शिवराज और भाजपा के दंभ को मतदाताओं तक पहुंचाने की बजाय कांग्रेस उनके तथाकथित भ्रष्टाचार को मतदाताओं के सामने परोस रही है।
अबकी बार, किसकी सरकार… मध्यप्रदेश के सियासी गलियारों से लेकर प्रशासन तंत्र के एयरकंडीशंड कमरों तक और सत्ता के सिंहासन पर बैठे दिग्गजों से लेकर जिंदाबाद-मुर्दाबाद करने वाली भीड़ तक यह सवाल गूंज रहा है। ऐसा शायद हर चुनाव में होता है लेकिन इस बार ऐसा होने के कारण अलहदा हैं। सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ वोटरों की नाराजगी साफ झलक रही है और कमलनाथ जैसे दिग्गज नेता की अगुवाई में कांग्रेस की पकड़ पहले की तुलना में ज्यादा मजबूत लग रही है। विरोध और समर्थन दोनों का शोर अधिक है। यही कारण है कि सब कुछ साफ दिखने के बाद भी शोर में संभावित फैसले की आवाज दब रही है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पूरी तन्मयता के साथ चुनावी यात्राओं और कार्यक्रमों में अपने आपको झोंके हुए हैं। उनके कार्यक्रमों में भीड़ काफी हो रही है। भीड़ को देखकर मुख्यमंत्री और उनके साथ यात्रा में चल रही उनकी अद्र्धांगिनी और बाकी लोग बेहद खुश भी हो रहे हैं। भीड़ तंत्र का वोट बैंक हर बार भाजपा के लिए मददगार साबित होता है। लेकिन ऐसा पहली बार हो रहा है जब दर्शन शास्त्र के मंझे हुए विद्वान शिवराज सिंह चौहान भीड़ तंत्र के मनोविज्ञान को ठीक से भांप नहीं पा रहे हैं। इसीलिए आज भी भाजपा दावे के साथ यह कह पाने की स्थिति में नहीं है कि वह सत्ता में वापस लौट रही है। असल में चुनाव पर मुद्दे हावी नहीं है, बल्कि मुद्दों पर सोच हावी है। भीड़ तंत्र की सोच को बदलने का माद्दा रखने वाले अनिल माधव दवे जैसे नेता इस बार भाजपा के चुनाव प्रबंधन का हिस्सा नहीं हैं। शायद यही कारण है कि सत्तारूढ़ और धन-धान्य से संपन्न होने के बाद भी भाजपा का आक्रामक चुनाव अभियान अभी तक दिखाई नहीं पड़ा है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह भोपाल में चुनावी मीटिंग में इस बात का संकेत भी दे गए। दूसरा, एक बड़ा मुदा यह भी है कि चुनाव शिवराज सिंह चौहान की अगुवाई में होने के बाद भी यह दावा पार्टी में कोई करने की स्थिति में नहीं है कि सरकार बनी तो नेतृत्व शिवराज सिंह चौहान ही करेंगे। यह असमंजस मीडिया के जरिए आम मतदाताओं तक के जेहन में है और इसका असर भी दिखाई दे रहा है। शिवराज सिंह के जादू में पहले जैसी चमक नहीं दिखाई पड़ रही है। ऐसे में पंद्रह साल की सरकार का दंभ जब अहसास दिलाने लगता है तो सत्ता के गलियारों की रोशनी मद्धम पड़ जाती है और भाजपा के साथ यही हो रही है। मद्धम रोशनी में दूर का सब कुछ साफ देख पाना मुश्किल हो रहा है।
दूसरी तरफ पंद्रह साल से सत्ता से बाहर रही कांग्रेस में सत्ता में वापसी की इतनी अकुलाहट है कि वह सियायत की आदर्श आचार संहिता ही भूल गई है। शिवराज और भाजपा के दंभ को मतदाताओं तक पहुंचाने की बजाय कांग्रेस उनके तथाकथित भ्रष्टाचार को मतदाताओं के सामने परोस रही है। इस तरह के आरोपों से अब जनता को उबकाई आने लगी है। इन्हीं आरोपों के साथ मतदाता 2008 और 2013 में भाजपा को सत्ता में वापस ला चुका है। लेकिन यह बात कांग्रेस के तमाम दिग्गजों को पल्ले नहीं पड़ रही है। जनता की नाराजगी को लेकर लड़ाई लडऩे के बजाय कांग्रेस अपनी नाराजगी का ग_र जनता के सिर पर लादकर उससे वोट की उम्मीद कर रही है। दूसरी एक बात समझ से परे है कि कांग्रेस में चुनाव की कमान संभालने वाले कमलनाथ और सिंधिया समय कम होने के बाद भी दिल्ली का मोह क्यों नहीं छोड़ पाए। अभी भी मध्यप्रदेश की गलियों और कूचों से ज्यादा समय वे दिल्ली दरबार को दे रहे हैं।
कांग्रेस के बड़े नेता पता नहीं क्यों यह समझने का प्रयास ही नहीं कर रहे हैं कि बीते तेरह साल में शिवराज सिंह ने सब कुछ खराब किया हो लेकिन एक काम अच्छा किया कि वोटरों को अपने अनुसार सोचने वाला बना दिया। तमाम मुद्दों के चलते वोटरों की इस सोच में इस साल थोड़ा बदलाव दिखाई पड़ रहा है लेकिन कांग्रेस या तो उस बदलाव को भांप नहीं पा रही है या फिर वह यह मानकर बैठी है कि बिल्ली के भाग्य से छींका इस बार फूटेगा। अगर कांग्रेस ने अभी भी अपनी सोच नहीं बदली, अपनी कार्यशैली और अंदाज नहीं बदला तो इस मिथक के साथ ही उसे आगे की सियासत करनी पड़ेगी कि जिस भी राज्य में कांग्रेस लगातार दो चुनाव हार जाती है, वहां फिर सत्ता में कभी वापस नहीं आती है। बदलाव के मूड में मतदाता है और कांग्रेस को उसका साथ देना होगा। कांग्रेस का साथ मतदाता नहीं देगा क्योंकि मतदाता अब ज्यादा समझदार है। अगर कांग्रेस बहुत जल्द अपनी रणनीति नहीं बदलती है तो चौथी बार भाजपा को सत्ता में आने से कोई नहीं रोक पाएगा।