सुप्रीम कोर्ट के प्रत्येक जज पर 2,575 केस, उच्च अदालत के हर जज पर 8,008 केस और निचली अदालतों के प्रति जज पर 2,218 केस की सुनवाई की ज़िम्मेदारी है. इस तरह देश प्रत्येक जज की डेस्क पर 2,427 प्रकरण लंबित पड़े हैं.
भारत का मुख्य न्यायाधीश बनने से कुछ दिन पहले जस्टिस संजीव खन्ना ने एक कार्यक्रम में कहा था कि किसी न्याय व्यवस्था की पहचान उसके लिए फैसलों की बजाय जेलों में बंद क़ैदियों के साथ व्यवहार से पता चलती है. उन्होंने इशारा किया कि देश की जेलों में क्षमता से ज़्यादा कैदी हैं और दयनीय स्थिति में हैं.
चीफ जस्टिस का पद संभालने के साथ ही उन्होंने बताया कि उनके कार्यकाल में उनकी प्राथमिकताएं प्रकरणों का बैकलॉग कम करने, अदालती कार्यवाही को सरल और सुलभ बनाने, जटिल कानूनी प्रक्रियाओं को आसान बनाने और नागरिक केंद्रित नजरिया अपनाने पर रहेंगी.
भारत में चीफ जस्टिस का पद न केवल प्रशासनिक जिम्मेदारियों से लदा है, बल्कि वे पेचीदा संवैधानिक व्याख्याओं समेत कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई में भी शामिल रहते हैं. इसलिए उनका मूल्यांकन दोनों ही पहलुओं पर किया जाता है. ऐसे में जस्टिस संजीव खन्ना के छह महीने के कार्यकाल में उनके समक्ष खड़ी सबसे बड़ी चुनौती क्या रहेगी, उन्हें जान लेते हैं.
जजों और कोर्ट स्टाफ की रिक्तियां भरने की ज़रूरत
जजों की संख्या का महत्व इस बात से समझें कि अगर दस लाख बेड वाले अस्पताल में महज 50 डॉक्टर होंगे या किसी विश्वविद्यालय के 10 लाख विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए 50 प्रोफेसर, तो वहां स्वास्थ्य या शिक्षा का क्या स्तर और गुणवत्ता होगी. इसी स्थिति में हमारे लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ यानी न्यायपालिका काम कर रही है. ऐसे में न्याय के स्तर और गुणवत्ता की कल्पना ही की जा सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन बनाम भारत सरकार की सुनवाई में कहा था, ‘संविधान के मूल ढांचों में से एक स्वतंत्र और प्रभावी न्याय व्यवस्था भी है. अगर पर्याप्त जज नहीं होंगे तो लोगों को न्याय उपलब्ध नहीं होगा और मूल ढांचे की अनदेखी भी होगी. हम इस बात से चिंतिंत हैं कि रातोंरात खाली पद नहीं भरे जा सकते. अतिरिक्त जजों के लिए हमें केवल जजों के पद सृजित नहीं करने होंगे बल्कि अतिरिक्त अदालतों, इमारतों और स्टाफ की भी जरूरत होगी.’
पिछले दो सालों से देश की उच्च अदालतों और निचली अदालतों में खाली पदों की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है. उच्च अदालतों में नवंबर 2024 तक 32% जजों के पद रिक्त थे. इनमें गुजरात और उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा लगभग 44%, बिहार में 38% और ओडिशा और उत्तराखंड में करीब 36% जजों के पद खाली हैं. वहीं, निचली अदालतों में जुलाई 2024 तक 20% जजों के पद खाली थे, जिनमें उत्तर प्रदेश में 34%, झारखंड में 28% और हरियाणा में 27% जजों की कमी है.
सर्वोच्च अदालत में नवंबर 2024 तक 6% जजों के पद रिक्त थे. समस्या केवल स्वीकृत पदों के खाली रहने की नहीं है. अगर वर्तमान के सभी स्वीकृत 25 हजार पदों से करीब 5 हजार खाली पद भर भी जाएं तो भी उनके लिए 5 करोड़ से ज्यादा लंबित प्रकरणों को संभालना आसान नहीं होगा.
भारत का मुख्य न्यायाधीश बनने से कुछ दिन पहले जस्टिस संजीव खन्ना ने एक कार्यक्रम में कहा था कि किसी न्याय व्यवस्था की पहचान उसके लिए फैसलों की बजाय जेलों में बंद क़ैदियों के साथ व्यवहार से पता चलती है. उन्होंने इशारा किया कि देश की जेलों में क्षमता से ज़्यादा कैदी हैं और दयनीय स्थिति में हैं.
चीफ जस्टिस का पद संभालने के साथ ही उन्होंने बताया कि उनके कार्यकाल में उनकी प्राथमिकताएं प्रकरणों का बैकलॉग कम करने, अदालती कार्यवाही को सरल और सुलभ बनाने, जटिल कानूनी प्रक्रियाओं को आसान बनाने और नागरिक केंद्रित नजरिया अपनाने पर रहेंगी.
भारत में चीफ जस्टिस का पद न केवल प्रशासनिक जिम्मेदारियों से लदा है, बल्कि वे पेचीदा संवैधानिक व्याख्याओं समेत कई महत्वपूर्ण मामलों की सुनवाई में भी शामिल रहते हैं. इसलिए उनका मूल्यांकन दोनों ही पहलुओं पर किया जाता है. ऐसे में जस्टिस संजीव खन्ना के छह महीने के कार्यकाल में उनके समक्ष खड़ी सबसे बड़ी चुनौती क्या रहेगी, उन्हें जान लेते हैं.
जजों और कोर्ट स्टाफ की रिक्तियां भरने की ज़रूरत
जजों की संख्या का महत्व इस बात से समझें कि अगर दस लाख बेड वाले अस्पताल में महज 50 डॉक्टर होंगे या किसी विश्वविद्यालय के 10 लाख विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए 50 प्रोफेसर, तो वहां स्वास्थ्य या शिक्षा का क्या स्तर और गुणवत्ता होगी. इसी स्थिति में हमारे लोकतंत्र का तीसरा स्तंभ यानी न्यायपालिका काम कर रही है. ऐसे में न्याय के स्तर और गुणवत्ता की कल्पना ही की जा सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने 2002 में ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन बनाम भारत सरकार की सुनवाई में कहा था, ‘संविधान के मूल ढांचों में से एक स्वतंत्र और प्रभावी न्याय व्यवस्था भी है. अगर पर्याप्त जज नहीं होंगे तो लोगों को न्याय उपलब्ध नहीं होगा और मूल ढांचे की अनदेखी भी होगी. हम इस बात से चिंतिंत हैं कि रातोंरात खाली पद नहीं भरे जा सकते. अतिरिक्त जजों के लिए हमें केवल जजों के पद सृजित नहीं करने होंगे बल्कि अतिरिक्त अदालतों, इमारतों और स्टाफ की भी जरूरत होगी.’
पिछले दो सालों से देश की उच्च अदालतों और निचली अदालतों में खाली पदों की स्थिति में कोई अंतर नहीं आया है. उच्च अदालतों में नवंबर 2024 तक 32% जजों के पद रिक्त थे. इनमें गुजरात और उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा लगभग 44%, बिहार में 38% और ओडिशा और उत्तराखंड में करीब 36% जजों के पद खाली हैं. वहीं, निचली अदालतों में जुलाई 2024 तक 20% जजों के पद खाली थे, जिनमें उत्तर प्रदेश में 34%, झारखंड में 28% और हरियाणा में 27% जजों की कमी है.
सर्वोच्च अदालत में नवंबर 2024 तक 6% जजों के पद रिक्त थे. समस्या केवल स्वीकृत पदों के खाली रहने की नहीं है. अगर वर्तमान के सभी स्वीकृत 25 हजार पदों से करीब 5 हजार खाली पद भर भी जाएं तो भी उनके लिए 5 करोड़ से ज्यादा लंबित प्रकरणों को संभालना आसान नहीं होगा.