सत्ता के लिए कभी भी किसी की गोद में बैठने को
राजनीतिक शिष्टाचार मानने वाले 5 छोटे से राज्य गोवा में इन दिनों दलबदल का एक नया आध्यात्मिक रूप देखने को मिल रहा है। राज्य में विधानसभा चुनाव के पहले राजनीतिक पार्टियां अपने प्रत्याशियों को भगवान की कसम दिलवा रही हैं और चुनाव जीतने के बाद दलबदल न करने के हलफनामे भरवा रही हैं, गोया इन राजनेताओं की आत्मा ईश्वर से डरती हो। गोवा में 14 फरवरी को वोटिंग है।
दरअसल इन पार्टियों के मन में जीत के बाद भी अपने उम्मीदवारों के पार्टी बदलने और सत्ता के लिए समीकरण किधर भी झुकाने का डर इतना ज्यादा है कि आज एक पार्टी और उसके नेता की जय जयकार करने वाला नतीजों के बाद किसका लंगोट घूमने लगेगा, कहा नहीं जा सकता। आलम यह है कि इस बार सत्ता की दावेदार आम आदमी पार्टी ने अपने सभी 40 प्रत्याशियों से इस बात के शपथ पत्र भरवाए हैं कि वे न तो भ्रष्टाचार में लिप्त होंगे और न ही दलबदल करेंगे।
आप के संयोजक व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने पणजी में कहा कि गोवा की राजनीति की सबसे बड़ी समस्या लगातार दलबदल है। इसलिए हम चाहते हैं कि लोग हमारे प्रत्याशियों को वोट दें, इसके पहले हम इस समस्या से निपटने के उपाय कर लें। बकौल केजरीवाल शपथ पत्र भरने वाले प्रत्याशी ने अगर इसका उल्लंघन किया तो उसके खिलाफ विश्वास भंग करने का कानूनी केस किया जा सकेगा। यही नहीं आप प्रत्याशी इन शपथ पत्रों की फोटो कॉपी अपने विधानसभा क्षेत्र में मतदाताओं को वितरित करेंगे ताकि उन्हें भरोसा दिलाया जा सके कि वे वोटरो से भी बेवफाई नहीं करेंगे। अविश्वास की कोख से उपजे इन शपथ पत्रों को भरवाने के साथ ही केजरीवाल ने वादा किया कि उनकी पार्टी गोवा को ईमानदार सरकार देने के लिए वचनबद्ध है।
इस चुनाव में दलीय निष्ठा की इस आध्यात्मिक पहल की शुरूआत उस कांग्रेस ने की, जिसने पिछले चुनाव में सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद भाजपा की जोड़-तोड़ प्रतिभा के आगे हाथ टेक दिए थे। वही खुटका पार्टी को अभी भी है। लिहाजा सबसे पहले कांग्रेस ही ऊपरवाले पर भरोसा करते हुए अपने सभी 34 उम्मीदवारों को बस में बिठाकर मंदिर, चर्च और दरगाह ले गई और उन्हें दल बदल के खिलाफ शपथ दिलाई। यह नेक काम पार्टी के वरिष्ठ नेता पी. चिदंबरम के मार्गदर्शन में हुआ। गोवा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरीश चोडनकर ने कहा कि लोगों के मन में भरोसा पैदा करने के लिए उम्मीदवारों को ईश्वर के समक्ष शपथ दिलाई गई। कांग्रेस की राजनीतिक बैचेनी की वजह यह है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में वह 40 में से 17 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी, लेकिन बहुमत से दूर रह गई थी। चुनाव की घोषणा के पहले उसके पास महज दो विधायक बचे थे। 2019 में कांग्रेस के दस विधायक बीजेपी में शामिल हो गए। ये वो लोग हैं, जो सत्ता की मलाई खाए बगैर नहीं जी सकते थे। एडीआर की एक रिपोर्ट बताती है कि गोवा में बीते 5 सालों में 40 में 24 विधायक पाला बदल चुके हैं, जो कुल का 60 फीसदी होता है।
दलबदल का मूल दर्शन सत्ता में भागीदारी और चलती गाड़ी मे सवारी है। क्योंकि सत्ता सुख के बिना भी क्या जीना। तू नहीं तो और सही। और नहीं तो और सही। बिन कुर्सी के दिन काटना रेगिस्तान में रंगरेली मनाने जैसा है। और गोवा ही क्यों ह्यदलबदल के इस वायरस से सभी पार्टियां ग्रस्त और त्रस्त हैं, फिर भी कोई इसे रोकना नहीं चाहता। क्योंकि एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने वाले किसी भी जनप्रतिनिधि का नई पार्टी में वीरों की तरह स्वागत होता है मानो बस इन्ही की कमी थी। दूसरी तरफ जिस पार्टी को वो छोड़ जाता है, वह उसे नमक हराम साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। क्योंकि हर पार्टी को किसी भी तरह से सत्ता चाहिए। यहां साध्य के लिए साधन शुचिता का कोई अर्थ नही है। यूं भारत में इस तरह दलबदल के कुछ उदाहरण पुराने मद्रास और आंध्रप्रदेश में देखने को मिले थे, लेकिन दलबदल को आयाराम गयाराम संस्कृति में बदलने का काम हरियाणा के विधायक गयालाल ने 1967 में किया। इसी राज्य के भजनालाल विश्नोई ने तो पूरी सरकार ही दूसरी पार्टी में विलीन कर दी थी और फिर मुख्यमंत्री बन गए थे। इसी तरह मध्यप्रदेश जैसे बड़े राज्य में 1967 में गोविंद नारायण सिंह ने कांग्रेस से दलबदल करवाकर संविद सरकार बना ली थी। यह तो गोवा है, जहां कुल विधानसभा सीटें ही 40 हैं। यानी एक ईंट भी खिसकी तो मुख्यमंत्री की कुर्सी हिल जाती है। वैसे गोवा का जितना प्रमुख उद्यम पर्यटन है, उतना ही अहम राजनीतिक पर्यटन भी है। कौन किस पार्टी के चुनाव चिन्ह पर जीत कर कब किसी दूसरी पार्टी का चप्पू चलाने लगेगा कहा नहीं जा सकता। यहां हर पार्टी दलबदलुओं से सजी और भीतर से डरी हुई है। फर्क इतना है कि भाजपा ने दलबदल का भी अद्वैत दर्शन विकसित कर लिया है। अर्थात दल और नेता वास्तव में एक ही हैं, बशर्ते वह दल भाजपा हो।
वैसे देश में दल बदल रोकने के लिए बाकायदा कानून है। लेकिन राजनीतिक दल और नेता तुम डाल डाल तो हम पात पात की पत वाले हैं। वैसे दलबदल नैतिक रूप से सही है या नहीं, इस पर भी मतभेद हैं। कांग्रेस नेता सी. राजगोपालाचारी का मानना था कि किसी विधायक या सांसद को दलबदल से कानून बनाकर रोकना उसके विचार की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हनन है। जन प्रतिनिधि का किसी पार्टी में रहना या नहीं रहना उसका अधिकार है। सही है। लेकिन दूसरे अर्थ में यह राजनीतिक अनाचार भी है। एक नेता चुनाव में किसी एक पार्टी के घोषणा पत्र, वादों और प्रतीक चिन्हों पर वोट मांग की चुनाव जीतता है। लेकिन बाद में अपने स्वार्थ के लिए किसी और दल का दामन थाम लेता है। यूं देश में दलबदल कानून लागू है। लेकिन भाजपा जैसी पार्टियों ने उसका भी तोड़ निकाल लिया है। दलबदल के अनाचार को सदाचार में बदलने के लिए पहले विधायक से उसकी पुरानी पार्टी और विधायकी से इस्तीफा दिलवाओ और फिर अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़वाकर अपनी फौज का हवलदार बना लो।
भाजपा के इस दर्शन को आत्मसात कर टीएमसी जैसी पार्टियां भाजपा को ही जमीन सुंघाने में लगी हैं। दिक्कत यह है कि ऐसे दलबदलुओं का पार्टी बदलकर फिर चुनाव जीतना दलबदलूपन को लोकतांत्रिक वैधता प्रदान करता है। आम तौर पर जो दलबदल हो रहे हैं, उसके पीछे कोई सैद्धांतिक प्रतिबद्धता के बजाए केवल व्यक्तिगत स्वार्थ ज्यादा है। यहां नीति, नियम और निष्ठा सब ठेंगे पर हैं।