संवैधानिक पदाधिकारी ज़िम्मेदारी निभाने में नाकाम रहें तो अदालत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती: सुप्रीम कोर्ट

विपक्ष-शासित राज्यों में राज्यपालों के पास लंबे समय से लंबित पड़े विधेयकों को मंज़ूरी देने में देरी से जुड़े मामले की सुनवाई के दौरान सीएजी बीआर गवई ने कहा कि ‘अगर कोई संवैधानिक पदाधिकारी, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, अपनी ज़िम्मेदारी निभाने में विफल रहता है तो अदालत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती.’

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार (11 सितंबर) को स्पष्ट तौर पर कहा कि अगर कोई संवैधानिक पदाधिकारी, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहता है तो अदालत हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठ सकती.

मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने यह टिप्पणी राष्ट्रपति के संदर्भ में की है. कोर्ट की यह टिप्पणी विपक्ष-शासित राज्यों में राज्यपालों के पास लंबे समय से लंबित पड़े विधेयकों को मंजूरी देने में देरी से जुड़े मामले की सुनवाई के अंतिम दिन आई है.

द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से मुख्य न्यायाधीश गवई ने कहा, ‘कोई भी संवैधानिक पद कानून से ऊपर नहीं है, मैं शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में विश्वास करता हूं. न्यायिक सक्रियता को न्यायिक आतंकवाद नहीं बनने देना चाहिए. लेकिन अगर लोकतंत्र का कोई स्तंभ अपने कर्तव्यों से पीछे हटे तो क्या संविधान का संरक्षक होने के नाते अदालत चुपचाप बैठी रहे?’

दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को एक अहम फैसला सुनाते हुए यह कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को उनके पास विचार या स्वीकृति के लिए भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर निर्णय लेना होगा. अदालत ने टिप्पणी की थी कि राज्यपालों की ‘मर्जी और मनमानी’ के कारण जनता के हित वाले कानून अनिश्चितकाल तक अटके नहीं रह सकते.

केंद्र सरकार ने इस फैसले पर आपत्ति जताते हुए कहा कि अदालत राज्यपालों और राष्ट्रपति के अधिकार क्षेत्र में दखल दे रही है. तुषार मेहता ने दलील दी कि हर विधेयक की परिस्थितियां अलग होती हैं, ऐसे में सभी पर एक जैसी समय-सीमा थोपना ‘खुद के लिए नुकसानदायक’ साबित होगा.

सॉलिसिटर जनरल ने दलील दी कि ‘हर विधेयक की अपनी परिस्थितियां होती हैं. कुछ मामलों में राज्यपाल को और विचार-विमर्श या परामर्श की ज़रूरत पड़ सकती है. कई बार राज्य सरकारें यह जानते हुए भी कि कोई बिल राज्य के लिए नुकसानदायक हो सकता है, जनता के दबाव में उसे पास कर देती हैं. ऐसे हालात में राज्य सरकार खुद राज्यपाल से कह सकती है कि बिल को रोक कर रखा जाए. इसलिए सभी विधेयकों के लिए तय समय-सीमा लागू करना व्यावहारिक नहीं होगा और यह नुकसानदेह भी साबित हो सकता है.’

मेहता ने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट राज्यपालों को यह आदेश नहीं दे सकता कि वे किसी बिल को मंजूरी दें. राज्यपाल की स्वीकृति विधायी प्रक्रिया का हिस्सा है और अदालतें कानून बनाने की प्रक्रिया में दखल नहीं दे सकतीं.

इस पर जस्टिस कांत ने कहा कि अदालत राज्यपाल को किसी खास तरीके से निर्णय लेने का आदेश नहीं दे सकती, लेकिन यह ज़रूर कह सकती है कि वे निर्णय लें.

मेहता ने यह भी कहा कि यह धारणा गलत है कि राज्यपाल हमेशा विधेयकों को अटका कर रखते हैं. उन्होंने दावा किया कि पिछले 50 वर्षों में ज्यादातर विधेयकों पर राज्यपाल ने एक महीने के भीतर ही स्वीकृति दी है. उन्होंने कहा, ‘तमिलनाडु में भी विवादित 10 विधेयकों को छोड़कर अधिकांश पर एक महीने के भीतर निर्णय हुआ.’

मुख्य न्यायाधीश गवई ने संविधान निर्माताओं के विचारों का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल की भूमिका सदैव समन्वय और सौहार्द्रपूर्ण माहौल में निभाई जानी थी.

इस पर मेहता ने कहा कि राज्य और राज्यपाल के बीच संबंध दशकों तक सौहार्दपूर्ण रहे थे, लेकिन दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार ने उपराज्यपाल के खिलाफ संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत रिट याचिकाएं दाखिल करना शुरू किया.

मेहता ने कहा, ‘यह सिलसिला हाल ही में दिल्ली सरकार से शुरू हुआ है, अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस और वामपंथी सरकारें भी हैं, लेकिन क्या उनकी ओर से अनुच्छेद 32 के तहत याचिकाएं आती हैं?’
अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने कहा कि राज्यपाल को यह विवेक होना चाहिए कि वे किसी विधेयक को संवैधानिक कसौटी पर परखकर उसे मंजूरी दें या रोक दें.

मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने टिप्पणी की, ‘अगर राज्यपाल किसी विधेयक पर हस्ताक्षर न करने का फैसला लेते हैं और इस बारे में विधानसभा को संदेश भेजते हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं है. सवाल यह है कि क्या राज्यपाल बिना कोई संदेश दिए अनिश्चितकाल तक विधेयक रोक सकते हैं?’