भोपाल। मध्यप्रदेश की नई सरकार के गठन के लिए बुधवार को हुए रिकार्ड मतदान ने नेताओं की धड़कनें बढ़ा दी हैं। मतदान के बाद अब नफा-नुकसान पर मंथन शुरू हो गया है। राज्य में 2013 में हुए विधानसभा चुनाव की तुलना में इस बार मतदान का प्रतिशत बढ़ा है। चूंकि यह चुनाव बिना लहर का था और उम्मीदवारों पर निर्भर था, लिहाजा मतदान का प्रतिशत बढऩे को लोग अपने-अपने हिसाब से गणित लगा रहे हैं। चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक समीक्षकों की इस मुद्दे पर राय अलग-अलग है। कुछ इसे सत्ता विरोधी मानते हैं, तो कुछ इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं। हालांकि ज्यादातर समीक्षकों की राय में इसे सीधे तौर पर सत्ता विरोधी नहीं माना जा
सकता है। मध्यप्रदेश में 2013 के विधानसभा चुनाव में हुए मतदान का प्रतिशत 72.13 था, जो इस बार बढ़कर 75 फीसदी से अधिक हो गया है। यानी पिछले चुनाव की तुलना में तीन फीसदी मत अधिक है।
किसी भी तरफ बैठ सकता है ऊंट
भाजपा को छोड़कर बहुत सारे राजनीतिक दलों और कुछ चुनाव समीक्षकों का कहना है कि मतदान का प्रतिशत अधिक होना किसी भी तरफ जा सकता है। वे अपनी दलील में कहते हैं कि 1998 के चुनाव में मत प्रतिशत 60 था, जो सामान्य था। लिहाजा राज्य में दिग्विजय सिंह के नेतृत्व वाली सरकार की वापसी हुई थी। अगले यानी 2003 के चुनाव में मत प्रतिशत बढ़कर 67 हो गया था। चूंकि यह बढ़ोतरी सीधे तौर पर सात फीसदी के करीब थी। लिहाजा दिग्विजय सिंह की सरकार चली गई और कांग्रेस पार्टी को बुरी तरह से पराजय का सामना करना पड़ा था। उसके बाद हुए दो चुनाव में मत प्रतिशत तकरीबन ढाई फीसदी के आसपास बढ़ा था और भाजपा सरकार लगातार बनती चली गई। 2013 के चुनाव में मोदी लहर का असर भी था, फिर मत प्रतिशत में तुलनात्मक रूप से ज्यादा की बढ़ोतरी नहीं हुई थी। चूंकि इस बार मत प्रतिशत बढ़ा है, इस कारण कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।
मत प्रशिशत बढऩे के कई संकेत
चुनाव विश्लेषक गिरिजा शंकर, सााधारी दल भाजपा और कुछ अन्य समीक्षकों का कहना है कि मत प्रतिशत बढऩे को सीधे तौर पर सत्ता विरोधी नहीं माना जा सकता है। वे कहते हैं कि कुल मतदान के प्रतिशत से यह अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है कि यह सीधे तौर पर सत्ता विरोधी है। महत्वपूर्ण यह है कि किस दल को कितने प्रतिशत वोट मिलते हैं। कई बार दलों को मत प्रतिशत कम मिलता है, लेकिन उनकी सीटें बढ़ जाती हैं। ऐसा इसलिए कि 1962 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिले मतों में पिछले चुनाव यानी 1957 की तुलना में 9 प्रतिशत की गिरावट आई थी, लेकिन उसकी सीटें 39 प्रतिशत कम हो गई। 1967 के विधानसभा चुनाव में उसके मतों में दो प्रतिशत का इजाफा हुआ था, लेकिन सीटें 17 फीसदी बढ़ गई। 1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट 12 फीसदी गिरकर 47.98 से 35.88 प्रतिशत हो गये, लेकिन कांग्रेस को इससे भारी नुकसान सीटों के रूप में हुआ और उसकी सीटें 62 प्रतिशत नीचे यानी 220 से 84 रह गई। अगले चुनाव में ठीक इसके उलट हुआ, जब 12 प्रतिशत वोट अधिक मिलने से उसकी सीटों में 65 प्रतिशत का इजाफा हुआ। कांग्रेस की उपरोक्त स्थिति सत्ता में रहते हुई थी। 2003 में विपक्ष में आने के बाद भी कांग्रेस के मतों व सीटों में ऐसा ही उलट फेर देखने को मिलता है। 2008 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 32.39 प्रतिशत मतों के साथ 71 सीटें मिलती हैं, जबकि 2013 में उसके मतों में 4 प्रतिशत का इजाफा होने के बाद भी उसकी सीटें 71 से घटकर 58 रह जाती है। यानी सीटों के मामले में 4 प्रतिशत मतों में बढ़ोतरी के बाद भी सीटों में 18 प्रतिशत का नुकसान होता है। 2003 के चुनाव में भाजपा को सर्वाधिक 173 सीटें मिली थी और तब उसका वोट 42.50 प्रतिशत था। 2013 के विधानसभा चुनाव में उसके मतों में दो प्रतिशत का इजाफा होते हुए 44.88 हो जाता है, लेकिन उसकी सीटें 173 के घटकर 165 रह जाती हैं।
मप्र विस चुनाव में मतदान और प्रतिशत
वर्ष कुल मतदाता मतदान प्रतिशत
2018 50495251 35808102 71.00
2013 46636788 33512971 72.13
2008 36266969 25513530 69.28
2003 37936518 25513530 67.25
1998 44861764 27016547 60.52
1993 40210405 24335836 60.52
1990 37605101 20378886 54.19
1985 29156519 14534524 49.85
1980 12579476 495323 49.03
1977 22973962 12113411 52.73
1972 20859747 11527757 55.26
1967 18394846 9839150 53.49
1962 15874238 7067930 44.54
1957 13871727 7408758 37.17
भाजपा का तर्क
बंपर वोटिंग पर भाजपा का तर्क है कि पिछले चुनाव में भी जब वोट का प्रतिशत बढ़ा था तो कहा गया था कि एंटी इंकबेंसी का नतीजा है, लेकिन नतीजे आए तो भाजपा की सीटें बढ़ गई। इस बार भी ऐसा ही होगा। ज्यादा वोटिंग भाजपा के पक्ष में हैं, लिहाजा पार्टी की सीटें और बढ़ेंगी। इसकी वजह यह है कि भाजपा ने ही मतदाताओं से 90 फीसदी वोटिंग का आह्वान किया था। वहीं सरकार की योजनाओं की वजह से हितग्राही ज्यादा वोट डालते निकले।
कांगे्रस का तर्क
रिकॉर्ड वोटिंग पर कमलनाथ का कहना है कि प्रदेश में बदलाव की लहर है। वक्त है बदलावा का नारे की वजह से मतदाता घरों से सरकार को बदलने का मन बनाकर निकले। कांग्रेस का कहना है कि आमतौर पर जब भी रिकॉर्ड मतदान होता है तो वजह सरकार के खिलाफ एंटी-इंकबेंसी होती है। इस बार भी चंकि वातावरण सरकार के खिलाफ था। लोग सरकार को बदलना चाहते थे, इसलिए बड़ी तादात में लोगों ने वोटिंग की।
इसलिए भी हुई बंपर वोटिंग
चुनाव में रिकॉर्ड मतदान के लिए कुछ और कारणों को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता। एक वजह ज्यादा बागियों एवं राजनीतिक दलों का मैदान में होना है। हमेशा की तरह इस बार बसपा और सपा ताकत से लड़ते दिखाई पड़े है। सपाक्स और आम आदमी पार्टी जैसे दलों ने भी प्रत्याशी खड़े कर मतदाताओं को बाहर निकालने की कोशिश की है। दूसरा, भाजपा और कांग्रेस के बागी इस बार अपेक्षाकृत ज्यादा मैदान में है। इसके प्रयास से भी मतदाता बाहर निकले। तीसरा कारण यह हे कि मतदाताओं को जागरूक कने के लिए इस बार निर्वाचन आयोग एवं कुछ अन्य संस्थाओं ने अभियान चलाया, इसका भी असर हुआ।