भोपाल मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव की हर तैयारी पूरी हो गई है। बुधवार को मतदान होगा। हार-जीत का फैसला भले ही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और कांग्रेस के बीच हो लेकिन यह तय है कि यह चुनाव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का भविष्य तय करेगा। अगर चुनाव जीते तो शिवराज पार्टी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद तीसरे नंबर पर खड़े नजर आएंगे। यदि प्रदेश की जनता ने साथ नहीं दिया तो शिवराज की बीजेपी में वही स्थिति हो जाएगी, जो आज कांग्रेस में दिग्विजय की है।
पिछले कुछ महीनों के चुनाव प्रचार से यह साफ हो गया था कि इस बार बीजेपी कमल निशान की बजाय शिवराज के चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ रही है। उसके पहले और आखिरी विज्ञापन में सिर्फ शिवराज ही शिवराज थे। मध्य प्रदेश का कोई भी नेता इस पूरे अभियान में शिवराज के साथ नहीं दिखाया गया। उनके अलावा सिर्फ नरेंद्र मोदी और अमित शाह के चेहरे विज्ञापनों में छाए रहे।
शिवराज के समकालीन नेता हुए मुख्य धारा से बाहर
उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश में बीजेपी के भीतर ऐसे कई बड़े नेता हैं, जिन्होंने शिवराज से पहले और शिवराज के साथ अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था। इस चुनाव में ये सभी नेता मुख्य धारा से बाहर थे। काम सब कर रहे थे लेकिन यह भी साफ दिख रहा था कि उनका कद शिवराज के आगे बहुत बौना हो गया है। यह दिखाने का काम सबसे ज्यादा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने किया और नरेंद्र मोदी ने उसकी हर स्तर पर पुष्टि की।
इस चुनाव का एक उल्लेखनीय पहलू यह भी रहा कि पहली बार बीजेपी ने मध्य प्रदेश में चुनाव कार्यकर्ता को आधार बनाकर नहीं लड़ा। वास्तव में चुनाव आउटसोर्स किया गया। जो काम अभी तक पार्टी नेताओं के निर्देशन में पार्टी कार्यकर्ता करते थे, वह काम प्रफेशनल एजेंसियों से कराया गया। चाहे विज्ञापन बनाने का काम हो या फिर शिवराज की छवि गढ़ने का, सारा काम एजेंसियों ने ही किया। मौजूद सब थे, सक्रिय भी लेकिन उस तरह की जिम्मेदारी किसी के पास नहीं थी। जो पहले के चुनाव में मिलती थी। सीधे शब्दों में कहें तो बीजेपी का कार्यकर्ता अपनी ऊर्जा से काम करने का बजाय सिर्फ निर्देशों का पालन करता नजर आया।
पार्टी काडर में फैली निराशा
नेतृत्व की उदासीनता ही वह सबसे बड़ा कारण था, जिसके चलते पार्टी में कांग्रेस जैसा विद्रोह हुआ। प्रदेश में एक ऐसा नेता नहीं बचा है, जो सबसे अधिकार के साथ बात कर सके या फिर कुशाभाऊ ठाकरे की तरह लोगों को डांट-पुचकार कर बैठा सके या काम पर लगा सके। कुल मिलाकर सब कुछ शिवराज पर ही केंद्रित था। पूरा नियंत्रण अमित शाह के हाथ में था। शायद इसी वजह से पार्टी के बूढ़े विद्रोहियों से बात करने का साहस भी वर्तमान नेता नहीं जुटा पाए। शिवराज ने पूरी कोशिश की है। 13 साल से वह राज्य की कमान संभाले हुए हैं। दो चुनाव उनकी अगुवाई में जीते गए हैं लेकिन कड़वा सच यह भी है कि अगर मतदान करा लिया जाए तो 165 में से 65 विधायक भी उनके पक्ष में वोट नहीं करेंगे।
2005 में प्रमोद महाजन ने उमा भारती को सबक सिखाने के लिए शिवराज को सांसद से मुख्यमंत्री बनवाया था। बाद में भाग्य ने उनका साथ दिया। पार्टी बदलाव के दौर से गुजरी और वह सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने का रेकॉर्ड बनाने में सफल रहे। इन 13 सालों में शिवराज और उनके परिवार पर बहुत लांछन भी लगे, आज भी लग रहे हैं लेकिन फिर भी उनकी छवि ज्यादा बिगड़ी नही है। इस चुनाव में जिस तरह उन्हें आगे किया गया है, उससे यह साफ है कि अगर जीते तो वह बीजेपी में सिकंदर बन जाएंगे। फिर नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद वह सबसे मजबूत नेता होंगे लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ तो उनका हाल वही होगा, जो 2003 की हार के बाद दिग्विजय सिंह का हुआ था। दिग्विजय ने तो अपने गुरु अर्जुन सिंह को पार्टी में हाशिए पर पहुंचाया था लेकिन शिवराज ने अपने कई साथियों का कद बड़ी सफाई से छोटा किया है। इसलिए सबकी निगाहें उन पर हैं। देखना यह है कि मध्य प्रदेश की जनता ‘मामा’ को कृष्ण की श्रेणी में रखती है या कंस की।