नीतीश कुमार अब तक नौ बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुके हैं. उन्होंने बिहार को प्रशासनिक स्थिरता दी, लेकिन उनका अगला अध्याय मुख्यमंत्री के रूप में होगा या नहीं, यह आगामी चुनाव पर निर्भर करेगा.

गांधी मैदान से अणे मार्ग तक की दूरी बस कुछ किलोमीटर है, पर बिहार की राजनीति में यह दूरी एक पूरे युग जितनी लंबी लगती है. यही वह रास्ता है, जहां से नीतीश कुमार ने बीस साल से अधिक समय तक बिहार पर राज किया– कभी ‘सुशासन बाबू’ बनकर, कभी समीकरणों के उस्ताद के रूप में, और अब शायद एक थके हुए शासक की तरह.
सुप्रसिद्ध इतिहासकार और चिंतक रामचंद्र गुहा ने नीतीश कुमार को भारतीय राजनीति में एक दुर्लभ अपवाद के रूप में पहचाना था. गुहा ने कहा था, ‘भारतीय राजनीति में नीतीश कुमार एक ऐसे नेता हैं जो विचार और शासन, दोनों को समान गंभीरता से लेते हैं.’ यह बयान उस दौर में आया था जब बिहार में ‘सुशासन बाबू’ की छवि नई थी, और विकास की राजनीति जातिगत समीकरणों से ऊपर उठती दिख रही थी.
आज, दो दशक बाद वही नीतीश कुमार अपनी छवि की रक्षा में लगे हैं, पर राजनीतिक मैदान कहीं ज़्यादा कठिन है, और दर्शक कहीं ज़्यादा अधीर हो चुके हैं. क्या उनका अध्याय अब समाप्ति की ओर बढ़ रहा है?
हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान ने इस सवाल को प्रासंगिक बना दिया है कि ‘मैं कौन होता हूं किसी को मुख्यमंत्री बनाने वाला?’ उन्होंने स्पष्ट किया कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा, लेकिन मुख्यमंत्री का निर्णय चुनाव के बाद विधायकों द्वारा लिया जाएगा.
क्या भाजपा नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद से बाहर रखने का विकल्प चुन सकती है?
एक इंजीनियर से राजनीतिक कूटनीतिज्ञ तक
नीतीश कुमार की कहानी बिहार की हर उस कहानी जैसी है जिसमें मेहनत, संघर्ष और थोड़ा-सा राजनीतिक चातुर्य हो. 1951 में बख्तियारपुर के एक साधारण घर में जन्मे नीतीश के पिता स्वतंत्रता सेनानी थे, और माता धार्मिक स्वभाव की थीं. उन्होंने बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग (अब एनआईटी, पटना) से पढ़ाई की, लेकिन असली ताकत उन्हें राजनीति में दिखाई दी.
1970 के दशक में जेपी आंदोलन ने उन्हें और उनकी पीढ़ी के युवाओं को आकार दिया.
संकर्षण ठाकुर अपनी किताब ‘ब्रदर्स बिहारी’ में लिखते हैं, ‘1972 में नीतीश ने ऊंची फीस और घटिया हॉस्टल तथा वाचनालय सुविधा के विरोध में इंजीनियरिंग छात्रों के एक रोषपूर्ण, लगभग हिंसक आंदोलन का नेतृत्व किया था. वे सरकारी बसों का अपहरण कर पश्चिम बिहार ले गए और स्वेच्छा से गिरफ्तारी देकर पटना की जेल को भर दिया.’
नीतीश कुमार के लिए यह आंदोलन विद्रोह और जागरूकता का मिश्रण था.
प्रारंभिक राजनीतिक संघर्ष
नीतीश कुमार जनता की अदालत में अपनी पहली परीक्षा में पराजित हुए थे. वे मध्य बिहार में अपनी जन्मभूमि, नालंदा जिले में हरनौत विधानसभा सीट पर करारी हार का सामना करना पड़ा. उनकी शादी हो चुकी थी और उनके बेटे निशांत का जन्म उसी वर्ष हुआ. संकर्षण ठाकुर के अनुसार, उन्होंने राजनीति से तौबा करने की घोषणा कर दी.
संकर्षण ठाकुर ने लिखा है, ‘चुनावों में बार-बार पराजय से नीतीश कुमार चिड़चिड़े और सनकी हो गए थे. वह नहीं चाहते थे कि उनसे कोई उनके भविष्य को लेकर सवाल करे और परिवार की जिम्मेदारियों की याद दिलाए.’
नीतीश कुमार 1985 में विधानसभा चुनाव लड़ने निकले तो उनकी पत्नी मंजू ने 20,000 रुपये इस वादे के साथ दिया कि यदि चुनाव हारे तो घर-गृहस्थी में चले आएंगे. नीतीश कुमार ने वह चुनाव 22 हज़ार वोट के अंतर से जीत लिया और फिर कभी उन्हें विधानसभा सीट के लिए तरसना नहीं पड़ा.
वर्ष 1987 में वे युवा लोकदल के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने. वर्ष 1989 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने वरिष्ठ कांग्रेस नेता बिहार कद्दावर नेता रामलखन सिंह को बाढ़ लोकसभा क्षेत्र में 75 हज़ार से अधिक वोट से परास्त किया और विजेता की तरह दिल्ली पहुंचे. तब वीपी सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने उन्हें देवीलाल के अंतर्गत कृषि मंत्रालय में राज्य मंत्री का पद दिया.
वर्ष 1992 में मुख्यमंत्री लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच गाली-गलौज का प्रसंग सामने आया. संकर्षण ठाकुर के मुताबिक, लालू यादव से मिलने नीतीश कुमार, शिवानंद तिवारी और लल्लन सिंह गए थे. नीतीश कुमार ने उसके बाद लालू यादव से संबंध बना लिया. वर्ष 1993 की गर्मी में लालू यादव ने पटना के गांधी मैदान में एक विशाल ‘गरीब रैली’ की, जहां नीतीश कुमार के लिए कोई जगह नहीं थी.
संकर्षण ठाकुर लिखते हैं, ‘तब लालू यादव ने नीतीश कुमार के प्रति अपनी घृणा को सार्वजनिक कर दिया. फरवरी 1994 में पटना के गांधी मैदान में पूर्व नक्सली सतीश कुमार ने ‘कुर्मी चेतना रैली’ का आयोजन किया. उसके बाद बहुत सकुचाते हुए नीतीश कुमार ने मंच पर जाकर लालू यादव के प्रति अपनी घृणा को सार्वजनिक कर दिया. यहीं से नीतीश कुमार युग में एक नया अध्याय शुरू हुआ, लेकिन तब तक नीतीश कुमार जनता दल से अलग नहीं हुए थे.’
समता पार्टी का उदय
19 अक्टूबर 1994 को पटना के गांधी मैदान में जॉर्ज फर्नांडीस, अब्दुल गफूर, शिवानंद तिवारी, वृषण पटेल, भोला प्रसाद सिंह और सतीश कुमार के साथ नीतीश कुमार ने समता पार्टी की स्थापना की. नीतीश कुमार ने गरजते हुए लालू प्रसाद की नेतृत्व वाली बिहार सरकार को ‘विश्वासघाती सरकार’, एक आदमी की सरकार और ‘बिहार में लोकतंत्र नहीं है’ कहा.
इससे पहले नीतीश कुमार ने जॉर्ज फर्नांडिस को मुखौटा बनाते हुए जनता दल के चौदह सांसदों के साथ अलग गुट ‘जनता दल (जॉर्ज)’ बनाया. इसके लिए नीतीश कुमार ने जॉर्ज को अपनी नालंदा लोकसभा सीट छोड़ने का प्रलोभन दिया था.
अब समता पार्टी की परीक्षा की घड़ी आ गई थी. 1995 में 324 बिहार विधानसभा (झारखंड युक्त) सीटों के चुनाव में समता पार्टी ने 310 प्रत्याशी खड़े किए, जिसमें 271 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गई और कुल सात सीटें मिली. नीतीश कुमार का सपना टूट गया.
भाजपा के साथ गठबंधन
1995 बिहार विधानसभा की हार के बाद नीतीश कुमार लोगों से मिलना बंद कर दिया था. लेकिन भाजपा के रणनीतिकार दीनानाथ मिश्र ने नीतीश कुमार के पुराने मित्र सरयू राय से उन्हें मिलवाने का अनुरोध किया.
संकर्षण ठाकुर लिखते हैं, ‘दीनानाथ मिश्र ने भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी से मिलवाया और भाजपा के राष्ट्रीय सम्मेलन में विशेष अतिथि के तौर पर नीतीश कुमार को आमंत्रित किया. समता पार्टी और भाजपा का गठबंधन हुआ.’
1996 लोकसभा चुनाव में भाजपा को 18 सीट मिली और समता पार्टी 6 सीट पर सफलता हासिल की. इससे नीतीश कुमार का कद और हौसला दोनों बढ़ गए. 1998 के लोकसभा चुनाव में 54 सीटों में से भाजपा और समता पार्टी के गठबंधन ने 29 सीटें जीत ली. नीतीश कुमार का राजनीतिक ग्राफ तेजी से बढ़ा.
वर्ष 2000 के चुनाव परिणाम में 124 सीटें लालू यादव के पक्ष में थीं जबकि एनडीए के पक्ष में 122 सीटें थीं. 3 मार्च को नीतीश कुमार ने शपथ ग्रहण किया लेकिन उन्हें बहुमत सिद्ध नहीं कर पाने पर उनकी मान्यता खारिज हो गई. उन्होंने कई बाहुबलियों से सहायता ली थी, फिर भी उपयुक्त बहुमत नहीं हासिल कर पाए.
जनता दल (यूनाइटेड) और मुख्यमंत्री कार्यकाल
नीतीश कुमार ने 2003 में जनता दल (यूनाइटेड) की स्थापना की. उनकी विचारधारा लोहिया के समाजवाद से प्रभावित थी, लेकिन उनका तरीका व्यावहारिक और सुधारवादी था. वर्ष 2005 के फरवरी में बिहार विधानसभा चुनाव 243 सीटों पर हुआ. लालू यादव की पार्टी पिछड़ गई, लेकिन एनडीए को पूर्ण बहुमत नहीं मिला. रामविलास पासवान के पास 29 सीटें थीं. राष्ट्रपति शासन लगा और उसी वर्ष फिर चुनाव हुआ.
नीतीश कुमार ने भाजपा से खुद को बिहार के मुख्यमंत्री का चेहरा बनवाया. दोबारा चुनाव में एनडीए ने राजद के सूपड़ा साफ कर दिया. 24 नवंबर को नीतीश कुमार ने गांधी मैदान के खुले मंच पर मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली.
वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह अपनी किताब ‘लालू नीतीश का बिहार; कितना राज कितना काज’ में लिखते हैं, ’11 जून 2013, राज्य भाजपा नेता गोवा सम्मेलन से लौटे थे और बिहार सचिवालय में कृषि से जुड़ी रणनीति पर बैठक हो रही थी. माहौल तनावपूर्ण था.’
इसके बाद नीतीश कुमार ने अपने चिर प्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद यादव की पार्टी से गठबंधन कर लिया. मई 2014 में लोकसभा के परिणाम आए, तो नीतीश कुमार ने अपनी कुर्सी जीतन राम मांझी को सौंपी.
वर्ष 2015 का विधानसभाचुनाव राजद, जदयू और कांग्रेस के गठबंधन ने एक साथ लड़ा. सरकार में लालू यादव के दो पुत्र मंत्री बनाए गए. पर दो साल के भीतर, जनवरी 2017 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक साथ मंच पर थे.
इसी साल 27 जुलाई को पटना स्थित राबड़ी देवी के आवास 10 सर्कुलर रोड पर सीबीआई की छापेमारी हुई और नीतीश कुमार ने 26 जुलाई 2017 को राजद के साथ गठबंधन तोड़ दिया और उसी रात भाजपा से हाथ मिला लिया.
2019 का लोकसभा चुनाव नीतीश कुमार एनडीए के हिस्से के तौर पर लड़े. 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने मुख्यमंत्री बनने का बहुमत हासिल किया. इसके बाद नाटकीय ढंग से 10 अगस्त 2022 को जदयू-राजद-कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों के गठबंधन से महागठबंधन की सरकार बनी.
पर फिर एक बार बाज़ी पलटी और 28 जनवरी 2024 को नीतीश कुमार ने जदयू-भाजपा (एनडीए) के संग नई सरकार बना ली.
नीतीश कुमार अब तक नौ बार मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ले चुके हैं. उन्होंने बिहार को प्रशासनिक स्थिरता दी, लेकिन उनका अगला अध्याय मुख्यमंत्री के रूप में होगा या नहीं, यह आगामी चुनाव पर निर्भर करेगा.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)