सर्वोच्च न्यायालय ने एक अहम फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत विधेयकों को मंज़ूरी देने के राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों के लिए शीर्ष अदालत कोई समयसीमा तय नहीं कर सकती. हालांकि, अदालत ने जोड़ा कि अगर किसी विधेयक को अनिश्चित समय तक लंबित रखा जाता है, तो यह कोर्ट के सीमित दखल और अपवाद का आधार बन सकता है.

नई दिल्ली: सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार (20 नवंबर) को एक अहम फैसले में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत विधेयकों को मंज़ूरी देने के राष्ट्रपति और राज्यपाल के फैसलों के लिए शीर्ष अदालत कोई समयसीमा तय नहीं कर सकती.
लाइव लॉ की रिपोर्ट के अनुसार, भारत के मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंदुरकर की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा दिए गए एक संदर्भ का जवाब दे रही थी, जिसमें राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा तय करने के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार पर सवाल उठाया गया था.
पीठ ने कहा कि समयसीमा लागू करना ‘संविधान द्वारा संरक्षित लचीलेपन के बिल्कुल विपरीत है.’
बार एंड बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के हवाले से कहा है, ‘अनुच्छेद 200 और 201 के संदर्भ में ‘मान्य स्वीकृति’ की अवधारणा यह पूर्वकल्पित करती है कि एक संवैधानिक प्राधिकारी, अर्थात् न्यायालय, किसी अन्य संवैधानिक कार्यकारी प्राधिकारी – राज्यपाल या राष्ट्रपति – के स्थान पर एक प्रतिस्थापन भूमिका निभा सकता है. लेकिन राज्यपाल या राष्ट्रपति की राज्यपालीय शक्तियों का इस तरह हड़पना संविधान की भावना और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के विपरीत है.’
पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि किसी विधेयक के संबंध में राष्ट्रपति या राज्यपाल के कार्यों को न्यायालय के समक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती और न्यायिक समीक्षा के लिए कोई भी कार्रवाई तभी मान्य होगी जब विधेयक कानून बन जाएगा.
हालांकि, लंबे समय तक देरी के मामलों में शीर्ष अदालत ने कहा कि अदालतें राज्यपाल को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए सीमित निर्देश जारी कर सकती हैं.
उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के पास यह संदर्भ मई में तमिलनाडु राज्यपाल मामले में दो-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिए गए फैसले के बाद भेजा गया था, जिसमें राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों की स्वीकृति, रोक और आरक्षण पर कार्रवाई करने के लिए समयसीमा निर्धारित की गई थी.
शीर्ष अदालत ने 11 सितंबर को अपनी राय सुरक्षित रखने से पहले 10 दिनों तक मामले की सुनवाई की थी. अदालत ने मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों से संबंधित कुल 14 प्रश्नों के उत्तर दिए.
14 सवाल और सुप्रीम कोर्ट के जवाब:
1. अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर उसके सामने संवैधानिक विकल्प क्या हैं?
शीर्ष अदालत ने कहा कि विधेयक प्रस्तुत होने पर राज्यपाल के पास तीन विकल्प होते हैं: वे विधेयक पर अपनी सहमति दे सकते हैं, अपनी सहमति रोक सकते हैं या राष्ट्रपति की सहमति के लिए उसे सुरक्षित रख सकते हैं. अनुच्छेद 200 का पहला प्रावधान – जो कहता है कि विधेयक को विधानसभा को वापस भेजना होगा – चौथा विकल्प नहीं है, बल्कि सहमति रोकने के विकल्प को योग्य बनाता है, क्योंकि अन्यथा यह संघवाद के सिद्धांत का हनन होगा.
अदालत ने कहा कि यदि विधेयक पर अपनी सहमति रोक दी जाती है, तो उसे अनिवार्य रूप से विधानसभा को वापस भेजना होगा. कोर्ट ने ये भी स्पष्ट किया कि तीसरा विकल्प (अपनी सहमति रोकना और टिप्पणियों के साथ वापस भेजना) राज्यपाल के पास तभी उपलब्ध है जब वह धन विधेयक न हो.
2. क्या अनुच्छेद 200 के अंतर्गत राज्यपाल के समक्ष कोई विधेयक प्रस्तुत किए जाने पर उसके पास उपलब्ध सभी विकल्पों का प्रयोग करते समय, वह मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सहायता और सलाह से बाध्य है?
अनुच्छेद 200 के अंतर्गत, राज्यपाल को तीन संवैधानिक विकल्पों (सहमति, आरक्षण और रोक) में से किसी एक पर विवेकाधिकार प्राप्त है, जैसा कि अनुच्छेद की दूसरी शर्त (proviso) में ‘उनकी राय में’ शब्दों के प्रयोग से स्पष्ट होता है. इस प्रकार, राज्यपाल के पास विधेयक को वापस करने या राष्ट्रपति के लिए आरक्षित रखने का विवेकाधिकार है.
अनुच्छेद 200 के अंतर्गत अपने कार्यों का निर्वहन करते समय राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से भी बाध्य नहीं है.
3. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा संवैधानिक विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायोचित है?
अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के कार्यों का निर्वहन न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र से बाहर है. पीठ ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय इस प्रकार लिए गए निर्णय के गुण-दोष की समीक्षा नहीं कर सकता.
हालांकि, निष्क्रियता की ऐसी स्पष्ट परिस्थितियों में जो लंबे समय तक अस्पष्टीकृत और अनिश्चितकालीन हो, न्यायालय राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत अपने विवेकाधिकार के प्रयोग के गुण-दोष पर कोई टिप्पणी किए बिना, एक उचित समयावधि के भीतर अपने कार्यों का निर्वहन करने के लिए एक सीमित परमादेश जारी कर सकता है.
4. क्या अनुच्छेद 361 अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के कार्यों के संबंध में न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है?
पीठ ने कहा कि यद्यपि अनुच्छेद 361 न्यायिक समीक्षा पर पूर्ण प्रतिबंध लगाता है (रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ), इसका उपयोग न्यायिक समीक्षा के उस सीमित दायरे को नकारने के लिए नहीं किया जा सकता जिसका प्रयोग अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल द्वारा लंबे समय तक निष्क्रियता के मामलों में शीर्ष न्यायालय को करने का अधिकार है.
पीठ ने स्पष्ट किया कि यद्यपि राज्यपाल को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा प्राप्त है, परंतु राज्यपाल का संवैधानिक पद इस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अधीन है.
5. संवैधानिक रूप से निर्धारित समयसीमा और राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में, क्या राज्यपाल द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत सभी शक्तियों के प्रयोग के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से समयसीमाएं निर्धारित की जा सकती हैं और प्रयोग का तरीका निर्धारित किया जा सकता है?
शीर्ष न्यायालय ने कहा कि समयसीमाएं निर्धारित करना संविधान द्वारा इतनी सावधानी से संरक्षित इस लचीलेपन के बिल्कुल विपरीत होगा.
संवैधानिक रूप से निर्धारित समयसीमाओं और राज्यपाल द्वारा शक्तियों के प्रयोग के तरीके के अभाव में इस न्यायालय के लिए अनुच्छेद 200 के तहत शक्तियों के प्रयोग के लिए न्यायिक रूप से समयसीमाएं निर्धारित करना उचित नहीं होगा.
6. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेकाधिकार का प्रयोग न्यायोचित है?
अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के लिए निर्धारित समान तर्क जैसे ही अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के सहमति की न्यायालय में समीक्षा नहीं की जा सकती है.
7. राष्ट्रपति द्वारा शक्तियों के प्रयोग की संवैधानिक रूप से निर्धारित समयसीमा और विधि के अभाव में क्या अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग हेतु न्यायिक आदेशों के माध्यम से समयसीमाएं और विधि निर्धारित की जा सकती है?
राष्ट्रपति अनुच्छेद 201 के अंतर्गत शक्तियों के प्रयोग हेतु न्यायिक रूप से निर्धारित समयसीमाओं से बाध्य नहीं हो सकते.
8. राष्ट्रपति की शक्तियों को नियंत्रित करने वाली संवैधानिक व्यवस्था के आलोक में, क्या राष्ट्रपति को भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के अंतर्गत संदर्भ के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेने और राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए या अन्यथा आरक्षित रखने पर सर्वोच्च न्यायालय की राय लेने की आवश्यकता है?
संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार, जब भी राज्यपाल द्वारा कोई विधेयक आरक्षित किया जाता है, राष्ट्रपति को हर बार सर्वोच्च न्यायालय से सलाह लेने की आवश्यकता नहीं होती है. न्यायालय ने कहा कि राष्ट्रपति की व्यक्तिपरक संतुष्टि ही पर्याप्त है. यदि स्पष्टता का अभाव है या सलाह की आवश्यकता है, तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श कर सकते हैं, जैसा कि उन्होंने पहले कई अवसरों पर किया है.
9. क्या अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय, कानून के लागू होने से पहले के चरण में न्यायोचित हैं? क्या न्यायालयों को किसी विधेयक के कानून बनने से पहले, किसी भी रूप में उसकी विषय-वस्तु पर न्यायिक निर्णय लेने की अनुमति है?
नहीं, भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 और अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय, कानून के लागू होने से पहले के चरण में न्यायोचित नहीं हैं. विधेयकों को केवल तभी चुनौती दी जा सकती है जब वे कानून बन जाएं.
अनुच्छेद 143 के अंतर्गत अपनी भूमिका का निर्वहन ‘न्यायिक निर्णय’ नहीं माना जाता है, यह बात न्यायालय ने कही.
10. क्या संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल के/द्वारा दिए गए आदेशों को अनुच्छेद 142 के अंतर्गत किसी भी रूप में प्रतिस्थापित किया जा सकता है?
नहीं, संवैधानिक शक्तियों के प्रयोग और राष्ट्रपति/राज्यपाल के आदेशों को यह न्यायालय किसी भी तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत प्रतिस्थापित नहीं कर सकता.
पीठ ने आगे स्पष्ट किया कि संविधान, विशेष रूप से अनुच्छेद 142, विधेयकों की ‘मान्य स्वीकृति’ की अवधारणा की अनुमति नहीं देता है.
11. क्या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाया गया कानून अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की अनुमति के बिना लागू कानून माना जाएगा?
पीठ ने दोहराया कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की अनुमति के बिना राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानून के लागू होने का कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि राज्यपाल की विधायी भूमिका किसी अन्य संवैधानिक प्राधिकारी द्वारा प्रतिस्थापित नहीं की जा सकती.
12. अनुच्छेद 145(3) के प्रावधान के मद्देनजर क्या इस माननीय न्यायालय की किसी भी पीठ के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि क्या उसके समक्ष कार्यवाही में शामिल प्रश्न ऐसी प्रकृति का है जिसमें संविधान की व्याख्या के संबंध में विधि के महत्वपूर्ण प्रश्न शामिल हैं और इसे कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ को भेजा जाए?
पीठ ने इस प्रश्न को अनुत्तरित लौटाते हुए कहा, ‘हमने पहले ही अपनी राय में संकेत दिया है कि अनुच्छेद 145(3) से संबंधित प्रश्न 12 और इस न्यायालय में संवैधानिक महत्व के मामलों की सुनवाई करने वाली पीठों की संरचना इस संदर्भ की कार्यात्मक प्रकृति के लिए अप्रासंगिक है.’
13. क्या अनुच्छेद 142 के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियां प्रक्रियात्मक कानून के मामलों तक सीमित हैं या अनुच्छेद 142 ऐसे निर्देश जारी करने/आदेश पारित करने में लागू हो सकता है जो संविधान या लागू कानून के मौजूदा मूल या प्रक्रियात्मक प्रावधानों के विपरीत या असंगत हैं?
पीठ ने कहा कि उसने प्रश्न 10 के भाग के रूप में पहले ही संकेत दे दिया है कि उसकी राय में यह प्रश्न ‘अत्यधिक व्यापक’ है, और इसलिए ‘निश्चित रूप से उत्तर देना संभव नहीं है’.
14. क्या संविधान अनुच्छेद 131 के तहत मुकदमे के अलावा केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के किसी अन्य अधिकार क्षेत्र पर रोक लगाता है?
पीठ ने इसे अनुत्तरित छोड़ दिया क्योंकि अदालत को यह अप्रासंगिक लगा.