जस्टिस वर्मा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने इन-हाउस कमेटी की रिपोर्ट मांगी, 30 जुलाई को अगली सुनवाई

जस्टिस यशवंत वर्मा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इन-हाउस जांच समिति की रिपोर्ट को चुनौती दी है, जिसमें उन्हें ‘मिसकंडक्ट’ का दोषी बताया गया था. वर्मा ने इसे संविधान विरोधी और समानांतर प्रक्रिया बताया है. इस मामले में संसद में महाभियोग प्रस्ताव और सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई दोनों चल रहे हैं.

नई दिल्ली: सोमवार (28 जुलाई, 2025) को सुप्रीम कोर्ट की जस्टिस दीपांकर दत्ता और ए.जी. मशी की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा की उस याचिका पर सुनवाई शुरू की, जिसमें उन्होंने एक इन-हाउस जांच समिति की रिपोर्ट को अमान्य ठहराने की मांग की है. इस रिपोर्ट में उन्हें नकदी बरामदगी प्रकरण में मिसकन्डक्ट का दोषी पाया गया है.

यह याचिका इन-हाउस जांच प्रक्रिया और उस प्रक्रिया के बाद दिए गए तत्कालीन भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) संजीव खन्ना द्वारा जस्टिस वर्मा को पद से हटाने की अनुशंसा को चुनौती देती है. यह अनुशंसा उस आरोप से जुड़ी है जिसमें कहा गया था कि 14-15 मार्च की रात को दिल्ली स्थित जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास से आधी जली हुई करेंसी (मुद्रा) बरामद हुई थी.

वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल के नेतृत्व में वकीलों की टीम जस्टिस वर्मा का प्रतिनिधित्व कर रही है.

कोर्ट में क्या हुआ?



सोमवार को इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा की याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस दीपांकर दत्ता ने वकीलों से कहा, ‘यह याचिका इतनी हल्के में दाखिल नहीं की जानी चाहिए थी.’

याचिका की पैरवी करते हुए कपिल सिब्बल ने कहा, ‘लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा में एक प्रस्ताव दाखिल किया जाता है. फिर ‘जजेज़ इंक्वायरी एक्ट’ के तहत जांच समिति का गठन होता है और तब तक की पूरी प्रक्रिया निलंबित रहती है. इस दौरान जज के आचरण पर चर्चा नहीं की जा सकती. लेकिन इस मामले में एक टेप जारी किया गया. पूरा देश उस पर चर्चा करने लगा. जज ने यह कहा कि वह नकदी उनकी नहीं है, लेकिन उनकी सफाई का कहीं कोई ज़िक्र नहीं किया गया.’

सिब्बल की दलील सुन जस्टिस दत्ता ने उनसे पूछा, ‘जांच समिति की रिपोर्ट कहां है? …अगर आप इस रिपोर्ट पर दलील देना चाहते हैं, तो यह याचिका का हिस्सा होनी चाहिए.’

इस पर कपिल सिब्बल ने कहा कि रिपोर्ट सार्वजनिक डोमेन में आ चुकी है, तो जस्टिस दत्ता ने जवाब दिया, ‘इसे रिकॉर्ड में लाइए.’

सिब्बल की दलील

कपिल सिब्बल ने अदालत को संविधान के अनुच्छेद 124 में दिए गए न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया के बारे में बताया.

उन्होंने कहा, ‘अनुच्छेद 124(4) में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया दी गई है, जिसमें संसद के दोनों सदनों द्वारा राष्ट्रपति को प्रस्ताव भेजा जाता है. यह प्रस्ताव दोनों सदनों के कुल सदस्यों के बहुमत और उपस्थित व मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित होना चाहिए. यह प्रस्ताव उसी सत्र (सेशन) में प्रस्तुत किया जाना चाहिए, और हटाने का आधार ‘मिसकंडक्ट’ या ‘असमर्थता’ होना चाहिए.’

कपिल सिब्बल ने आगे कहा कि संविधान का अनुच्छेद 217(1)(b) हाई कोर्ट के न्यायाधीश को हटाने से संबंधित है, और इसमें वही प्रक्रिया अपनाई जाती है जो अनुच्छेद 124(4) में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के लिए निर्धारित की गई है.

कपिल सिब्बल ने दलील दी कि, ‘जजेस इंक्वायरी एक्ट, स्पष्ट रूप से बताता है कि संविधानिक अदालत के किसी मौजूदा न्यायाधीश के खिलाफ जांच कैसे की जानी है. ऐसे मामलों में बेहद सावधानी और संयम बरतना ज़रूरी होता है, जब किसी न्यायाधीश के आचरण पर चर्चा की जाए. केवल तब ही न्यायाधीश के आचरण पर सार्वजनिक या संस्थागत चर्चा की जा सकती है, जब जजेस इंक्वायरी एक्ट के तहत गठित जांच समिति यह रिपोर्ट दे कि मिसकंडक्ट साबित हो चुका है.’

जस्टिस वर्मा की ओर से दलील पेश करते हुए कपिल सिब्बल ने कहा, ‘जो कुछ भी हुआ है, वह पूरी तरह से संविधानिक ढांचे के खिलाफ है — टेप को जारी करना, उसे सार्वजनिक डोमेन में डालना, जांच की कथित रिपोर्ट पर चर्चा करना और खुद न्यायाधीश पर चर्चा करना.’

कोर्ट के सवाल

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दत्ता ने पूछा, ‘क्या जस्टिस वर्मा तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) द्वारा गठित फैक्ट-फाइंडिंग कमेटी के सामने पेश हुए थे?’

उन्होंने आगे सवाल किया, ‘क्या वो इस उम्मीद में पेश हुए थे कि रिपोर्ट उनके पक्ष में जाएगी? अगर उन्हें आपत्ति थी, तो उसी समय सीधे सुप्रीम कोर्ट क्यों नहीं आए?’

जब सिब्बल ने कहा कि फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट का न्यायिक जांच में कोई सबूत के रूप में महत्व नहीं है, तो जस्टिस दत्ता ने पलटकर पूछा, ‘अगर वह रिपोर्ट कोई कानूनी महत्व नहीं रखती, तो फिर आप इससे परेशान क्यों हैं?’

जस्टिस दत्ता ने यह भी सवाल उठाया, ‘अगर यह रिपोर्ट राष्ट्रपति को भेजी गई, जो न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं, तो इसे अवैध कैसे कहा जा सकता है?’
कोर्ट ने कपिल सिब्बल से कहा कि फैक्ट-फाइंडिंग कमेटी की रिपोर्ट को आधिकारिक रिकॉर्ड पर रखें, इसके बाद सुनवाई स्थगित कर दी गई. अब इस मामले की अगली सुनवाई बुधवार, 30 जुलाई 2025 को होगी.

एक कमेटी बनाने की तैयारी में लोकसभा

इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, जस्टिस यशवंत वर्मा को हटाने की प्रक्रिया जल्द ही लोकसभा में शुरू होने वाली है. ऐसी संभावना है कि स्पीकर ओम बिड़ला जल्द ही एक वैधानिक समिति के गठन की घोषणा कर सकते हैं, जो यह जांच करेगी कि न्यायाधीश को हटाने की मांग किन आधारों पर की जा रही है.

गत बुधवार को ओम बिड़ला और राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश ने लोकसभा और राज्यसभा के महासचिवों के साथ मुलाकात कर इस प्रक्रिया को अंतिम रूप देने के लिए आवश्यक औपचारिकताओं पर चर्चा की थी. इस बैठक में बाद में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी शामिल हुए थे.

दिलचस्प है कि यह चर्चा उसी दिन हुई, जिस रोज सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह एक पीठ गठित करेगा जो न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा की उस याचिका पर सुनवाई करेगी, जिसमें उन्होंने उस इन-हाउस जांच समिति की कानूनी वैधता को चुनौती दी है.

26 जुलाई को कांग्रेस मुख्यालय में आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में पार्टी सांसद और प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि सरकार संसद के दोनों सदनों में प्रस्तावों को लेकर समिति गठित न करने के नाम पर जो ‘उलझन’ पैदा कर रही है, वह ‘या तो जानबूझकर, या कम से कम अनजाने में, जस्टिस वर्मा द्वारा दायर कानूनी चुनौती को एक और आधार या बहाना दे रही है, जिसे वह उठाने के हक़दार हैं.’

सिंघवी ने कहा कि 21 जुलाई को कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने राज्यसभा में जस्टिस वर्मा के ख़िलाफ़ एक संवैधानिक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें क़ानून के अनुसार एक वैधानिक जांच समिति (स्टैच्यूटरी इंक्वायरी कमिटी) गठित करने की मांग की गई थी. उन्होंने बताया कि विपक्षी प्रस्ताव पर अलग-अलग दलों के कुल 63 राज्यसभा सांसदों ने हस्ताक्षर किए थे. इसके अलावा, एक अन्य प्रस्ताव पर लोकसभा के 152 सांसदों के भी हस्ताक्षर थे, और ये सभी भी विभिन्न दलों से थे.

उन्होंने आगे कहा कि संसद द्वारा बनाए गए क़ानून के मुताबिक़ अगर दोनों सदनों में प्रस्ताव पेश होते हैं, तो दोनों को मिलाकर एक संयुक्त वैधानिक समिति बनानी होती है. सिंघवी ने कहा कि जो भी व्यक्ति संसदीय प्रक्रिया से परिचित है, उसे इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता कि उस दिन उपराष्ट्रपति धानखड़ का इरादा प्रस्ताव को सदन की संपत्ति घोषित करने और लोकसभा के साथ मिलकर आगे बढ़ने का था.

‘आज जो कुछ भी नाटक किया जा रहा है, वह किस लिए है? मोदी सरकार घबराई हुई है, क्योंकि वह नैरेटिव पर नियंत्रण नहीं रख पा रही है.’ सिंधवी ने कहा.

तो क्या विपक्ष एकजुटे है?

इस मामले को लेकर विपक्ष में भी मतभेद दिखाई दे रहे हैं. समाजवादी पार्टी ने ने स्पष्ट किया है कि वे केवल जस्टिस वर्मा के खिलाफ मोसन का समर्थन नहीं करेंगे जब तक कि जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं होती. ध्यान रहे कोर्ट में जस्टिस वर्मा की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल समाजवादी पार्टी के कोटे से ही राज्यसभा सांसद हैं.

दूसरी कांग्रेस भी इस तरह के सवाल उठा रही है. कांग्रेस के प्रेस कॉन्फ्रेंस में अभिषेक मनु सिंघवी ने आरोप लगाया था कि सरकार न्यायिक जवाबदेही को लेकर दोहरा रवैया अपना रही है.

उन्होंने कहा था, ‘सरकार जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ कार्रवाई कर रही है लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस शेखर यादव के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा रही, जिन पर पिछले साल दिसंबर में विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) के एक कार्यक्रम में कथित रूप से नफरत भरा भाषण देने का आरोप है.’
सरकार का क्या कहना है?

18 जुलाई को पीटीआई को दिए एक इंटरव्यू क़ानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने कहा था कि जस्टिस यशवंत वर्मा को हटाने का प्रस्ताव सरकार से नहीं, बल्कि संसद और सांसदों से जुड़ा मामला है.

उन्होंने यह बयान उस दिन दिया, जब जस्टिस वर्मा ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना द्वारा गठित इन-हाउस जांच समिति की रिपोर्ट के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.

मंत्री ने कहा, ‘अगर जस्टिस वर्मा को रिपोर्ट से असहमति है और वे सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट जाते हैं, तो यह उनका अधिकार है.’ साथ ही उन्होंने यह भी दोहराया कि संसद को सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट के किसी जज को हटाने का अधिकार है.

उन्होंने कहा कि लोकसभा में कम से कम 100 और राज्यसभा में 50 सांसदों के समर्थन की ज़रूरत होती है किसी जज के महाभियोग प्रस्ताव को लाने के लिए.

संसद की वैधानिक समिति क्या करेगी?

लोकसभा स्पीकर ओम बिड़ला, जिस वैधानिक समिति के गठन की घोषणा करने वाले हैं, उसमें सुप्रीम कोर्ट के एक जज, हाईकार्ट के एक जज और एक प्रतिष्ठित न्यायविद् होंगे.

यह कमेटी जस्टिस वर्मा के खिलाफ आरोपों की जांच करके लोकसभा स्पीकर को रिपोर्ट सौंपेगी. यदि कमेटी उन्हें दोषी पाती है, तो मोसन को लोकसभा में रखा जाएगा और विस्तृत चर्चा के बाद वोटिंग होगी. इसके लिए दो-तिहाई बहुमत चाहिए होगी. इसी प्रक्रिया को राज्यसभा में भी दोहराना होगा.

इन-हाउस जांच समिति से जस्टिस वर्मा को क्या आपत्ति है?

14 मार्च को जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने और कथित तौर पर नकदी मिलने की घटना के बाद, 22 मार्च को मुख्य न्यायाधीश द्वारा तीन सदस्यीय इन-हाउस समिति गठित की गई थी, जिसमें पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस शील नागू, हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट के सीजे जी.एस. संधावालिया और कर्नाटक हाईकोर्ट की जज अनु शिवरामन शामिल थे. समिति ने 10 दिन तक जांच की, 55 गवाहों से पूछताछ की और उस घटनास्थल का दौरा किया जहां 14 मार्च की रात लगभग 11:35 बजे आग लगी थी.

समिति ने अपनी रिपोर्ट में जस्टिस वर्मा को ‘कैश मिलने के मामले’ में मिसकंडक्ट का दोषी पाया था. इस रिपोर्ट के आधार पर, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखकर जस्टिस वर्मा के खिलाफ महाभियोग की सिफारिश की थी.

लेकिन जस्टिस वर्मा ने उस इन-हाउस जांच प्रक्रिया को ‘एक समानांतर, गैर-संवैधानिक व्यवस्था’ बताया है.

जस्टिस वर्मा ने समिति की रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए जो याचिका दायर की है, उसमें कहा है, ‘मुख्य रूप से, इन-हाउस प्रक्रिया, जिसे 1999 में पूर्ण पीठ के प्रस्ताव के ज़रिए न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायतों को संभालने और न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए जनता का विश्वास बनाए रखने के लिए अपनाया गया था, अपने नियत आत्म-नियमन और तथ्य-जांच के दायरे से अनुचित रूप से आगे निकल गई है.’

‘यह प्रक्रिया जब किसी न्यायाधीश को संवैधानिक पद से हटाने की सिफारिशों तक पहुंचती है, तो यह एक समानांतर, गैर-संवैधानिक प्रणाली बना देती है, जो संविधान के अनुच्छेद 124 और 218 के अनिवार्य ढांचे को कमजोर करती है. ये अनुच्छेद स्पष्ट रूप से उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने का अधिकार केवल संसद को सौंपते हैं—जो विशेष बहुमत से संबोधन और न्यायाधीश (जांच) अधिनियम, 1968 के तहत जांच के बाद ही किया जा सकता है.’

याचिका में कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपनाई गई प्रशासनिक या आत्म-नियामक प्रक्रियाएं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के संवैधानिक रूप से संरक्षित कार्यकाल को नजरअंदाज़ या दरकिनार नहीं कर सकतीं, और न ही इससे माननीय मुख्य न्यायाधीश को यह असीमित अधिकार मिल सकता है कि वे उच्च न्यायालयों या स्वयं सुप्रीम कोर्ट के अन्य न्यायाधीशों के भविष्य का निर्णयकर्ता बनें.
इस याचिका में सुप्रीम कोर्ट द्वारा उस कथित वीडियो को सार्वजनिक करने के फ़ैसले पर भी सवाल उठाए गए हैं, जिसमें उनके आवास पर जली हुई नकदी की गड्डियां दिखाई गई थीं. याचिका में इसे ‘पहली नजर में असंतुलित और कानून का उल्लंघन करने वाला’ बताया गया है. याचिकाकर्ता ने कहा कि इस खुलासे ने मीडिया ट्रायल को जन्म दिया, जबकि सुप्रीम कोर्ट खुद अपने फैसलों में इस पर रोक लगा चुका है.

याचिका में कहा गया, ’22 मार्च 2025 को इस माननीय न्यायालय द्वारा प्रेस विज्ञप्ति के ज़रिए इन अपुष्ट आरोपों का अभूतपूर्व रूप से सार्वजनिक किया जाना, याचिकाकर्ता को मीडिया ट्रायल का शिकार बना गया, जिससे उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा और न्यायिक अधिकारी के रूप में उनके करियर को अपूरणीय क्षति पहुंची.’