतीय समाजवाद के पितामह’ कहलाने वाले आचार्य नरेंद्रदेव हार गए थे तो एक अन्य में (जो 1971 में हुआ) तत्कालीन मुख्यमंत्री त्रिभुवन नारायण सिंह अपने पद पर रहते हुए भी अपनी शिकस्त नहीं टाल पाए थे.
गोरखपुर जिले की मनीराम विधानसभा सीट (जो अब अस्तित्व में नहीं है) के इस उपचुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी प्रधानमंत्रियों द्वारा उपचुनावों में प्रचार न करने की पुरानी परंपरा तोड़कर त्रिभुवन नारायण सिंह के विरुद्ध कांग्रेस प्रत्याशी रामकृष्ण द्विवेदी के लिए वोट मांगने आई थीं, जबकि अपनी जीत के प्रति आश्वस्त सिंह नामांकन के बाद एक बार भी मानीराम नहीं गए थे और हारने के बाद उन्हें विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण के बीच में ही अपने इस्तीफे की घोषणा करनी पड़ी थी.
लेकिन ऐसा पहले कभी नहीं हुआ कि चुनाव आयोग द्वारा प्रदेश में होने जा रहे विधानसभा उपचुनावों का कार्यक्रम घोषित करने से पहले ही प्रेक्षक उनमें देश के दो अन्य राज्यों (जम्मू कश्मीर व हरियाणा) में हो रहे विधानसभा चुनावों से ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे हों.
साथ ही कई हलकों में इस बात को लेकर चुनाव आयोग की आलोचना भी की जा रही हो कि उसने उक्त विधानसभा चुनावों के साथ इन कहीं ‘ज्यादा निर्णायक’ उपचुनावों का कार्यक्रम घोषित नहीं किया. कहा जा रहा हो कि उसने सत्ता दल को ‘समय’ देने की मंशा से उपचुनाव कार्यक्रम का एलान रोक दिया.
द्रविड़ प्राणायाम
निस्संदेह, प्रेक्षकों की यह ‘बेकरारी’ अकारण नहीं है. वह इसलिए है कि दस विधानसभा सीटों पर होने जा रहे ये उपचुनाव प्रदेश के सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों के लिए जीवन-मरण का ऐसा प्रश्न बन गए हैं, जिसे हल करने के लिए उनके समक्ष अपना पराक्रम ‘सिद्ध’ करने की विकट लाचारी है.
गौरतलब है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में इन दस में से पांच- कटेहरी (अम्बेडकरनगर), करहल (मैनपुरी), मिल्कीपुर (अयोध्या), सीसामऊ (कानपुर नगर) और कुंदरकी (मुरादाबाद) सीटें सपा और मीरापुर (मुजफ्फरनगर) उसकी तत्कालीन गठबंधन सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल ने जीती थी, जबकि तीन अन्य- खैर (अलीगढ़), फूलपुर (इलाहाबाद) व गाजियाबाद सीटें भाजपा और मझंवा (मिर्जापुर) उसकी सहयोगी निषाद पार्टी ने.
गत लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय लोकदल द्वारा पालाबदल लेने के बाद इन दस में से पांच सीटें ‘इंडिया’ गठबंधन की घटक सपा तो पांच एनडीए के घटकों भाजपा, निषाद पार्टी व राष्ट्रीय लोकदल के पास हो गई हैं. इनमें नौ उनके विधायकों के लोकसभा के लिए चुन लिए जाने से रिक्त हुई हैं तो एक (सीसामऊ) सपा विधायक इरफान सोलंकी के विधानसभा की सदस्यता के अयोग्य करार दे दिए जाने के कारण. पांच-पांच की इस ‘टाई’ के मद्देनजर पहली नजर में ही मुकाबला कांटे का दिख रहा है तो पूर्वांचल से पश्चिम तक प्रदेश के दस जिलों के फैली इन शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में फैली इन सीटों के मतदाताओं का मूड पढ़ना या एक जैसा बताना आसान नहीं है.
कसौटी पर योगीराज
बहरहाल, जानकारों द्वारा लोकसभा चुनाव में ‘इंडिया’ के हाथों अप्रत्याशित शिकस्त के बाद गुटबाजी समेत भाजपा की अंदरूनी राजनीति के प्रायः सारे संकटों के खत्म या और गहरे होने का सारा दारोमदार इन उपचुनावों के नतीजों पर ही निर्भर बताया जा रहा है. उनके मुताबिक पार्टी के जिस गुट ने पिछले दिनों लोकसभा चुनाव की शिकस्त के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को जिम्मेदार ठहराते हुए उनकी बेदखली की हवा बांधी और आक्रमणों-प्रत्याक्रमणों के सिलसिले के बाद पीछा खींच लिया, वह इन नतीजों के आधार पर ही अपनी अगली रणनीति पुनर्निर्धारित करेगा.
लोकसभा चुनाव में हार को अति आत्मविश्वास का नतीजा बताने वाले योगी इन उपचुनावों में भाजपा को वांछित जीत दिला देंगे तो माना जाएगा कि उनकी लोकप्रियता का लिटमस टेस्ट हो गया. तब बहुत संभव है कि उनके विरुद्ध सक्रिय गुट हार मानकर उन्हें 2027 के विधानसभा चुनाव तक के लिए ‘अभय’ कर दे. लेकिन इसका उल्टा हुआ तो वह उनकी गद्दी में नित नए कांटे उगाने से बाज नहीं आएगा.
तब संगठन के सरकार से बड़े होने का मुद्दा और उसके लाजिक तो नए रूप में सामने आएंगे ही, वह मोदी-योगी अंतर्विरोध भी खुलकर खेलने लग सकता है, जिसे अभी ढक-तोप दिया गया है. यह चर्चा तो खैर अभी भी बदस्तूर है कि योगी को कह दिया गया है कि वे उपचुनावों में अपनी लोकप्रियता सिद्ध करें अन्यथा जाएं.
कहते हैं कि योगी ने भी इस चुनौती को स्वीकार कर लिया है और सब कुछ छोड़कर अपने बुलडोजर राज व कट्टर हिंदुत्व के एजेंडा को नई धार देने में लगे गए हैं. बांग्लादेश की हाल की घटनाओं के बहाने उनके ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ कहने और कांवड़ यात्रा के दौरान उठाए गए विभाजनकारी कदमों को इसी रूप में देखा जा रहा है.
दूसरी ओर प्रेक्षक कह रहे हैं कि क्या पता, भाजपा के घटते समर्थन के बीच उसका परंपरागत वोटबैंक मजबूती से उसके साथ खड़ा है या उसका मन भी डोलने लगा है, जबकि अयोध्या में सपा के अवधेश प्रसाद के हाथों फैजाबाद लोकसभा सीट हारने से तिलमिलाए भाजपा कार्यकर्ताओं का एक वर्ग अवधेश प्रसाद के इस्तीफे से रिक्त अयोध्या जिले की ही मिल्कीपुर विधानसभा सीट पर सपा को हर हाल में हराकर हिसाब-किताब बराबर करने की बात कर रहा है. उसका कहना है कि इसके बगैर ‘बदला’ पूरा नहीं होगा.
इंडिया रे इंडिया!
प्रतिद्वंद्वी ‘इंडिया’ यानी सपा-कांग्रेस गठबंधन का भी कुछ कम चुनौतियों से सामना नहीं है. उसेे सिद्ध करना है कि लोकसभा चुनाव में उसकी जीत न तुक्का थी और न (जैसा कि भाजपा आरोप लगाती है) मतदाताओं को भरमा व बहकाकर हासिल की गई. लोकसभा चुनाव में उसकी सबसे बड़ी घटक सपा ने पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक व आधी आबादी) का नारा दिया था और भाजपा के ‘चार सौ पार’ के नारे से आशंकित दलितों ने बाबा साहेब का बनाया संविधान बचाने के लिए पुरानी ग्रंथियों से बाहर निकलकर सपा को अपना विश्वासभाजन बनाया था. इन उपचुनाव नतीजों से पता चलेगा कि उसके प्रति उनका विश्वास बना हुआ है या नहीं.
इस दौरान प्रेक्षकों की इस पर भी नजर रहेगी कि सपा-कांग्रेस गठबंधन अब किस हाल में है. दोनों पार्टियों के कार्यकर्ता लोकसभा चुनाव की ही तरह प्राण-प्रण से एकजुट हैं या नहीं. इस एकजुटता के अभाव में सपा को सवर्ण वोटों का भी नुकसान हो सकता है, दलित वोटों का भी और अंग्रेजी की कहावत ‘यूनाइटेड वी स्टैंड, डिवाइडेड वी फॉल’ सही सिद्ध हो सकती है.
अभी सूत्रों के हवाले से कभी यह खबर आ रही है कि सपा कांग्रेस को भाजपा के कब्जे वाली तीन सीटें देने को राजी है और कभी यह कि कांग्रेस पांच सीटें मांग रही है, जिससे दोनों दलों के बीच ‘गतिरोेध’ है. लेकिन फिलहाल, दोनों के नेताओं ने खामोशी अख्तियार कर रखी है.
तीसरा कोण
अब मुकाबले के तीसरे कोण बसपा की बात. आमतौर पर बसपा उपचुनाव नहीं लड़ती. यह कहकर उनमें जोर-आजमाइश से किनारा कर लेती है कि वह अपने कार्यकर्ताओं की ताकत व्यर्थ जाया नहीं करना चाहती. लेकिन इस बार क्या पता, दुर्दिन झेल रही है इसलिए या प्रतिद्वंद्वियों की जीत-हार में भूमिका निभाने के लिए वह भी अपना पराक्रम सिद्ध करने चल पड़ी है.
बहरहाल, उसके इस चल पड़ने को लेकर जितने मुंह, उतनी बातें हैं. कई मुंह कह रहे हैं कि उसकी सारी जोर-आजमाइश भाजपा की मदद करने के लिए है. जिन सीटों पर उपचुनाव होने हैं, उनमें से एक भी बसपा की नहीं है. इसलिए मुकाबले में उसे कुछ गंवाने का तनाव नहीं है, लेकिन गत दिनों एक बार फिर उसकी सुप्रीमो बन जाने के बाद मायावती जिस तरह सपा व कांग्रेस पर बरसीं, उसे लेकर खूब कयास लगाए जा रहे हैं. यह कहने वाले भी हैं कि वह 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले अपने खोए हुए दलित वोटबैंक को सहेजने के लिए मजबूर है.
दलित वोटर केंद्र में
मजबूर सही, लेकिन उसकी कवायदों का इतना असर तो हुआ है कि दलित वोटर उपचुनावों के केंद्र में आ गए हैं. पूछा जा रहा है कि वे बसपा को शक्तिसंचित करती देख एक बार फिर ‘बहन जी’ के मोहपाश में बंधेंगे, फिर से उस भाजपा के साथ जाने की सोचेंगे, बसपा की शक्तिहीनता के दौर में उनके एक हिस्से को जिसका कमल खिलाने से कोई गुरेज नहीं दिख रहा था या गत लोकसभा चुनाव की तरह वे ‘इंडिया’ (सपा-कांग्रेस) गठबंधन के साथ ही रहेंगे.
इस सिलसिले में एक दृष्टिकोण यह भी है कि गत लोकसभा चुनाव में ‘संविधान को खतरे की घड़ी’ में उन्होंने ‘दुश्मन’ सपा पर इसलिए एतबार कर लिया था कि उसका कांग्रेस से गठबंधन था.
बहरहाल, प्रदेश के पिछले कई चुनावों में दलित मतदाताओं का रवैया अब कांग्रेसी हो गए दलित नेता उदित राज के उस पुराने कथन को सही सिद्ध करता रहा है कि ‘दलित जहां भी अपने लिए बेहतर संभावनाएं देखेंगे, वहीं चले जाएंगे. बसपा में कोई सुरखाब के पर नहीं लगे कि वे हमेशा के लिए उससे बंधे रहेंगे.’
साफ है कि इन उपचुनावों में कांग्रेस के नाते दलित सपा के साथ बने रहते हैं तो यह साथ सपा से ज्यादा कांग्रेस के लिए खुशखबरी होगा. क्योंकि उसके निकट यह अपने पुराने वोटबैंक की वापसी का न सही, उसका प्रवाह अपनी ओर होने का संकेत जरूर होगा.
फिलहाल, अभी सारी संभावनाएं खुली हुई हैं और प्रतिद्वंद्वी उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए द्रविड़ प्राणायाम करते पसीना बहा रहे हैं.