अनुकंपा नियुक्ति सरकारी नौकरी पाने का निहित अधिकार नहीं: सुप्रीम कोर्ट

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुकंपा के आधार पर

नियुक्ति सरकारी नौकरी पाने का एक निहित अधिकार नहीं है। क्योंकि यह सेवा के दौरान मृत्यु होने वाले किसी कर्मचारी की सेवा की शर्त नहीं है। शीर्ष अदालत ने इस टिप्पणी के साथ ही पुलिस कांस्टेबल पिता की 1997 में ड्यूटी के दौरान मृत्यु के बाद अनुकंपा नौकरी की मांग करने वाले व्यक्ति की याचिका खारिज कर दी। याचिकाकर्ता पिता की मृत्यु के वक्त सात वर्ष का था। जस्टिस अभय एस ओका, जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने कहा कि ऐसा कोई निर्देश जारी नहीं किया जा सकता जिसमें राज्य को किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के पक्ष में संबंधित नीति के विपरीत किसी भी अवैधता को जारी रखने के लिए कहा जाए।

पीठ ने पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखते हुए जस्टिस मसीह ने फैसले में कहा, अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति परिवार के सदस्य की मृत्यु के समय उत्पन्न तात्कालिक वित्तीय संकट को दूर करने के लिए की जाती हैं। यह कोई निहित अधिकार नहीं है, जिसका दावा लंबा समय बीतने के बाद किया जा सके। जस्टिस मसीह ने कहा, यह नियुक्ति विभिन्न मानदंडों की समुचित और सख्त जांच के बाद दी जाती है। इसमें आवश्यक होना चाहिए कि मरने वाला व्यक्ति परिवार में कमाने वाला एकमात्र व्यक्ति था। उसके अचानक चले जाने से परिवार पर गहरा वित्तीय संकट पड़ा हो। पीठ ने आदेश में कहा कि अनुकंपा नियुक्ति किसी भी मामले में इस शर्त के अधीन होगा कि दावेदार नियुक्ति की नीति, निर्देश या नियमों में निर्धारित आवश्यकताओं को पूरा करता हो।

क्या है मामला?
याचिकाकर्ता टिंकू के पिता कांस्टेबल जय प्रकाश की 1997 में ड्यूटी के दौरान एक अधिकारी के साथ मृत्यु हो गई थी। उस समय टिंकू सिर्फ सात वर्ष का था और उसकी मां, जो अनपढ़ थी, अपने लिए अनुकंपा के आधार पर नियुक्ति के लिए आवेदन नहीं कर सकती थी। इसके बजाय, उसने अनुरोध किया कि उसके बेटे का नाम ‘नाबालिगों के रजिस्टर’ में दर्ज किया जाए, इस समझ के साथ कि वयस्क होने पर उसे किसी पद के लिए विचार किया जा सकता है। 1998 में हरियाणा के पुलिस महानिदेशक ने टिंकू का नाम दर्ज करने के निर्देश जारी किए। हालांकि, 2008 में वयस्क होने के बाद जब टिंकू ने पद के लिए आवेदन किया, तब तक उसके पिता की मृत्यु को 11 साल बीत चुके थे। अधिकारियों ने उसके आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया कि हरियाणा के 1999 के निर्देशों में कर्मचारी की मृत्यु के बाद ऐसे दावों के लिए तीन वर्ष की सीमा निर्धारित की गई थी। पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट की एकल एवं खंड पीठों ने उसकी याचिका खारिज कर दी थी। जिसके बाद उसने शीर्ष अदालत का रुख किया। सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।