सियासी जमीन की तलाश में ब्राह्मण नेतृत्व.
भोपाल/मंगल भारत। मप्र की राजनीति में एक समय था, जब ब्राह्मणों का वर्चस्व हुआ करता था लेकिन, आज उनकी संख्या और रसूख दोनों में काफी कमी आ गई है। नवंबर 1956 में मप्र राज्य के गठन के बाद साल 1990 तक पांच ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों ने लगभग 20 वर्षों तक शासन किया। लेकिन आज हालत ये है कि पिछले दो दशकों से भी ज्यादा से कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं बन सका है।
दरअसल, चुनाव में जीतने और सरकार बनाने के चक्कर में पार्टियों ने सोशल इंजीनियरिंग पर जोर देना शुरू कर दिया है । इस कारण ब्राह्मण नेतृत्व इसमें बुरी तरह से फंसकर रह गया है। प्रदेश में वर्तमान समय में ब्राह्मण नेतृत्व बेहद बुरे दौर से गुजर रहा है। भाजपा-कांग्रेस सहित सारे दल ब्राह्मण नेताओं को चुनावी समर में तो भेजते हैं, उनमें से जीतकर सदन भी जाते हैं, लेकिन सामाजिक और जातिगत समीकरणों के चलते अब उन्हें नेतृत्व करने लायक नहीं माना जा रहा है। उन्हें विधायक और मंत्री बनकर संतुष्ट होना पड़ रहा है। अब सियासत में सिर्फ ब्राह्मणों का उपयोग हो रहा है। दूसरा सच यह भी है कि समाज में मजबूत पकड़ वाले नेताओं की भी कमी है। मप्र की अब तक की राजनीति का विश्लेषण करें तो हम पाते हैं कि साल 1957 से 1967 तक कांग्रेस के आधे से ज्यादा विधायक उच्च जाति के होते थे और उनमें से भी 25 फीसदी से ज्यादा अकेले ब्राह्मण थे। वर्ष 1967 में 33 फीसदी विधायक ब्राह्मण समाज से थे। कहा जाता है कि श्यामा चरण शुक्ल जब 1969 में पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तो उनके 40 मंत्रियों में से 23 ब्राह्मण थे। लेकिन 1980 के दशक के बाद जातिगत राजनीति का बोलबाला हो गया और सामंतशाही ने ब्राह्मण नेतृत्व को आगे नहीं बढऩे दिया। भारतीय राजनीति में मंडल-कमंडल के जोर पकडऩे के बाद ब्राह्मण नेताओं को सियासी वजूद बचाए रखने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ रहा है।
प्रदेश में ब्राह्मण नेताओं की कमी नहीं
मप्र में कभी भी ब्राह्मण नेताओं की कमी नहीं रही, लेकिन अब उनके हाथ में पहले जैसा नेतृत्व नहीं है। अविभाजित मप्र में कांग्रेस पार्टी के पास पंडित रविशंकर शुक्ल, लीलाधर जोशी, द्वारिका प्रसाद मिश्र, श्यामाचरण शुक्ल और मोतीलाल वोरा जैसे ताकतवर ब्राह्मण नेता थे। विभाजन के बाद शुक्ल और वोरा छत्तीसगढ़ चले गए। मध्यप्रदेश कांग्रेस में बचे नेताओं में सुरेश पचौरी, श्रीनिवास तिवारी और सत्यव्रत चतुर्वेदी जैसे नेताओं से विरासत संभालने की उम्मीद समाज को थी, लेकिन वह कभी पूरी नहीं हुई। मध्यप्रदेश में जब दिग्विजय सिंह की सरकार थी, तब विंध्य का नेतृत्व करने वाले श्रीनिवास तिवारी को जबरदस्त ताकतवर नेता माना जाता था। उन्होंने उस ताकत का इस तरह इस्तेमाल किया कि प्रदेश को नेतृत्व देना तो दूर 2003 एवं 2008 के में चुनाव तिवारी खुद और उनके समर्थक चुनाव हार गए। इसी तरह का बोलबाला बुंदेलखंड में सत्यव्रत चतुर्वेदी का था, क्योंकि टिकट भी उनकी मर्जी से दिए जाते थे। चतुर्वेदी के कोटे से टिकट हासिल करने वाला कोई भी प्रत्याशी 2003, 2008 और 2013 के विधानसभा चुनावी में जीत दर्ज नहीं कर पाया। इसके लिए उनकी कार्यशाली को जिम्मेदार माना जाता है। चतुर्वेदी की मर्जी के बिना जब उनके भाई आलोक चतुर्वेदी को टिकट दिया गया, तो वे जीतकर सदन पहुंच गए। सुरेश पचौरी की गिनती तिवारी और चतुर्वेदी से बड़े नेताओं में होती है। साल 2008 के चुनाव में उन्हें मध्यप्रदेश की बड़ी जिम्मेदारी सौंपी गई थी, लेकिन वे पार्टी नेताओं को एक नहीं कर पाए और पार्टी के स्वीकार्य नेता भी नहीं बन पाए और पार्टी चुनाव में बुरी तरह हार गई। श्रीनिवास तिवारी का निधन हो चुका है और बचे हुए दोनों नेताओं का असर भी पहले जैसा नहीं है। कांग्रेस के साथ भाजपा में ब्राह्मण नेताओं की कमी नहीं है। एक दौर था, जब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पार्टी का चेहरा हुआ करते थे। उनके अलावा कैलाश जोशी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन हुए थे, लेकिन बाद में उन्हें किनारे कर दिया गया। जोशी की जगह पहले सुंदरलाल पटवा ताकतवर रहे, फिर उमा भारती और अब शिवराज सिंह चौहान हैं। भाजपा में जोशी के अलावा रघुनंदन शर्मा, गोपाल भार्गव, अनूप मिश्रा, नरोत्तम मिश्रा तथा प्रभात झा जैसे ताकतवर ब्राह्मण नेता अब भी हैं, लेकिन दलित-पिछड़ों की राजनीति के चलते ये कभी सत्ता के शिखर तक पहुंच पाएंगे, समाज को इसकी उम्मीद कम है। ब्राह्मण नेताओं की स्थिति अब अन्य नेताओं को साधकर विधायक तथा मंत्री बनने तक सीमित होकर रह गई है।
वर्तमान सदन में 30 विधायक
वर्ष 2018 के चुनाव में ब्राह्मण समाज के 30 विधायक चुनकर आए थे। इनमें एक सपा, 12 कांग्रेस और 17 भाजपा से जुड़े हैं। भाजपा में विधानसभा अध्यक्ष गिरीश गौतम, पूर्व विधानसभा अध्यक्ष डॉ. सीतासरन शर्मा, पूर्व नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव, गृहमंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा, मंत्री राजेंद्र शुक्ला, संजय पाठक बड़े नाम हैं। समाजवादी पार्टी से राजेश शुक्ला और कांग्रेस से पीसी शर्मा, तरुण भनोत, नीलांशु चतुर्वेदी, रवि जोशी और संजय शुक्ला जैसे बड़े नाम हैं। सबसे ज्यादा ब्राह्मण विधायक विंध्य से जीतकर आए हैं। उनकी संख्या आठ है। प्रतिशत के हिसाब से भी यह तीस के लगभग है। इनमें से चार विधायक रीवा जिले से और दो-दो विधायक सतना-सीधी जिले से जीते हैं।