“आज़ादी के 79वें पड़ाव पर भारत की रुकी हुई कसौटियाँ”
बलराम पांडेय, पत्रकार
79 वर्ष पहले जो तिरंगा लाल किले पर फहराया गया था, उसने सिर्फ भारत की आज़ादी नहीं बल्कि एक सपने की शुरुआत का एलान किया था। आज जब हम स्वतंत्रता के 79वें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, तब सवाल यह है कि क्या वह सपना पूरा हुआ?
निश्चित तौर पर भारत ने तकनीक, अंतरिक्ष, रक्षा, सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्रों में बड़ी छलांग लगाई है। हम पाँचवीं से तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की दहलीज़ पर खड़े हैं। गाँव-गाँव तक बिजली पहुँची, सड़कों का जाल बिछा और मोबाइल क्रांति ने जन-संचार की परिभाषा बदल दी।

लेकिन आज़ादी का असली मतलब सिर्फ भौतिक तरक्की नहीं है। समान अवसर, न्याय, जन-जागरूकता और लोकतांत्रिक चेतना आज भी कमजोर कड़ी बने हुए हैं। स्वास्थ्य सुविधाएँ अभी भी दूरस्थ इलाकों में दम तोड़ती हैं, सरकारी स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई कम और खानापूरी ज़्यादा होती है। युवाओं में नशे की बढ़ती लत और रोजगार की कमी चिंता बढ़ाती है। किसान सम्मान निधि लेने के बाद भी कर्ज़ों के नीचे दबे हैं। नारी सुरक्षा, भ्रष्टाचार और जातिगत विद्वेष अब भी हमारे समाज को खोखला कर रहे हैं।
इस अमृतकाल में आवश्यकता है कि आज़ादी का जश्न सिर्फ ‘फील-गुड’ उत्सव बनकर ना रह जाए, बल्कि एक जन-जागरण अभियान बने। सरकारों को चाहिए कि शिक्षा, स्वास्थ्य और कृषि पर प्राथमिकता से फोकस करें। युवाओं को रोजगार के अवसर एवं कौशल प्रशिक्षण दिया जाए। गाँवों को डिजिटल और समृद्ध बनाने के साथ-साथ ईमानदार प्रशासनिक व्यवस्था सुनिश्चित की जाए।
अगर आज हम इन वास्तविक चुनौतियों को स्वीकारते हुए उनके समाधान की दिशा में कदम बढ़ाते हैं, तभी 100वें वर्ष पर भारत को “विकसित राष्ट्र” कहते हुए गर्व महसूस कर पाएँगे। वरना ध्वज तो हर साल फहराए जाएँगे, लेकिन आज़ादी का मकसद अधूरा ही रहेगा।
जय हिंद!
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