बम्बई ट्रेन धमाकों के बाद गिरफ़्तार हुए मुसलमान युवक की कथा: ‘पुलिस की यातना आजीवन याद रहेगी’

उस पत्नी के बारे में सोचिए जो अपने पति के लौटने का 19 साल तक इंतज़ार करती है. उस बेटी के बारे में सोचिए जो अपने पिता के जेल जाने के बाद पैदा हुई. उसने कभी अपने पिता का चेहरा नहीं देखा. वह पढ़ाई करके डॉक्टर या इंजीनियर बन सकती थी. लेकिन उसके पिता के जेल में होने के कारण, यह संभव नहीं था.

अब्दुल वाहिद शेख़

11 जुलाई, 2006 को मुंबई ट्रेन बम धमाकों के तुरंत बाद मुझे गिरफ़्तार नहीं किया गया था. वे आतंकी धमाके बहुत ही भयावह थे. व्यस्त समय में सात अलग-अलग लोकल ट्रेनों के भीड़-भाड़ वाले डिब्बों में, सात मिनट के अंतराल में बम विस्फोट हुए. 200 से ज़्यादा लोग मारे गए और 700 से ज़्यादा घायल हुए.

ट्रेन में हुए आतंकी धमाकों के इसी अपराध के लिए हममें से 13 लोगों पर आरोप लगाए गए, प्रताड़ित किया गया और जेल में डाल दिया गया. हममें से एक की जेल में मौत हो गई, मैं 9 साल बाद रिहा हुआ, बाक़ी 12 अब 2025 में बरी हुए. 19 साल बाद वे जेल से बाहर आए. पांच लोग दस साल से मौत की सज़ा काट रहे थे. अब बॉम्बे हाईकोर्ट ने फ़ैसला सुनाया है कि हम सभी निर्दोष हैं.

ट्रेन धमाकों के तुरंत बाद मेरी औपचारिक गिरफ़्तारी नहीं हुई थी. तीन महीने बाद, सितंबर में मुझे गिरफ़्तार किया गया. मेरे ख़िलाफ़ 2001 में सिमी आतंकवाद का एक पुराना मामला दर्ज था, जो झूठा साबित हुआ और मुझे बरी कर दिया गया. पुलिस ने इसका और इस तरह के अन्य मामलों का इस्तेमाल करके हम सभी 13 लोगों पर आरोप लगाए.

हम पर इस आतंकी अपराध का आरोप क्यों लगाया गया? हम सब मुसलमान थे, हम सब भारतीय थे, हम सब संविधान में आस्था रखने वाले लोग थे. बॉम्बे आतंकी धमाकों का आरोप लगने से पहले, हम सब अलग-अलग तरीक़े से अपनी आजीविका की व्यवस्था कर रहे थे.

मैं एक शिक्षक था, एक अस्पताल में काम करता था, एक खाने-पीने और सब्ज़ियों का व्यवसाय करता था, एक मोबाइल रिपेयर की दुकान चलाता था. (यह आदमी, जो मोबाइल रिपेयर करता था, आज 19 साल बाद एंड्रॉइड मोबाइल चलाना नहीं जानता. वह मुझसे पूछता है, मैं व्हाट्सएप मैसेज या ईमेल मैसेज कैसे भेजूँ). हममें से ज़्यादातर शादीशुदा और बाल बच्चे वाले थे.

पुलिस की चेतावनी

हमारी औपचारिक गिरफ़्तारी से तीन महीने पहले, पुलिस हमें बुलाती थी, और कभी-कभी कई दिनों तक हमें अवैध रूप से हिरासत में रखती थी. हर बार वे हमें पीटते थे. पुलिस ने हमें और हमारे परिवारों को चेतावनी दी थी – मीडिया या अदालतों में शिकायत मत करना. सबसे दूर रहो. अगर तुम इन नियमों को तोड़ोगे, तो हम तुम पर इस ट्रेन ब्लास्ट के आतंकी अपराध का आरोप लगा देंगे.

इन धमकियों के कारण, हम चुप रहे, और हमारे परिवार भी चुप रहे. हमने अपना दिल बड़ा रखा, और जांच में सहयोग करने का संकल्प लिया. हमने पुलिस द्वारा अपनी अवैध हिरासत और पिटाई को स्वीकार किया और सहन किया. जब पुलिस को सच्चाई पता चलेगी, तो वे हमें रिहा कर देंगे, और हमारी पीड़ा समाप्त हो जाएगी. हमारा विश्वास अब भी क़ायम था. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

हालांकि, जांच के बाद पुलिस जानती थी कि हम निर्दोष हैं, फिर भी जब असली अपराधी नहीं मिले, तो उन्होंने हम पर ही आतंकी अपराध का आरोप लगा दिया. सच तो यह है कि पुलिस असली अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रही है. न तब, न अब, 19 साल बाद भी. इसलिए उन्होंने सोचा चलो इन लोगों को इस अपराध में फंसा देते हैं. सिमी मामले में उनके ऊपर पहले ही आतंकी अपराध का आरोप लगा है (भले ही वे निर्दोष पाए गए हों). वे धर्म को मानने वाले मुसलमान हैं. वे दाढ़ी रखते हैं और टोपी पहनते हैं.

हम उन्हें ट्रेन में हुए भीषण बम धमाकों के दोषी के रूप में पेश करेंगे. मीडिया ख़ुश होगा, धमाकों में मारे गए लोगों के परिवार संतुष्ट होंगे, जनता का तुष्टीकरण होगा. उन्होंने घोषणा की कि हम लश्कर-ए-तैयबा, आईएसआई, अल-क़ायदा से जुड़े हैं. वे यह कहते हुए अल-क़ायदा की नियमावली को बार-बार दिखाते रहे कि इसमें दोषियों को यह सिखाया जाता है कि वे पुलिस पर उन्हें प्रताड़ित करने का झूठा आरोप लगाएं.
दो चरणों में हमें यातनाएं दी गईं. पहला चरण हमारी अवैध हिरासत के दौरान था. मैंने आपको बताया था कि यह तीन महीनों तक रुक-रुककर चलता रहा, इस दौरान हमारे साथ मारपीट की गई. फिर शुरू हुई हमारी क़ानूनी पुलिस हिरासत.

पुलिस ने बड़ी चालाकी से पहले सात ट्रेनों में हुए हर बम विस्फोट के लिए सात अलग-अलग एफ़आईआर दर्ज की. मजिस्ट्रेट को बताया गया कि कोई बड़ी साज़िश नहीं थी, मानो अलग-अलग समूहों ने सात ट्रेनों में हुए सातों विस्फोटों को स्वतंत्र रूप से अंजाम दिया हो. इसलिए, हर एफ़आईआर के लिए उन्होंने 15 दिन की पुलिस हिरासत की मांग की. जब 15 दिन पूरे हो जाते, तो वे अगली एफ़आईआर के लिए फिर से पुलिस हिरासत की मांग करते.

यह सात एफ़आईआर तक चलता रहा. जब सभी सात एफ़आईआर पूरे हो गए, तो पुलिस ने दावा किया कि उन्होंने सभी सातों ट्रेन विस्फोटों से जुड़ी एक बड़ी आतंकी साज़िश का पता लगा लिया है. अब मामला महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) के कठोर क़ानून के तहत लाया गया, और मजिस्ट्रेट ने 30 दिन की और पुलिस रिमांड दे दी. इस तरह हमें 80 से 90 दिन की पुलिस रिमांड में रहना पड़ा.

पुलिस के यातना देने के तरीके

मैं अक्सर सोचता हूं कि पुलिस के पास यातना देने का कोई अलग ही तरीक़ा होगा. वे इतनी क्रूरता से पेश आते हैं कि ज़रा भी दया नहीं दिखाते.

दर्द और पीड़ा के लिए सूर्य प्रकाश नाम का एक तेल होता है. वे इसे हमारे गुदा में इंजेक्ट करते हैं. नतीजा यह होता है कि पूरे शरीर में भयानक जलन फैल जाती है. आप दर्द से उछलने लगते हैं. पुलिस आपको शौचालय जाने के लिए कहती है. लेकिन जब आप पानी से धोते हैं, तो दर्द और भी असहनीय हो जाता है. वे आपके गुप्तांगों और निप्पलों पर बिजली के झटके देते हैं. वे आपके पैरों को 180 डिग्री पर फैला देते हैं, जिससे आपके लिंग से ख़ून बहने लगता है.

पुलिस वाटर-बोर्डिंग का भी सहारा लेती है. इसके लिए, वे आपको उल्टा लटका देते हैं, आपके चेहरे को कपड़े से ढक देते हैं, और फिर आपके नथुनों में पानी डाल देते हैं. आपका गला रुंध जाता है और आपको लगता है कि आप डूब रहे हैं. आप इतने हताश हो जाते हैं कि पुलिस से विनती करते हैं – मुझे कोई भी काग़ज़ दस्तख़त करने के लिए दे दो, मैं दस्तख़त कर दूँगा, लेकिन मुझे बख़्श दो.

कमरे को अंधेरा रखा जाता है. कभी आपकी आंखों पर पट्टी बाँध दी जाती है, कभी नहीं. कभी-कभी तापमान बहुत कम हो जाता है; बर्फ़ जैसे ठंडे कमरे में आप नंगे होते हैं, इसलिए काँपते रहते हैं. यातना कक्ष ध्वनिरोधी होता है. एटीएस कार्यालय भीड़-भाड़ वाली बस्ती के बीच में स्थित है, लेकिन आप चाहे कितनी भी ज़ोर से चीखें, बाहर कोई आपकी आवाज़ नहीं सुन सकता.

बात यहीं ख़त्म नहीं हुई. वे हमें अपने साथियों पर अत्याचार होते देखने के लिए मजबूर करते हैं. अगर आप आंखें बंद कर लें या मुँह फेर लें, तो वे आपको पीटते हैं और देखने के लिए मजबूर करते हैं. इससे हमारा हौसला टूटने लगता है.
हमारे परिवार के सदस्यों के साथ उन्होंने जो किया, वह और भी ज़्यादा नुक़सानदेह था. मिसाल के तौर पर, हम आरोपियों के समूह में दो भाई हैं. पुलिस उनके पिता को ले आई, उन्हें नंगा करके भाइयों के सामने घुमाया. फिर उन्होंने भाइयों को नंगा कर दिया और उनके पिता को उन्हें नंगा घूमते देखने पर मजबूर किया. अगर उनमें से कोई अपने गुप्तांग ढकने की कोशिश करता, तो वे उसे डंडों से पीटते. फ़ैसल अपने पिता का यह अपमान बर्दाश्त नहीं कर सका.

उसने पुलिस से विनती की, मुझे कोई भी काग़ज़ दे दो, मैं उस पर दस्तख़त कर दूँगा. अगर आप चाहते हैं कि मैं अमेरिका में हुए 9/11 हमले की बात क़बूल कर लूं तो मैं यह भी करने को तैयार हूं. मेरी बस एक ही विनती है, मेरे पिता को फिर से अपने कपड़े पहनने दो.

फिर उन्होंने उनकी भाभी को बुलाया और उसका घूँघट फाड़ दिया. वे आरोपियों की माताओं, पत्नियों और बहनों को बुलाकर उनका बलात्कार करने की धमकी देते.

पुलिस हमें कहती थी कि अगर तुम्हें इस यातना से मुक्ति चाहिए, तो तुम्हें हमारे दिए गए काग़ज़ों पर हस्ताक्षर करने होंगे. काग़ज़ों को पढ़े बिना ही, तुम्हें हस्ताक्षर करने होंगे.क़ानून आपकी रक्षा के लिए होता है क्योंकि डीके बसु निर्णय के मामले में पुलिस को हर 48 घंटे में मेडिकल जांच के लिए हमें डॉक्टर के पास ले जाना ज़रूरी था. उन्होंने काग़ज़ी तौर पर इसका पालन किया.

हमें कई अस्पतालों में ले जाया गया. लेकिन हर बार, मेडिकल रिपोर्ट पूरी तरह से फ़र्ज़ी होती थी. बॉम्बे हाई कोर्ट ने मामले को ख़ारिज करते हुए ठीक यही बात कही थी.

किसी ने मुझसे कहा था कि पुलिस जांच में यातना ज़रूरी है, क्योंकि बिना यातना के आरोपी अपने अपराध स्वीकार नहीं करेंगे. मेरा जवाब था – ठीक है, अगर ऐसा है, तो क़ानून में एक प्रावधान पारित कीजिए कि आपराधिक जांच में यातना ज़रूरी हो.
‘यातना के वे दिन ज़िंदगी भर हमारे साथ रहेंगे’

इस विधेयक को संसद में ले जाइए, मान लीजिए कि पुलिस आपराधिक जांच के लिए यातना का इस्तेमाल करती है, और संसद में इसे सही ठहराइए. मगर इसके विपरीत, आज तक, पुलिस इस बात से इनकार करती रही है कि उसने हममें से किसी को भी यातना दी है.

80 या 90 दिनों की पुलिस हिरासत में हमने जो यातनाएं झेलीं, वह इतनी पीड़ादायक थीं कि जब हमें आख़िरकार जेल भेजा गया, तो हमें बहुत राहत मिली. एक सुकून सा लगा. यातना के वे दिन ज़िंदगी भर हमारे साथ रहेंगे. सर्दियों में भी हमारे हाथ-पैर दर्द करते हैं.

मेरी आंखों की रौशनी कम होती जा रही है. गहरी नींद में भी मुझे यातनाओं के बुरे सपने आते हैं. अगर आधी रात के बाद कोई हमारे दरवाज़े पर दस्तक देता है, तो मेरी पत्नी और बच्चे हमेशा घबरा जाते हैं कि पुलिस मुझे लेने आ गई है.

हमारे लिए, जेल में सबसे दर्दनाक घटनाओं में से एक थी जेल में रहते हुए हमारे अपनों की मौत. मेरे जेल जाने के एक साल बाद मेरे पिता का निधन हो गया. मुझे ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि मेरे पिता अब इस दुनिया में नहीं हैं. हम ऐसी कोई मशहूर हस्तियां नहीं हैं कि यह ख़बर अख़बारों में छप जाए.

यह ख़बर देने की ज़िम्मेदारी परिवार के सदस्यों पर छोड़ दी गई. मेरी मां, मेरी पत्नी और मेरी बहन मुलाक़ात के लिए आईं (उन दिनों फ़ोन कॉल की कोई व्यवस्था नहीं थी). वे परेशान थीं कि मुझे यह ख़बर कैसे बताएं, क्योंकि मैं पहले से ही बहुत परेशान था.

तो क्या हुआ? जब वे मुलाक़ात के लिए आईं, तो चुप रहीं, इधर-उधर देखा और फिर रोने लगीं. मुझे एहसास हुआ कि कुछ तो गड़बड़ है, लेकिन मुझे नहीं पता कि क्या हुआ है. मैं उनसे विनती करता हूं कि वे मुझे बताएं.

मुलाक़ात के लिए सिर्फ़ 20 मिनट का समय था. ये चंद मिनट जल्दी बीत गए. आख़िरकार, जब मुलाक़ात ख़त्म होने में बस एक मिनट बचा होता है, तो वे कहते हैं, ‘चिंता मत करो, कोई तनाव मत लो. लेकिन अब्बू अब हमारे बीच नहीं रहे.’

मेरा दुःख और नुक़सान मेरी सहनशक्ति से परे है क्योंकि मैं अपने पिता के अंतिम समय में उनके साथ नहीं रह सका, मैं उनके इलाज की व्यवस्था नहीं कर सका, मैं अपनी मां और बहनों को सांत्वना देने के लिए मौजूद नहीं था.सिर्फ़ मैं ही नहीं. हम तेरह लोगों में से हर किसी ने जेल में रहते हुए अपने प्रियजनों को खोया.

किसी ने अपने पिता को खोया, किसी ने अपनी मां को, किसी ने अपने माता-पिता दोनों को, किसी ने अपनी पत्नी को, किसी ने अपने भाई को, वग़ैरह-वग़ैरह. हम सभी ने एक ही दुःख झेला. एक जेलर ने हमसे कहा, ‘हम भी अपने प्रियजनों को वैसे ही खोते हैं जैसे तुम खोते हो. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि जब वे इस दुनिया से जाते हैं तो हम उनके पास होते हैं. लेकिन तुम बहुत दूर होते हो.’ यह हमारी सबसे कठोर सज़ा है.

हममें से जिन पर राष्ट्र-द्रोह और आतंकवाद से ज़ुड़ी हत्याओं के आरोप लगाए गए थे, उनके प्रति जेल कर्मचारियों और क़ैदियों के एक वर्ग का रवैया दुश्मनी और भेदभाव पर आधारित होता, मानो हम इस धरती के इंसान ही न हों.

परिवारों पर अपराध का कोई आरोप नहीं

लेकिन दूसरी ओर, कम से कम हमें कहीं रहने की जगह तो थी, खाना मिलता था, सोने के लिए गद्दा था, एक दिनचर्या थी. हम अपनी स्थिति को स्वीकार करने की कोशिश करते थे; हम ख़ुद से तर्क करते थे कि हमें इसलिए तकलीफ़ हो रही है क्योंकि हम पर इतने गंभीर अपराध का आरोप लगाया गया था. हालांकि, हमारे परिवारों पर अपराध का कोई आरोप भी नहीं लगाया गया था, सिवाय इसके कि वे हमसे जुड़े थे.

मुझे लगता है कि हमारे परिवारों ने जो सज़ा झेली, वह हमसे कहीं ज़्यादा कठोर थी. जेल की ऊँची दीवारों के पीछे हमारी एक दिनचर्या थी, एक ख़ास समय पर जगना, एक ख़ास समय पर खाना, वग़ैरह. लेकिन उन्हें बाहर की दुश्मनी से भरी दुनिया का अकेले ही सामना करना पड़ता था – रिश्तेदार, मीडिया, पुलिस. और उन्हें इन सबके बीच गुज़ारा करना था.
उनका एकमात्र कमाने वाला सदस्य जेल में है. बच्चों की स्कूल फ़ीस भरनी है. बहनों की शादी करनी है. माता-पिता को दवाइयों की ज़रूरत है. कितनी सारी ज़रूरतें हैं. कई बच्चे स्कूल जाना छोड़ देते हैं. माता-पिता ज़िंदा रहने के लिए ज़रूरी दवाइयां नहीं ख़रीद पाते. रिश्तेदार रिश्ते तोड़ लेते हैं, दोस्त मुंह मोड़ लेते हैं. हमारे रिश्तेदार हमसे दूरी बना लेते हैं, इसलिए नहीं कि उन्हें लगता है कि हम आतंकवाद संबंधी अपराधों के दोषी हैं, बल्कि इसलिए कि उन्हें डर है कि जिस एटीएस ने हमें आतंकवादी अपराध का आरोपी बनाया था, उसका प्रकोप उन्हें न झेलना पड़े.

मेरी पत्नी परदे में रहती थी, लेकिन मेरे जेल में होने के कारण, उसे घर से बाहर निकलकर काम करना पड़ा. हमारे दो छोटे बच्चे थे. माँ का दूध पीते थे, लेकिन चूंकि उसे बाहर काम करना पड़ता था, इसलिए उन्हें बोतल से दूध पिलाना पड़ा. ऐसी ही कई छोटी-छोटी बातें हमारे परिवारों ने झेलीं, लेकिन इनमें से एक भी बात किसी किताब में लिखने लायक़ नहीं मानी जाएगी.

उस पत्नी के बारे में सोचिए जो अपने पति के लौटने का 19 साल तक इंतज़ार करती है. वह दोबारा शादी नहीं करती. वह इस उम्मीद में डटी रहती है कि एक दिन उसका पति रिहा हो जाएगा, क्योंकि वह जानती है कि वह निर्दोष है. उस बेटी के बारे में सोचिए जो अपने पिता के जेल जाने के बाद पैदा हुई. उसने कभी अपने पिता का चेहरा नहीं देखा, और न ही पिता ने उसका चेहरा देखा. वह पढ़ाई करके डॉक्टर या इंजीनियर बन सकती थी. लेकिन उसके पिता के जेल में होने के कारण, यह सब संभव नहीं था.

जब आपको पहली बार न्यायिक हिरासत में भेजा जाता है, तो आपको लगता है कि आप 14 दिन जेल में रहेंगे, क्योंकि हिरासत की अवधि यही होती है. और ये 14 दिन 14 साल में बदल जाते हैं. यह एक तरह का धीमा ज़हर है जो आपको पिलाया जाता है.

हमारे मामले में उन पांच लोगों के बारे में सोचिए जिन्हें निचली अदालत ने मौत की सज़ा सुनाई थी. इस आदेश के ख़िलाफ़ अपील का निपटारा होने में दस साल लग गया. कल्पना कीजिए, दस साल तक उन्हें अपने मौत के डर के बीच जीने के लिए मजबूर किया गया.

हर गुज़रता दिन उन्हें फांसी के फंदे के और क़रीब ला देता था. मैंने कहा कि उन्हें दस साल तक इसी तरह जीने के लिए मजबूर किया गया. मुझे कहना चाहिए था, उन्हें दस साल तक हर दिन इसी तरह मरने के लिए मजबूर किया गया. हर दिन आप इस डर से जूझते हैं कि कब ख़बर आएगी कि अपील ख़ारिज हो गई और आपको फांसी के तख़्ते पर चढ़ा दिया जाएगा. आपको फांसी के कमरे के बग़ल में रखा जाता है.

हर दिन, फांसी के तख़्ते पर तेल लगाया जाता है, और आप उसकी आवाज़ सुन सकते हैं. और आप सोचते हैं, ये फांसी का तख़्ता मेरे लिए तैयार किया जा रहा है. यही वो धीमा ज़हर है जिसकी मैं बात कर रहा हूं.

मैं बॉम्बे हाई कोर्ट के उन दो जजों को सलाम करता हूं. उनमें यह साहस, हिम्मत, दूरदर्शिता और विवेक था कि वे बहुत से झूठ के बीच एक सच बोल सकें. अगर उनमें यह साहस न होता, तो ये लोग फांसी पर चढ़ जाते. हालांकि वे निर्दोष थे, और अब भी निर्दोष हैं.

जेल से रिहा होने के बाद पूरी दुनिया बदल गई

19 साल बाद आप जेल से रिहा हुए हैं. दुनिया पूरी तरह बदल गई है. मैं साजिद अंसारी के साथ फ़्लाइट में सफ़र कर रहा था, जो हाल ही में रिहा हुए लोगों में से एक है. वह अपने परिवार से मिलने दिल्ली आया था. उसने मुझसे कहा, ‘मैं 19 साल बाद हवाई जहाज़ में सफ़र कर रहा हूं.’

मैंने उससे पूछा, ’19 साल पहले तुम हवाई जहाज़ से कैसे सफ़र करते थे?’ उसने बताया कि एटीएस ही उसे नार्को टेस्ट के लिए बेंगलुरु ले गई थी.
हवाई अड्डे पर हर मोड़ पर वह असमंजस में था. सब कुछ बदल गया था. वह एस्केलेटर पर चढ़ नहीं पा रहा था. हमें एक साथ कई काम करने की आदत होती है – कॉफ़ी पीना, फ़ोन पर बात करना, चेक-इन के लिए लाइन में लगना, वग़ैरह. जेल में आप एक समय में एक ही काम करते हैं.

साजिद ने कहा, ‘मुझे चक्कर आ रहा है.’

राज्य को क्या करना चाहिए? बरी होने और रिहाई के आदेश के 24 घंटे के भीतर ही महाराष्ट्र सरकार सुप्रीम कोर्ट में अपील लेकर पहुंच गई. नागरिकों के एक वर्ग के प्रति इस प्रकार की शत्रुता शर्मनाक है.

सबसे पहले, पुलिस को इस बात का भय होना चाहिए के उन्हें भी उनके कुकृत्य की सज़ा मिलेगी. जब हमें प्रताड़ित किया गया, तो पुलिस को पूरा भरोसा था कि उन्हें कोई नुक़सान नहीं पहुंचेगा. उन्हें गृह मंत्रालय और सरकार का संरक्षण प्राप्त था.

अगर कोई यातना की वजह से मर भी जाता, तो उसे यातना को ‘मुठभेड़’ में बदलने में उन्हें ज़रा भी देर नहीं लगती (यह दावा करते हुए कि पुलिस को आत्मरक्षा में उसे मारना पड़ा क्योंकि उसने पुलिसकर्मियों को मारने की कोशिश की थी).

अब बात करते हैं उन निर्दोषों के मुआवज़े की, जिन्होंने लंबे साल जेल में बिताए. लोग हमें अदालत जाने की सलाह देते हैं. मुझे यह समझ नहीं आता. जब हम पर आरोप लगे, तो हमें अपना बचाव करने के लिए वकील ढूंढ़ना पड़ा. जब हम निर्दोष हैं, तब भी हमें मुआवज़ा पाने के लिए अदालत जाने के लिए वकील ढूँढ़ना पड़ता है.

क्या हमारे प्रति समाज का कोई दायित्व नहीं है? क्या सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है? संसद को अनिवार्य मुआवज़े के लिए एक क़ानून लाना चाहिए.

साजिद ने मुझसे कहा – पूरी दुनिया में कौन सा मुआवज़ा उन 19 सालों की भरपाई कर सकता है जो हमने जेल में बिताए? हिसाब लगाओ – मेरी ज़िंदगी, मेरी पत्नी, मेरे बच्चे, सब मुझसे छीन लिए गए. मेरी जवानी, क्या तुम मेरी जवानी लौटा सकते हो? इस सबकी क़ीमत क्या है?

मैंने साजिद से कहा – एक निर्दोष व्यक्ति को 19 साल जेल में बिताने के लिए कम से कम 19 करोड़ रुपये का मुआवज़ा मिलना चाहिए.

साजिद ने कहा, नहीं, यह भी काफ़ी नहीं है.

‘मैं जो मुआवज़ा चाहता हूं वह यह है कि भविष्य में किसी निर्दोष व्यक्ति को मेरी तरह फंसाया न जाए. किसी निर्दोष व्यक्ति को मेरी तरह जेल में समय न बिताना पड़े. बस यही मुआवज़ा है जो मैं चाहता हूं.’

ये उसके शब्द थे.

(शोध सहयोग के लिए रुबील सैयद हैदर ज़ैदी का आभार)

(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)

(मूल अंग्रेज़ी से ज़फ़र इक़बाल द्वारा अनूदित. ज़फ़र भागलपुर में हैंडलूम बुनकरों की‘कोलिका’नामक संस्था से जुड़े हैं.)