जून 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल को भारत के लोकतंत्र पर सबसे बड़े हमले के रूप में देखा जाता है. यह निबंध दर्शाता है कि कैसे वे जानबूझकर एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कुचलती हुई तानाशाह बनीं, और कैसे आज भी सत्ता में बैठे लोग उस अंधेरे दौर को नज़रअंदाज़ करते हैं.

जून 1975 और जनवरी 1977 के बीच भारतीय लोकतंत्र लंबी छुट्टी पर भेज दिया गया था. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निर्देश पर राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाल दिया गया था, मानवाधिकार समाप्त हो चुके थे, समाचारों को सेंसर किया जा रहा था, और प्रधानमंत्री को भगवान मान कर पूजा करने को कहा जा रहा था. आपातकाल को एक समय स्वाधीन भारत के निर्णायक क्षण के रूप में देखा जाता था. जब आपातकाल हटा लिया गया, और इंदिरा गांधी को पदच्युत कर दिया गया, तब इस अनुभव को ‘बाल-बाल बचने’ के रूप में देखा गया था कि यह देश दुनिया की तानाशाह व्यवस्थाओं की स्थायी सदस्यता से बच गया था.
राजनीतिक विश्लेषकों ने नागरिकों को इससे सीख लेने की चेतावनी दी थी— नौकरशाहों और न्यायाधीशों को राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन करने की इजाज़त कभी न दें, अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश को कभी उचित न ठहराएं, और सबसे महत्वपूर्ण, व्यक्ति की बजाय प्रक्रिया में विश्वास करें.
इस जून आपातकाल की घोषणा हुए पच्चीस साल हो गए. उम्मीद थी कि उस दौर को हम चेतावनी बतौर स्मरण करेंगे, लेकिन हाल की घटनाएं संकेत करती हैं कि हिंदुस्तान का राजनीतिक वर्ग आपातकाल के बारे में शायद अपने दृष्टिकोण में संशोधन कर रहा है. दिल्ली के सत्ताधारी गठबंधन पर ऐसे लोगों का वर्चस्व है जो कभी इंदिरा गांधी द्वारा जेल में डाल दिए गए थे, लेकिन पिछली जनवरी भारत सरकार ने दो ऐसे आदमियों को देश के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से अलंकृत किया, जिनमें से एक आपातकाल के दौरान कैबिनेट सेक्रेटरी हुआ करता था, और दूसरे ने 1975 और 1977 के बीच इंग्लैंड के उच्च आयुक्त के पद पर रहते हुए देश के बारे में झूठी सूचनाएं फैलाईं थीं.

इस वर्ष मार्च में संयुक्त राज्य अमेरिका में इंदिरा गांधी के राजदूत रहे इंसान की मृत्यु हुई. श्रद्धांजलि लिखने वालों ने आदरपूर्वक उनके कार्यकाल की महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों को बतलाया, जिसमें यह ज़िक्र कहीं नहीं था कि उन्होंने वाशिंगटन में रहते हुए आपातकाल को उचित ठहराया था. ऐसा लगता है कि सत्ता को दी गई सेवाएं निश्चित पुरस्कृत की जाएंगी, बग़ैर यह देखे कि वे कैसी सेवाएं थीं या वह कौन सी सत्ता थी.
तानाशाह बनने से पहले इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र की पाठशाला में बहुत लंबी शिक्षा हासिल की थी. उनके पिता जवाहरलाल नेहरू भारतीय देशभक्त और पश्चिम में प्रशिक्षित समाजवादी-लोकतांत्रिक थे, जो मानते थे कि इतिहास वृहत्तर सामाजिकता और स्वतंत्रता हासिल करने के लिए मनुष्य के प्रयासों के रूप में उद्घाटित होता है.
इंदिरा गांधी के तेरहवें जन्मदिन पर उनके पिता ने जेल से उन्हें ख़त लिखना शुरू किया था—ये ख़त बाद में ग्लिम्प्सेज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री के रूप में प्रकाशित हुए थे. इस किताब के अध्याय रेखांकित करते हैं कि किस तरह ‘लोकतंत्र, जो एक सदी से असंख्य मनुष्यों का आदर्श और प्रेरणा का विषय रहा था, जिसके लिए हज़ारों लोग क़ुरबानी दे चुके थे’, अब ‘हर कहीं अपनी ज़मीन खो रहा’ था.
आपातकाल लागू करने से पहले इंदिरा गांधी स्वतंत्र हिंदुस्तान के पांच आम चुनावों में मतदान कर चुकी थीं. ये सारे चुनाव कांग्रेस पार्टी ने जीते थे- तीन बार जवाहरलाल नेहरू के और दो बार उनके नेतृत्व में. उपलब्ध साक्ष्य संकेत देते हैं कि नेहरू के जीवित रहते हुए भी उनकी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपने पिता जैसी आस्था नहीं थी.
दिसंबर 1949 में उन्होंने अपने पिता का विरोध किया था, जब नेहरू ने एक कमतर कांग्रेसी नेता द्वारा नेशनल हेराल्ड का प्रभार लेने पर हस्तक्षेप नहीं किया था. (यह अख़बार जवाहरलाल ने शुरू किया था और कुछ लोग इसे नेहरू-परिवार की संपत्ति मानते थे). ‘आप बहुत-सी चीज़ों को बर्दाश्त करते हैं,’ उन्होंने व्यंग्यात्मक लहज़े में अपने पिता से कहा था: ‘मुझे हर किसी से यह सुनकर बहुत दुख होता है कि आपको कोई बात बताने का कोई फ़ायदा नहीं है क्योंकि आप स्थिति को सुधारने के लिए कुछ भी नहीं करते’.
जब 1956 में नेहरू ने शक्तिशाली और सम्मानित क्षेत्रीय कांग्रेसी नेताओं को अपने राज्यों के मामलों को सुलझाने की स्वायत्तता दी थी, इंदिरा ने इसका विरोध किया था: ‘आप देश के कुछ हिस्सों में कुछ लोगों के विचारों को बिना सवाल किए मानते जा रहे हैं.’
सबसे प्रसिद्ध घटना वह है जब 1959 में बतौर कांग्रेस अध्यक्ष उन्होंने केरल की लोकतांत्रिक कम्युनिस्ट सरकार को भंग करने के लिए भारतीय संविधान के अब तक प्रयोग न हुए प्रावधान का इस्तेमाल करने के लिए नेहरू को राज़ी कर लिया था.
1963 में उन्होंने अपने एक दोस्त को शिकायती लहज़े में उस ‘क़ीमत’ के बारे में लिखा था जिसे ‘हम उस लोकतंत्र के लिए चुकाते हैं (जो) न सिर्फ़ औसत व्यक्तियों को पैदा करता है बल्कि सबसे वाचाल लोगों को ताक़त देता है, जिनमें न अक़्ल होती है न समझ’.
यह निबंध ख़ुद इंदिरा गांधी के शब्दों के ज़रिए यह साबित करना चाहता है कि वे अपनी इच्छा और कर्मों से तानाशाह बनी थीं. ऐसा नहीं था कि उन्हें कुटिल विपक्ष और उच्छृंखल बेटे ने लोकतंत्र का गला घोंटने के लिए मज़बूर कर दिया था.
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भारतीय राजनीतिक विमर्श के लिए इंदिरा गांधी का एकमात्र योगदान ‘विदेशी हाथ’ की अवधारणा थी. यह हाथ किस राष्ट्र का था इसे बता पाना मुश्किल है.
आपातकाल का ऐलान करने के एक हफ़्ते बाद प्रधानमंत्री ने टाइम्स ऑफ इंडिया के पत्रकार एम. शमीम को साक्षात्कार दिया था. उन्होंने कहा था कि ‘विरोधी दलों का लक्ष्य स्पष्ट था’ — ‘सरकार को और दरअसल सभी राष्ट्रीय गतिविधियों को पंगु कर देना और राष्ट्र की ‘लाश’ को कुचलते हुए सत्ता तक पहुंचना. हालात ऐसे बन गए थे कि कुछ और क़दम (देश का) विघटन कर देते, जो विदेशी ख़तरा पैदा कर देता.’
इस मुद्दे को उन्होंने 11 नवंबर को अपने भाषण में फिर उठाया, जो वहां प्रसारित हुआ था जिसे ऑल इंदिरा रेडियो कहा जाने लगा था. प्रधानमंत्री ने राष्ट्र से कहा कि ‘देश के बाहर बहुत-से लोग हैं जो हमारे शुभचिन्तक नहीं हैं, जो हिंदुस्तान को मज़बूत और संगठित और अपनी आर्थिक नीतियों को क्रियान्वित करते हुए नहीं देखना चाहते…हमारे देश के लोग भी इसके फंदे में फंस चुके थे’.
उस समय और बाद में भी इन विदेशी शत्रुओं की पहचान मुश्किल थी.
हिंदुस्तान का सबसे ख़तरनाक पड़ोसी पाकिस्तान हाल ही में युद्ध के मैदान में पराजित हुआ था और अपने पूर्वी हिस्से की क्षति से उबर नहीं पाया था. माओ मृत्यु-शय्या पर थे, इसलिए चीन भी कोई दुस्साहस दिखाने की स्थिति में नहीं था. भारतीय-सोवियत मैत्री संधि भी बरकरार थी. किसी यूरोपीय देश का कोई राजनीतिक या आर्थिक हित हिंदुस्तान में दांव पर नहीं लगा था. तब क्या इंदिरा गांधी के ज़ेहन में संयुक्त राज्य अमेरिका था? यह वे स्पष्ट तौर पर कभी नहीं कहती थीं, हालांकि उनके सलाहकार और अनुयायी कभी-कभार अमेरिका की सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के ख़ुफ़िया कृत्यों की बात किया करते थे.
विदेशी हस्तक्षेप का यह काल्पनिक भय संभवतः सबसे बेहतर इंदिरा गांधी की लोकप्रियता में तेज़ गिरावट के संदर्भ में समझा जा सकता है.
1971 की शुरुआत आम चुनावों में कांग्रेस की ज़बरदस्त जीत के साथ हुई थी, और इसका अंत बांग्लादेश युद्ध में पाकिस्तान पर निर्णायक जीत के साथ हुआ था, ऐसी जीत जिसका ज़्यादातर श्रेय सेनापतियों की बजाय स्वयं प्रधानमंत्री को मिला था. इस वक़्त वे हिंदुस्तान की चुनी हुई साम्राज्ञी थीं. विपक्षी राजनेता उनकी तुलना सर्वशक्तिमान हिंदू देवी दुर्गा से करने लगे थे. इस तुलना को एक प्रसिद्ध मुसलमान कलाकार ने अपने भित्तिचित्रों में स्थायी शक्ल दे दी थी.
आपातकाल के दौरान कांग्रेस अध्यक्ष डीके बरुआ ने एक नारा दिया था: ‘इंदिरा इज़ इंडिया, इंडिया इज़ इंदिरा’. इंदिरा गांधी स्वयं अपनी तुलना अक्सर राष्ट्र और राष्ट्रीय हित के साथ किया करती थीं.
ग्यारह नवंबर 1975 के अपने प्रसारण में उन्होंने कहा था कि आपातकाल इसलिए लागू किया गया था क्योंकि हमने महसूस किया था कि देश के भीतर एक बीमारी समा गई है और अगर इसका इलाज़ जल्द होना है, तो इसे दवा देनी ज़रूरी है, भले वह दवा कितनी ही कड़वी क्यों न हो. बच्चा कितना ही प्रिय हो, अगर डॉक्टर ने उसके लिए कड़वी गोलियां लिखी हैं, तो उसके इलाज़ के लिए उन गोलियों को खिलाया जाना ज़रूरी है. बच्चा कभी चीख़-पुकार मचा सकता है और हमें उससे कहना पड़ सकता है, ‘दवा ले लो, नहीं तो तुम ठीक नहीं हो पाओगे’. इसलिए हमने राष्ट्र को यह कड़वी दवा दी है.
इस महामाता चिकित्सक ने आगे कहा कि ‘जब कोई बच्चा तकलीफ़ में होता है’,
तो मां को भी तकलीफ़ होती है. इस तरह यह क़दम उठाते हुए हमें बहुत अच्छा नहीं लग रहा था. हम भी दुखी थे. हम भी चिन्तित थे. लेकिन हमने देखा कि यह डॉक्टर की दवा की तरह काम करेगी.
इस महामाता चिकित्सक ने आगे कहा कि ‘जब कोई बच्चा तकलीफ़ में होता है’,
तो मां को भी तकलीफ़ होती है. इस तरह यह क़दम उठाते हुए हमें बहुत अच्छा नहीं लग रहा था. हम भी दुखी थे. हम भी चिन्तित थे. लेकिन हमने देखा कि यह डॉक्टर की दवा की तरह काम करेगी.
इस हिंदुस्तानी तानाशाह की मानसिकता उनके अंग्रेज़ दोस्तों के साथ हुए पत्राचार से भी उजागर होती है.
कला इतिहासकार और इंडियन सिविल सर्विस के भूतपूर्व अधिकारी डब्ल्यूजी आर्चर ने दिसंबर 1975 में इंदिरा गांधी को ख़त लिखकर उन्हें उनकी ‘साहसी कार्रवाई’ के लिए बधाई दी थी. आर्चर ने लिखा था कि आपको ‘अवश्य इससे गहरा दुख हुआ होगा कि इस देश (इंग्लैंड) में बहुत-से कथित ‘हिंदुस्तान के दोस्त’ आपातकाल की कार्रवाई को समझने या उसका अनुमोदन करने में पूरी तरह नाकामयाब रहे थे’.
इंदिरा गांधी जानती थीं कि ब्रिटेन के बौद्धिक वर्ग ने उनके फ़ैसले का विरोध किया था. जहां माइकल फूट जैसे कुछ अंग्रेज़ राजनेताओं ने उनका बिना शर्त समर्थन किया था, वहां के अख़बारों का दृष्टिकोण अलग था. द टाइम्स ने अनेक आलोचनात्मक रिपोर्ट छापी थीं, जिसके बाद तत्कालीन भारतीय उच्च आयुक्त बीके नेहरू — जो इस साल पद्मविभूषण से अलंकृत किए गए हैं — ने इस अख़बार को पत्र लिखकर भारतीय जेलों की स्थिति का वर्णन किया था: ‘सरकारी कर्मचारी जेलों में बंद क़ैदियों की सुख-सुविधाओं का लगभग मातृवत ख़याल रख रहे हैं. उनके रहने और खाने की उत्तम व्यवस्था की गई है.’
लेकिन आलोचनाएं जारी रहीं. प्रतिष्ठित पत्रिका एन्काउण्टर ने दिसंबर 1975 में जयप्रकाश नारायण के प्रति सहानुभूति रखते हुए ‘इंदिरा गांधीज़ प्रिज़नर’ के शीर्षक से लंबा निबंध प्रकाशित किया था.
जवाहरलाल नेहरू की बेटी के लिए इंग्लैंड के बजाय अमेरिका या सोवियत संघ की झिड़की को सह पाना पाना शायद ज़्यादा आसान रहा होता.
इसलिए उन्होंने डब्ल्यूजी आर्चर को जवाब में लिखा कि ‘हिंदुस्तान ऐसा देश नहीं है जिसे आसानी से समझा जा सके. शायद यही वजह है कि पश्चिमी दुनिया हमसे इतनी चिढ़ती है. हमारा संघर्ष महज़ आर्थिक वृद्धि, यहां तक कि सामाजिक न्याय का भी नहीं है, बल्कि अपनी पहचान क़ायम रखने और अपने तरीक़े से विकास करने का है. बदक़िस्मती से ज़्यादातर शिक्षित हिंदुस्तानी सम्पन्न मुल्कों की चकाचौंध और उनके इस प्रचार से अभिभूत हो जाते हैं कि उनकी दुनिया ही श्रेष्ठतम है.’
यहां आप मोबुतू सेसे सीको, फ़िदेल कास्त्रो और ली कुआन येव जैसे सैन्य या साम्यवादी या किसी अन्य सम्प्रदाय से जुड़े सर्वसत्तावादी शासकों के साथ चौंकाने वाली समानता देख सकते हैं. ये लोग मानवाधिकारों को पश्चिमी एजेंडा और इन अधिकारों का बचाव करने वाले अपने देशवासियों को पश्चिम के एजेंट कहकर ख़ारिज़ करते थे, और अधिकारों की उस काल्पनिक सार्वभौमिकता के मुक़ाबले ‘अपनी पहचान को क़ायम रखने और अपनी निजी राह विकसित करने’ का सिंगापुरी या क्यूबाई या हिंदुस्तानी विकल्प प्रस्तुत करते थे, जहां अभिव्यक्ति और संगठन बनाने की स्वतंत्रता जैसी चीजें अनावश्यक बाधाएं बन जाती थीं.
जितना मैं, बतौर इतिहासकार, समझ पाता हूं हिंदुस्तान की एकता और अखंडता के लिए न तो आपातकाल के पहले कोई गम्भीर ख़तरा था, न आपातकाल के दौरान. क्या प्रेस और जनमत की स्वतंत्रता हिंदुस्तान या इंदिरा गांधी के लिए घातक होती?
यह सवाल अक्टूबर 1976 में अंग्रेज़ स्तंभकार बर्नार्ड लेविन ने उठाया था. लेविन ने द टाइम्स में दो हिस्सों में एक निबंध लिखा था जो मुख्यतः हिंदुस्तान में प्रेस सेंसरशिप और न्यायपालिका के कार्य में हस्तक्षेप पर केन्द्रित था. ‘इस विषय पर समुचित सामग्री का अध्ययन करने के बाद’ लेविन ने नतीजा निकाला था कि ‘इंदिरा गांधी का घटिया राज’ हर तरह से ‘तानाशाही’ है.
आपातकाल बीस महीने चला. सभी आश्चर्यचकित थे जब जनवरी 1977 में चुनावों की घोषणा हो गई. इसके बारे में परस्पर विरोधी व्याख्याएं हैं कि यह निर्णय क्यों लिया गया था.
उस समय जैसा मुझे खुद याद पड़ता है, यह अमूमन माना जाता था कि रिसर्च एंड एनालिसिस विंग में कार्यरत इंदिरा गांधी के विश्वसनीय जासूसों ने चुनाव में उनकी आसान जीत का पूर्वानुमान किया था. एक अन्य संभावना यह है कि इंदिरा गांधी पाकिस्तान के उदाहरण से शर्मिन्दा महसूस कर रही थीं, जहां उन दिनों एक विरला लोकतांत्रिक शासन चल रहा था.
जब आम चुनाव 1976 के शुरुआती महीनों में तय थे, इंदिरा गांधी ने लोकसभा का कार्यकाल एक साल बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन कर दिया था. बाद में लोकसभा का कार्यकाल बारह महीने और बढ़ाकर 1978 के शुरु तक कर दिया गया था. उनके सलाहकार और विशेष रूप से उनके बेटे संजय सोचते थे कि यह व्यवस्था अनंत तक जारी रह सकती है. आज तक भी कोई निश्चित तौर पर नहीं जनता कि 1977 में उन्होंने चुनाव कराने का निर्णय क्यों लिया था. ख़ैर, उनकी पार्टी बुरी तरह से हारी, प्रधानमंत्री और संजय भी चुनाव हार गए.
वे अब सत्ता से बाहर थीं, लेकिन आपातकाल की भर्त्सना अभी भी हो रही थी.
16 नवंबर 1978 के द गार्जियन में ब्रिटेन के रेडिकल वामपन्थी ई.पी. थॉम्प्सन ने 1976-77 की सर्दियों की अपनी दिल्ली यात्रा को याद किया था. थॉम्प्सन उन ख़तों की प्रतिलिपियां लेकर आए थे, जो इंदिरा गांधी के पिता ने थॉम्प्सन के पिता ईजे थॉम्प्सन को लिखे थे. ईजे थॉम्प्सन ने मूल बंगाली से टैगोर की कृतियों को अनूदित किया था, और उनकी स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई भारतीय नेताओं से मित्रता भी रही थी.
इंदिरा गांधी ने खुद यह भेंट स्वीकार की थी, लेकिन दूसरे लोगों के साथ हुई मुलाक़ातों से थॉम्प्सन को विश्वास हो गया था कि प्रधानमंत्री और उनके बेटे संजय ने जवाहरलाल नेहरू की प्रतिष्ठा का दुरुपयोग किया था. अपने निबंध में थॉम्प्सन ने लिखा था कि अंग्रेज़ों की जेलों में कई साल गुज़ारने के बावजूद नेहरू अंग्रेज़ों का अपना दोस्त बना सकते थे: ‘इस कोटि का मनुष्य ढूंढ़ने के लिए आपको ब्रिटेन के इतिहास में बहुत दूर तक जाना पड़ेगा, ऐसा व्यक्ति जो वर्षों की कै़द भोगने के लिए तैयार हो, और जो अथक बौद्धिक जीवन्तता के साथ और बिना किसी कड़ुआहट के उस कै़द से बाहर आया हो.’
नेहरू सभ्य मनुष्य थे और उनके कार्यकाल को देखें, तो लोकतांत्रिक भी थे. आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी और संजय हिंदुस्तान के लोगों को कांग्रेस और नेहरू की आभामायी परंपरा से अपनी पीठ फेर लेने की सीख दे रहे थे.
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इंदिरा गांधी ने अक्टूबर 1976 में बर्नार्ड लेविन को पढ़ा था, और शायद दो साल बाद उन्होंने ईपी थॉम्प्सन को भी पढ़ा हो. अपने वर्ग और पीढ़ी के दूसरे हिंदुस्तानियों की तरह वे भी द टाइम्स और द गार्जियन का सम्मान करती थीं. पहला ब्रिटिश व्यवस्था को अभिव्यक्ति देता था, और दूसरा प्रगतिशील, साम्राज्यवाद-विरोधी, और सामान्यतः हिंदुस्तान-समर्थक भावनाओं का वाहक था. लेकिन इन अख़बारों की चुभती टिप्पणियां उस समस्या के समक्ष कुछ भी नहीं थी जो अक्टूबर 1981 में सहसा इंदिरा गांधी के सामने आ गई थी.
आपातकाल दूर की स्मृति बन चुका था, और उसे लागू करने वाली ढाई वर्ष तक सत्ता से बाहर रहने के बाद अपने पद पर लौट चुकी थीं.
उन दिनों इंदिरा गांधी ने ब्रिटिश मीडिया में एक समाचार देखा, या किसी ने उन्हें बताया, जिसमें दावा किया गया था कि लॉर्ड माउंटबेटन, वह वायसराय जिन्होंने अगस्त 1947 में ब्रितानी झंडे यूनियन जैक को भारत से सम्मानजनक रूप से उतार लिया था, ने 1975 और 1977 के बीच हिंदुस्तान की यात्रा करने से इसलिए मना कर दिया था क्योंकि तब यह ‘पुलिस राज’ था.
माउंटबेटन की मृत्यु 1979 में हो चुकी थी, इसलिए भारतीय प्रधानमंत्री ने अपनी शिकायत उनके दामाद लॉर्ड ब्रेबोर्न को दर्ज़ करायी. जिस ब्रिटिश परिवार के अनुमोदन की इंदिरा गांधी सबसे ज़्यादा आकांक्षा करती थीं, उस परिवार को उन्होंने लिखा,
‘आपातकाल के दौरान कुछ लोग गिरफ़्तार किए गए थे, इनमें से कुछ राजनेता थे, लेकिन बड़ी संख्या में वे लोग थे जिनको हम समाज-विरोधी तत्त्व कहते हैं – स्मगलर, डकैत, जमाखोर, काला-बाज़ारी करने वाले, जिनकी हरकतें क़ीमतों में वृद्धि कर रही थीं, चीजों की कमी पैदा कर रही थीं और आम जनता को नुकसान पहुंचाती थीं. पूरे आपातकाल के दौरान पुलिस ने एक बार भी अपनी ताक़त नहीं दिखाई थी. हमने खुद ही 1977 के चुनाव के पहले सारे राजनीतिक कै़दियों को रिहा कर दिया था. जब जनता पार्टी सत्ता में आयी, तो उसने अपराधियों को रिहा कर दिया, जिसके ऐसे ख़ौफ़नाक नतीजे सामने आए थे कि हम उनसे अभी तक उबर नहीं पाये हैं’.
जॉर्ज ऑरवेल इसे ‘न्यूस्पीक’ कहा करते थे, यानी झूठ को शिष्ट भाषा में लपेटना जो तानाशाहों का गुण है. इंदिरा गांधी की इस भाषा पर सहज पकड़ थी. 27 जून 1975 के प्रसारण में जब उन्होंने राष्ट्र के सामने पहली बार आपातकाल को न्यायोचित बताया था, उन्होंने कहा था कि ‘सेंसरशिप का उद्देश्य विश्वास के माहौल को बहाल करना है’.
उसी साल अगस्त में जब उनके सारे विरोधी जेलों में बंद थे, मौलिक अधिकार समाप्त कर दिये गए थे और मीडिया को सेंसर कर दिया गया था, उन्होंने अमेरिकी पत्रकार नॉर्मन कज़िन से अपनी अमेरिका यात्रा के दौरान कहा था कि ‘जो कुछ किया गया है वह लोकतंत्र को निरस्त नहीं, बल्कि उसकी हिफ़ाज़त करने की कोशिश है’.
इस यात्रा के दौरान टेलीविज़न पर हुई चर्चा में उन्होंने पूरे विश्वास से ऐलान किया कि ‘लोग लगभग हर दिन रिहा किए जा रहे हैं’. कुछ समय बाद उन्होंने बम्बई के एक साप्ताहिक को कहा कि ‘कोई बल-प्रयोग नहीं किया जा रहा है और…देश में कहीं भी बल-प्रयोग नहीं हो रहा है. सचाई यह है कि आपातकाल के बाद पुलिस के पास पहले के मुक़ाबले बहुत कम काम रह गया है’.
1975 के अंतिम सप्ताह में वकीलों के एक सम्मेलन को संविधान में कुछ लंबित संशोधनों के बारे में सचेत करते हुए इंदिरा गांधी ने टिप्पणी की कि ‘अगर किसी तरह के परिवर्तन की ज़रूरत पड़ी, तो यह परिवर्तन लोकतंत्र को कमतर करने के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र को और ज़्यादा अर्थपूर्ण बनाने के लिए, लोकतंत्र को क़ायम रखने के लिए, इसे और अधिक जीवन्त लोकतंत्र बनाने के लिए होगा’.
एक कायर उच्चायुक्त और उसके कर्मचारियों ने अपने बॉस के भाषण से ये सूक्तियां बड़ी सावधानी से चुनीं, जो लन्दन के एक स्टूडियो के आर्ट पेपर पर ग़ज़ब के शीर्षक के साथ छपीं और दुनिया के सामने लहराई गईं — डेमॉक्रेसी प्रिज़र्व्ड : फैक्ट्स अबाउट द इमर्जेन्सी इन इंडिया.
आपातकाल के दौरान अपने रवैये से कहीं उल्लेखनीय वह था, जो उन्होंने आपातकाल के बाद उसके बचाव में अपनाया था. यही रवैया लॉर्ड ब्रेबोर्न को लिखे उनके ख़त में दिखाई देता है. इसके साथ अक्टूबर 1984 में पब्लिकेशन डिवीज़न ऑफ द गवर्नमेंट ऑफ इंडिया द्वारा प्रकाशित इंदिरा गांधीज़ सलेक्टेड स्पीचेस एंड राइटिंग्स के तीसरे खंड पर ग़ौर करें. (संयोग से, इसी महीने में उनकी हत्या हुई थी.)
इस पुस्तक में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल के दौरान और उसके बचाव में दिये गए भाषण और साक्षात्कार पुनर्प्रकाशित हुए हैं. ज़ाहिर है कि इनके पुनर्प्रकाशन की अनुमति स्वयं इंदिरा गांधी ने दी होगी.
अंत में उस साक्षात्कार को देखें जो उन्होंने जुलाई 1978 में अमेरिकी लेखक मेरी कर्रास को दिया था. वे कहती हैं कि आपातकाल के दौरान ‘हमने विदेशी मुद्रा की निधि खड़ी की, और हम सार्वजनिक क्षेत्र में बड़ी कामयाबी हासिल करने जा रहे थे. उत्पादन बढ़ गया था और भ्रष्टाचार नीचे आ गया था, सब कुछ बहुत सहज ढंग से चल रहा था…. आपातकाल के पहले साल के दौरान (स्मगलरों के अलावा) हर कोई कह रहा था कि हमने यह पहले क्यों नहीं किया.’
मुमकिन है कि मार्च 1977 के चुनाव में बड़ी संख्या में स्मगलरों को वोट डालने का मौक़ा मिला हो.
यह उनकी पराजय की एक व्याख्या है. या शायद हम तानाशाह के शब्दों के बरक्स एक हिंदुस्तानी न्यायविद की यह टिप्पणी रख सकते हैं कि आपातकाल ‘राष्ट्रपति के साथ, मंत्रीमंडल के साथ और जनता के साथ किया गया छल था’.
मेरी दृष्टि में इंदिरा गांधी के आपातकाल पर सबसे वाजिब टिप्पणी प्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रकार एएम रोज़ेन्थाल की थी. ईपी थॉम्प्सन की तरह रोजे़न्थाल ने लोकतांत्रिक नेहरू और उनकी तानाशाह बेटी के बीच की खाई को रेखांकित किया था. जब रोज़ेन्थाल 1975 के आख़िरी महीनों में दिल्ली आए थे, उन्होंने एक चुटकुला सुना था कि बेटी के शासनकाल के दौरान पिता अभी जीवित हैं. यानी ‘इंदिरा प्रधानमंत्री निवास में हैं, और जवाहरलाल एक बार फिर उनको जेल से ख़त लिख रहे हैं’.
(यह निबंध जून 2000 में आपातकाल की पच्चीसवीं वर्षगांठ पर द हिंदू में प्रकाशित हुआ था, जो इस साल की शुरुआत में पेंगुइन स्वदेश से प्रकाशित इतिहासकार रामचंद्र गुहा के निबंध संकलन, शताब्दी के झरोखे से में संकलित है. इस लेख सहित संकलन में शामिल निबंधों का अनुवाद और संपादन आशुतोष भारद्वाज ने किया है.)