असम की एक अदालत ने सोशल मीडिया पर कथित ‘राष्ट्र-विरोधी’ पोस्ट करने के आरोपी को ज़मानत देते हुए उन्हें 21 दिनों तक सुबह तीन बार ‘जय हिंद’ कहने’ और इसे सोशल मीडिया पर पोस्ट करने का निर्देश दिया. यह आदेश न केवल ज़मानत के उद्देश्य को विफल करता है, बल्कि निष्पक्ष सुनवाई के उद्देश्य को भी कमज़ोर करता है.

असम की एक अदालत ने हाल ही में सोशल मीडिया पर कथित ‘राष्ट्र-विरोधी’ पोस्ट करने के आरोपी एक व्यक्ति को ज़मानत दी. अदालत ने अपने ज़मानत आदेश में आरोपी को ख़ास निर्देश दिए, जिसमें उन्हें ‘21 दिनों तक सुबह तीन बार ‘जय हिंद‘ कहने’ के लिए कहा. आरोपी आरिफ़ रहमान को यह भी निर्देश दिया गया है कि वह ‘जय हिंद’ कहते हुए खुद को रिकॉर्ड करे और उसका वीडियो अपने सोशल मीडिया पर शेयर करे.
22 अप्रैल को हुए पहलगाम हमले, जिसमें 26 नागरिक मारे गए थे, के बाद आरोपी को गिरफ़्तार किया गया था. शिकायत दर्ज होने के बाद आरोप लगाया गया था कि उसने एक फ़र्ज़ी फ़ेसबुक एकाउंट का इस्तेमाल करके पाकिस्तान की तारीफ़ की थी. हालांकि बाद में जब मामला सुनवाई के लिए जाएगा, तो यह अपना रास्ता खुद तय कर लेगा, लेकिन ज़मानत आदेश प्रथमदृष्टया त्रुटिपूर्ण है और प्रक्रियागत निष्पक्षता के उद्देश्य को विफल करता है.
ज़मानत का उद्देश्य
ज़मानत किसी व्यक्ति को हिरासत से रिहा करने का एक तरीका है. ज़मानत किसी व्यक्ति की बेगुनाही या दोष का निर्धारण नहीं करती, लेकिन चूंकि मुकदमे के निष्कर्ष में लंबा समय लगता है, इसलिए किसी व्यक्ति को लंबे समय तक जेल में नहीं रखा जा सकता. इसके अलावा, आपराधिक न्यायशास्त्र का एक प्रमुख सिद्धांत, ‘निर्दोषता की धारणा’ का सिद्धांत यह निर्धारित करता है कि किसी भी अपराध का आरोपी व्यक्ति तब तक निर्दोष है जब तक कि राज्य प्राधिकारियों द्वारा उसे दोषी साबित न कर दिया जाए.
इसलिए, विशेष रूप से सामान्य आपराधिक मामलों में किसी व्यक्ति के अपराध को साबित करने का भार राज्य पर होता है. ज़मानत अभियुक्त को अपने बचाव के लिए संसाधन जुटाने का भी अवसर देती है. भारत जैसे देश में, जहां आपराधिक न्याय प्रणाली व्यावहारिक रूप से चरमरा चुकी है, ज़मानत अभियुक्तों के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण हथियार बन जाती है.
आपराधिक प्रक्रिया संहिता, जो आपराधिक प्रक्रिया से संबंधित पूर्ववर्ती कानून था, ज़मानत को परिभाषित नहीं करती थी, बल्कि यह निर्धारित करती थी कि कहां ज़मानत अधिकार का विषय थी और कहां नहीं. भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस), 2023 ज़मानत को ‘किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति की कानून की गिरफ़्त से रिहाई…’ के रूप में परिभाषित करती है.
ज़मानत के लिए लगाई गई शर्तें बॉन्ड या ज़मानत बॉन्ड के रूप में हो सकती हैं. बॉन्ड, अभियुक्त द्वारा ज़मानत से जुड़ी शर्तों का पालन सुनिश्चित करने के लिए लिया गया एक व्यक्तिगत वचन है, जिसमें सुरक्षा एजेंसियों के साथ सहयोग, अदालत में पेश होना, अदालत या पुलिस को सूचित किए बिना अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर न जाना, सबूतों से छेड़छाड़ या गवाहों को प्रभावित करने की कोशिश न करना और अन्य वैध शर्तें शामिल हैं.
कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने ज़मानत की शर्तों में से एक के रूप में अभियुक्त का पासपोर्ट जमा करने के ख़िलाफ़ भी फ़ैसला सुनाया है. जैसा कि देखा जा सकता है, ये शर्तें व्यक्ति के दोषी या निर्दोष होने का प्रमाण नहीं देतीं, बल्कि केवल यह सुनिश्चित करती हैं कि वह अदालत द्वारा लगाई गई शर्तों का पालन करे.
निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करना
असम मामले जैसा ज़मानत आदेश, व्यक्ति के अपराध को पहले ही स्थापित कर देता है. यह उसे अपना पक्ष रखने और राज्य के निर्णय को चुनौती देने का अवसर नहीं देता. यह आदेश न केवल ज़मानत के उद्देश्य को विफल करता है, बल्कि निष्पक्ष सुनवाई के उद्देश्य को भी कमज़ोर करता है. ज़मानत कोई सुनवाई नहीं है जो मामले का भाग्य तय करे और अभियुक्त को सज़ा दे.
असम मामले में न्यायाधीश ने ज़मानत आदेश में ही अभियुक्त पर व्यावहारिक रूप से सज़ा लगा दी है. ज़मानत का उद्देश्य अभियुक्त को निष्पक्ष सुनवाई प्रदान करना है, न कि उसकी रिहाई पर गैरकानूनी शर्तें थोपना. कोविड-19 संकट के दौरान भारत भर की अदालतों ने अभियुक्तों पर ज़मानत की अजीबोगरीब शर्तें लगाईं, जिससे स्थापित कानूनी सिद्धांतों की अवहेलना हुई.
उदाहरण के लिए, अरविंद पटेल के मामले में अभियुक्त को एक स्थानीय अस्पताल में टेलीविजन लगाने के लिए कहा गया था. इसी तरह एक व्यक्ति को कोविड महामारी के दौरान सरकार द्वारा स्थापित पीएम-केयर्स फंड में दान करने के लिए कहा गया, बिना इस बात की परवाह किए कि यह आदेश मूल रूप से आपराधिक न्याय के सिद्धांतों को कैसे बदल देता है. हालांकि न्यायाधीशों के पास ज़मानत देने का कुछ विवेकाधिकार होता है, फिर भी ये आदेश मनमाने और दंडात्मक नहीं हो सकते.
इससे भी बड़ी बात यह है कि आपराधिक न्याय प्रणाली का दुरुपयोग विशिष्ट व्यक्तियों और व्यक्तियों के समूहों के प्रति पूर्वाग्रह और पक्षपात को जन्म देता है. जैसे ही तथाकथित ‘राष्ट्र-विरोधी’ दृष्टिकोण के विरुद्ध ‘जनभावना’ उभरती है, राजनीतिक शत्रुओं को न्यायिक प्रक्रिया में कोई राहत नहीं मिलती.
अभियुक्तों को सार्वजनिक रूप से ‘जय हिंद’ कहने के लिए मजबूर करना इस धारणा को भी पुष्ट करता है कि भारतीय मुसलमान भारत में रहने वाले अन्य समूहों की तुलना में कम देशभक्त हैं और उन्हें इसे सार्वजनिक रूप से साबित करने की ज़रूरत है.
एक ख़तरनाक मिसाल
असम मामले का ज़मानत आदेश आपराधिक न्याय प्रणाली का अपमान है और अन्य अदालतों के लिए एक ख़तरनाक मिसाल कायम करता है. यह असम की वर्तमान राजनीति को बढ़ावा देता है और भारत के संविधान की नैतिक कल्पना का अपमान करता है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्याय में निष्पक्षता के लिए प्रतिबद्ध है.
राकेश कुमार पॉल बनाम असम राज्य और कई अन्य मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ज़मानत की शर्तें और नियम उचित होने चाहिए. इससे भी अधिक असामान्य बात यह है कि ये शर्तें किसी कानून या प्राधिकार द्वारा समर्थित नहीं हैं और न्यायाधीश की इच्छा पर थोपी गई हैं. निष्कर्षतः, असम अदालत का जमानत आदेश प्रगतिशील जमानत न्यायशास्त्र और निष्पक्ष सुनवाई के संवैधानिक सिद्धांत की अवहेलना के कारण समस्याग्रस्त है.
(औरिफ मुज़फ़्फ़र कश्मीर स्थित एक वकील और कानूनी शोधकर्ता हैं)