क्या यह कहना वाजिब होगा कि शिक्षा के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बदलने की जो कोशिशें हाल में परवान चढ़ी हैं, उसे चुनौती देते हुए कुछ अध्यापक प्रतिरोध का व्याकरण विकसित कर रहे हैं?
ज्ञान का दीपक जलाने’ की बात करने पर एफआईआर

बरेली के शिक्षक रजनीश गंगवार के खिलाफ दायर एफआईआर को ही देखें. वह छात्रों को ‘ज्ञान का दीपक जलाने’ की सलाह देते हैं, उन्हें अपना स्वरचित गाना सुना रहे हैं कि बच्चे कांवड़ उठाकर न चल दें बल्कि ‘ज्ञान का दीपक जलाने’ की कोशिश करें.
यह कांवड़ यात्रा का समय है. उत्तर प्रदेश, बिहार और आसपास के इलाकों में हाल के दशकों में इस परिघटना ने काफी जोर पकड़ा है. शिव के भक्त हरिद्वार, गौमुख और गंगोत्री आदि स्थानों पर जाकर गंगा का जल लाते हैं जिसे वह लौटकर अपने गांव या आसपास के शिव मंदिर में चढ़ाते हैं.
विगत एक दशक से इस यात्रा को मिल रहे सरकारी संरक्षण में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है. उत्तर प्रदेश पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी इन कांवड़ियों पर हेलिकाॅप्टर से पुष्पवर्षा करते दिखते हैं. कुछ स्थानों पर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ उन पर पुष्पवर्षा करते दिखाई दिए हैं.
अभी पिछले ही साल फारेस्ट सर्वे आफ इंडिया ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को यह रिपोर्ट पेश की थी कि किस तरह ‘कांवड़ यात्रा के लिए एक नया रास्ता तैयार करने के नाम पर उत्तर प्रदेश में हजारों पेड़ ‘बिना नियम’ और ‘बिना सहमति लिए’ काटे गए. यह बात विश्वास से परे लग रही थी कि गाज़ियाबाद, मेरठ और मुजफफरनगर जिलों में 17,607 पेड़ इस तरह काटे गए, जैसा कि इस बारे में उत्तर प्रदेश सरकार के सार्वजनिक निर्माण विभाग ने आंकड़े पेश किए.
अगर हम शिक्षक द्वारा स्कूल में गाए गए गीत की ओर लौटें, तो इस गाने में ऐसी कोई भी बात नहीं जो ‘विभाजनकारी’ या ‘भड़काऊ’ लगे और न ही इसके चलते समुदायों के बीच आपसी दुर्भावना पैदा होने का ख़तरा है. अगर हम इस गीत को ध्यान से सुनें तो पता चलता है कि यह कविता संविधान द्वारा हर नागरिक के प्रदत्त कर्तव्यों की तरफ ही ध्यान दिला रही है कि उसे वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देना होगा और अंधश्रद्धा का विरोध करना होगा.
अगर सत्ताधारी पार्टी के अति-उत्साही कार्यकर्ताओं ने इस कविता को लेकर इतनी उग्र प्रतिक्रिया नहीं दी होती तो गाना भुला दिया जाता. इस कविता को लेकर अध्यापक पर दायर मुकदमा अदालत में टिकना मुश्किल है.
एक ऐसे वातावरण में जब सार्वजनिक जीवन में बहुसंख्यकों के धर्म को वरीयता देने या उसे वैधता प्रदान करने का सिलसिला तेज हो रहा है, छात्रों को ‘ज्ञान का दीपक जलाने’ की सलाह देना, उन्हें धार्मिक रस्मों से सचेत दूरी रखते हुए अपने अध्ययन पर फोकस करने की बात कहना, पुस्तकालयों में जाकर ज्ञान अर्जित करने की बात कहना, अत्यंत महत्वपूर्ण है.
सरकार की कुविचारित नीतियों के खिलाफ़, धर्मविशेष को बढ़ावा देने के प्रति यह एक अहिंसक प्रतिरोध है. यह इस बात का भी सूचक है कि सत्ता में बैठे लोग धर्म और राजनीति, धर्म और समाज का घालमेल कर रहे हैं, जो शिक्षा के हिसाब से प्रतिकूल है.
सरकारी स्कूलों में रोज गीता के श्लोक का वाचन!
इसी तरह उत्तराखंड में अध्यापकों के एक समूह ने सरकार के इस निर्णय का विरोध किया है कि सरकारी स्कूलों के प्रार्थना सत्र में गीता का एक श्लोक को अनिवार्य किया जाए, उन्होंने पुष्कर धामी सरकार के इस आदेश को ‘संविधान विरोधी फरमान’ बताया है.
अनुसूचित जाति-जनजाति शिक्षक संगठन के अध्यक्ष इस बात को लेकर स्पष्ट थे कि सरकारी स्कूलों में क्या पढ़ाया जाना चाहिए और क्या नहीं? पत्रकारों से वार्तालाप करते हुए अध्यक्ष संजय कुमार टम्टा ने कुछ अहम बातें रखीं:
एक, गीता एक धार्मिक ग्रंथ है और स्कूल में धर्म की शिक्षा देना संविधान की धारा 28 /1/ का सरासर उल्लंघन है.
दो, सरकारी स्कूलों में अलग-अलग धर्मों से जुड़े विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करते हैं और यह गैरवाजिब होगा कि उन्हें एक खास धर्म के पाठ को सुनने के लिए मजबूर किया जाए.
तीन, एसोसिएशन ने इस संबंध में अपनी मांग शिक्षा विभाग को पहले ही लिखकर भेजी है कि सरकार इस आदेश को तत्काल वापस ले.
चार, अगर सरकार इस आदेश को वापस नहीं लेती तो वह इस बात के लिए तैयार हैं कि वह अदालत का दरवाजा खटखटाएं और उसे बताए कि सरकारी स्कूलों में संविधान का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन हो रहा है. वह इस मसले पर जनता के बीच भी जागृति फैलाएंगे.
शिक्षा महकमे के अधिकारियों के मुताबिक, यह आदेश मुख्यमंत्री के निर्देश पर जारी किया गया है कि अध्यापकों को श्लोक की व्याख्या छात्रों के सामने करें और यह सुनिश्चित करें कि यह शिक्षा ‘छात्रों के जीवन एवं व्यवहार में भी प्रतिबिंबित हो.’
एक धर्मनिरपेक्ष संविधान के तहत कार्यरत राज्य सरकार आखिर कैसे अपेक्षा कर रही है कि एक खास धार्मिक नज़रिया अलग-अलग धर्मों से, यहां तक कि नास्तिक तथा निरीश्वरवादी परिवारों से आते छात्रों के जीवन को ‘गढ़ने में मदद करे.’
मध्ययुग में धर्म मनुष्य के लौकिक एवं पारलौकिक जीवन को प्रभावित/संचालित करता था. आधुनिक युग में ऐसे पैमाने को किसी भी सूरत में वैधता नहीं मिलनी चाहिए.
भारतीय ज्ञान प्रणाली के आवरण में धार्मिक शिक्षा
यह बात भी चिंताजनक है कि शिक्षा में बहुसंख्यक धर्म से संबंधित धार्मिक ग्रंथों की इस घुसपैठ को राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के तहत पारंपरिक भारतीय ज्ञान प्रणाली के हिस्से के तौर पर आगे बढ़ाया जा रहा है. इस बात को समझने के लिए बड़े विवेक की आवश्यकता नहीं है कि भारत का संविधान भारत के नागरिकों से जिस बात की अपेक्षा करता है, जिस तरह सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा को प्रतिबंधित करता है, उसको कमजोर करने के लिए ही इस आवरण का इस्तेमाल किया जा रहा है.
पारंपरिक ज्ञान प्रणाली की शिक्षा ही देनी हो तो भारत के विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों – नास्तिक, बौद्ध, सांख्य, वैशेषिक- आदि की बातें भी शामिल की जा सकती है, आर्यभट्ट ने किस तरह कोपरनिकस से एक हजार साल पहले पृथ्वी द्वारा सूर्य की की जा रही परिक्रमा पर की गई बातों को शामिल किया जा सकता था, इसके बजाय बहुसंख्यक धार्मिक ग्रंथ के अंश को शामिल करना एक चालाकी मात्र है.
गौरतलब है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में दक्षिणपंथी हुुकूमतों के आगमन के बाद ही इसी किस्म के प्रतिक्रियावादी कदमों की गोया बाढ़-सी आ गई है. अमेरिका जैसे दुनिया के सबसे ताकतवर मुल्क की स्कूलों में किस तरह मानवविकास के डार्विन के वैज्ञानिक सिद्धांत के प्रतिकूल ‘क्रिएशनिजम’ की सैद्धांतिकी लोकप्रिय हो रही है, वह इसी बात की मिसाल है.
निस्संदेह तीसरी दुनिया के मुल्क ऐसे हमलों का अधिक शिकार होंगे. पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान के जानेमाने भौतिकीविद् और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रोफेसर परवेज हुदभाॅय अपने लेखन के माध्यम से पाकिस्तानी शिक्षा की लगातार हो रही दुर्गति के बारे में लिखते रहते हैं कि किस तरह वहां की शिक्ष मिलिट्री-मुल्ला संश्रय द्वारा गढ़ी जा रही है और किस तरह उसने पाकिस्तानी विश्वविद्यालयों को ‘प्रबोधन के चिराग, नए चिंतन और खोज के केंद्रों’ के बजाय ‘ भेड़ों के चरागाहों’ में तब्दील कर दिया है.
आज़ादी के वक्त़ प्रचंड संभावनाओं से भरपूर भारत ने जवाहरलाल नेहरू की अगुआई में वैज्ञानिक चिंतन की हिमायत की थी, संविधान में यह शामिल किया था कि हर नागरिक का कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा दे. आज जबकि हिंदुत्व वर्चस्ववादी ताकतों का बोलबाला बढ़ा है, उस पुरानी भावना को कैसे आगे बढ़ा जाये, यही सबसे बड़ा सवाल है.
(सुभाष गाताडे वामपंथी कार्यकर्ता, लेखक और अनुवादक हैं.)