बढ़ सकती है कांग्रेस-भाजपा की मुश्किल.
मंगल भारत।मनीष द्विवेदी। मप्र में करीब 5 माह बाद विधानसभा का बिगुल बजेगा। इससे पहले भाजपा और कांग्रेस को चुनौती देने तीसरे मोर्चे की गोलबंदी होने लगी है। आम आदमी पार्टी जहां मोर्चे पर अकेले लड़ेगी, वहीं समाजवादी पार्टी, भीम आर्मी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के बीच तीसरे मोर्चे के लिए खिचड़ी पक रही है। प्रदेश में तीसरे मोर्चे के लिए राजनीतिक पार्टियों के बीच बन रहे समीकरण भाजपा और कांग्रेस के लिए मुश्किलें बढ़ाने वाले हो सकते हैं। पिछले कुछ चुनाव में वोटों की तस्वीर देखें तो स्पष्ट होता है कि तीसरे मोर्चे के ये अलग-अलग दल 18 फीसदी तक वोट लेते आए हैं पर इस चुनाव में सवाल ये है कि तीसरा मोर्चा किसे नुकसान पहुंचाएगा। भाजपा का दावा है कि ये सारे दल कांग्रेस के ही वोट बैंक में सेंध लगाएंगे। वहीं कांग्रेस नेताओं की मानें तो इन दलों की पृथक मौजूदगी से उन्हें कोई नुकसान नहीं होने वाला है। कुल मिलाकर देखा जाए तो ये दल उन 25-30 सीट पर जिताऊ प्रत्याशियों के लिए सिरदर्द बनेंगे, जहां हार-जीत का अंतर 5 हजार के नीचे होगा।
आंबेडकर के बहाने गोलबंदी
प्रदेश में तीसरे मोर्चे की एक कवायद समाजवादी पार्टी, भीम आर्मी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के बीच हो रही है। इसकी झलक 14 अप्रैल को डा. भीमराव आंबेडकर के जन्म दिवस पर डा. आंबेडकर नगर (महू) में देखने को मिलेगी। यहां तीनों दल एक मंच पर आकर अपनी एकजुटता व ताकत दिखाएंगे। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव, भीम आर्मी के संस्थापक और आजाद समाज पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद भी मौजूद रहेंगे। राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष जयंत चौधरी के आने की भी उम्मीद है। कार्यक्रम का आयोजन भीम आर्मी ने किया है, जिसने बाकी दलों को एक मंच पर आने के लिए आमंत्रित किया है। यहां तीनों पार्टी के बड़ी संख्या में कार्यकर्ता एकत्र होंगे। बता दें कि भीम आर्मी का इस वर्ष प्रदेश में यह दूसरा बड़ा आयोजन है। इसके पहले भोपाल में एक कार्यक्रम हुआ था, जिसमें आजाद समाज पार्टी के साथ ओबीसी महासभा और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भी साथ थीं। इस सम्मेलन के बाद इन दलों का मप्र में विधानसभा चुनाव में साथ रहने को लेकर रुख भी स्पष्ट हो जाएगा। सपा के प्रदेश अध्यक्ष रामायण सिंह पटेल ने बताया कि महू में बड़ा आयोजन होगा। केंद्र सरकार की संविधान विरोधी नीतियों के विरुद्ध कई दल एक साथ आ रहे हैं। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आने की सहमति दे दी है। उधर, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अमान सिंह पोर्ते ने कहा कि उस दिन दूसरे आयोजन भी हैं, इसलिए वह नहीं पहुंचेंगे पर कार्यकर्ता जाएंगे। हालांकि, उन्होंने अभी किसी तरह के गठबंधन से मना किया है। गौरतलब है कि 2003 में 12वीं विधानसभा में सपा के आठ विधायक थे। इसके अलावा गोंडवाना गणतंत्र पार्टी से तीन विधायक चुने गए थे। सपा के 1998 में चार, 2008 और 2018 में एक-एक विधायक चुने गए। उप्र से जुड़े जिलों में पार्टी का आधार है। इसी तरह से गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का जनाधार महाकोशल क्षेत्र और छत्तीसगढ़ से जुड़े आदिवासी बहुल क्षेत्रों में है। आजाद समाज पार्टी का प्रभाव पूरे प्रदेश में है, पर उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती जिलों में अपेक्षाकृत ज्यादा है।
2018 में भाजपा को सरकार बनाने से रोका
2003 में 13 प्रतिशत वोट लेकर अन्य दलों ने 13 सीटें जीती थीं। 2008 के चुनाव में 17 प्रतिशत वोट लेकर 13 सीट पर कब्जा किया था। 2013 में साढ़े आठ प्रतिशत वोट ही मिले और सीटें चार मिलीं। अन्य दलों को 2018 में 18 प्रतिशत वोट मिले और सात सीटों पर उसका कब्जा रहा। कांटे के मुकाबले में भाजपा सत्ता से भले ही दूर रह गई, लेकिन उसे वोट 41 प्रतिशत मिले थे, जबकि सरकार बनाने का जादुई आंकड़ा जुटाने में सफल रही कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत वोट मिले थे। परिणाम के विश्लेषण में स्पष्ट हुआ कि अन्य की मौजूदगी ने भाजपा और कांग्रेस दोनों की उम्मीदों पर चोट पहुंचाई थी। भाजपा को सरकार बनाने से रोक दिया था। पिछले तीन विधानसभा चुनावों में वोटों की तस्वीर देखें तो स्पष्ट है कि अलग-अलग दल 17 प्रतिशत तक वोट लेते आए हैं, लेकिन 2023 को लेकर सवाल ये है कि ये दल किसे अधिक नुकसान पहुंचाएंगे? भाजपा का दावा है कि ये सारे दल कांग्रेस के ही वोट बैंक में सेंध लगाएंगे। वहीं कांग्रेस नेताओं का कहना है कि इन दलों की पृथक मौजूदगी से उन्हें कोई नुकसान नहीं होने वाला है। कुल मिलाकर देखा जाए तो ये दल उन 25-30 सीटों पर जिताऊ प्रत्याशियों के लिए सिरदर्द बनेंगे, जहां हार-जीत का अंतर पांच हजार वोटों के नीचे होगा।
जयस भी जुटा कवायद में
उधर खबर है कि जयस यानी जय युवा आदिवासी संगठन इस बार ओबीसी संगठनों के साथ मिलकर तीसरा मोर्चा बनाने की तैयारी में है। प्रदेश में 47 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। 33 सीटें ऐसी हैं जिन पर आदिवासी वोटर्स की संख्या 50 हजार से लेकर एक लाख है। ऐसी प्रदेश की 80 सीटों पर जयस इस बार अकेले चुनाव लडऩे का मन बना रही है। इसके साथ ही वो इन सीटों पर पिछड़ा वर्ग की कुछ जातियों को साधने में भी जुट गई है, जिससे वह इन सीटों पर अपनी जीत दर्ज करा सके। प्रदेश की 33 सीटें ऐसी हैं, जो आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित नहीं हैं, लेकिन उन पर आदिवासी बाहुल्य है। फिर पिछड़ा वर्ग का वोट भी निर्णायक भूमिका में है। ऐसे में इन 33 सीटों पर जयस इस बार वोटर्स को साधने में जुट गई है। तीसरे मोर्चे की आहट के साथ ही दोनों सियासी दल भी अपने आप को पिछड़ा वर्ग हितेषी बताने में जुट गए हैं। मप्र भाजपा के पिछड़ा वर्ग प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष नारायण सिंह कुशवाह का कहना है कि मप्र की भाजपा सरकार ने अपने 18 साल के कार्यकाल में पिछड़ा वर्ग के लोगों के लिए बेहतरीन काम किया है। ऐसे में उन्हें पूरी उम्मीद है कि कोई भी तीसरा मोर्चा पिछड़ा वर्ग को बहकाने की कोशिश करे, लेकिन वह उनके बहकावे में नहीं आएंगे। कांग्रेस के प्रदेश मीडिया उपाध्यक्ष अजय यादव का कहना है कि पिछले 18 साल में भाजपा सरकार में आदिवासी और पिछड़ा वर्ग के वोटर्स का शोषण हुआ है। ऐसे में अब हर वर्ग कांग्रेस के साथ खड़ा नजर आ रहा है, उन्हें पूरी उम्मीद है कि आने वाले चुनाव में इन वर्गों का कांग्रेस को समर्थन मिलेगा।
वोटों का बिखराव रोकने की चुनौती
मप्र विधानसभा चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के अलावा तीसरी कोई बड़ी पार्टी भले ही पैर जमाने में सफल नहीं हो सकी है, लेकिन यहां अन्य दल इन दो पारंपरिक प्रतिद्वंद्वियों को नुकसान पहुंचाने में पीछे नहीं हैं। चुनाव की तैयारी में जुटी भाजपा और कांग्रेस के सामने इस तीसरे मोर्चे यानी छोटे दलों से वोटों का बिखराव रोकने की चुनौती है। राज्य में कई सीटों पर जहां दोनों दलों में कांटे की टक्कर की संभावना दिख रही है। दरअसल, मध्य प्रदेश में भाजपा अपना वोट शेयर 51 प्रतिशत तक पहुंचाने की कोशिश में है, लेकिन इसमें बड़ी बाधा अन्य दल बन सकते हैं। वोटों के इस बिखराव के कारण ही भाजपा और कांग्रेस के नेता चिंतित हैं। पिछले चार विधानसभा चुनावों के परिणामों का विश्लेषण करें तो अन्य दलों को अधिकतम 18 और न्यूनतम साढ़ेे आठ प्रतिशत वोट मिले हैं।