न्याय के लिए अदालत जाने को मजबूर अफसर व कर्मचारी

उच्च शिक्षा विभाग में यूजीसी के नियम दरकिनार.
भोपाल/मंगल भारत.

छात्रों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने वाले उच्च शिक्षा विभाग में अनुशासनहीनता चरम पर है। आलम यह है कि विभाग में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग और लोक सेवा आयोग के बनाए गए नियम कानूनों का पालन नहीं होता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि विभाग की भर्राशाही और लापरवाही के कारण अधिकारी-कर्मचारी न्याय के लिए अदालत पहुंच रहे हैं। प्रांतीय शासकीय महाविद्यालयीन प्राध्यापक संघ के संरक्षक कैलाश त्यागी का कहना है कि विभाग के उच्च अधिकारी, शिक्षकों कर्मचारियों की समस्याओं को ठीक से सुनते नहीं हैं, ना ही परामर्शदात्री समिति की बैठक कराते हैं। इसी कारण शिक्षक न्यायालयों में जाने के लिए मजबूर होते हैं। विभाग में भी हल निकाल दिया जाए तो केस कोर्ट में नहीं जाएंगे और सभी की समस्या कम होगी।
गौरतलब है कि सरकारी कार्य में किसी भी तरह की कोई बाधा उत्पन्न न हो इसके लिए सरकारी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। लेकिन उच्च शिक्षा विभाग में नियमों को तार तार किया जा रहा है। इसका अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि पूरे प्रदेश में विभाग के लगभग नौ हजार नियमित अधिकारी और कर्मचारी हैं। इनमें से करीब तीन हजार लोगों ने अपनी सर्विस कंडीशनर की समस्याओं और अन्याय के विरोध में अदालत का दरवाजा खटखटाया है। यह कहना है प्रदेश की मान्यता प्राप्त प्रांतीय महाविद्यालयीन प्राध्यापक संघ का। इसका अर्थ यह है कि हर तीसरा कर्मचारी इन परेशानियों से जूझ रहा है। उसे अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। यह अपने आप में रिकॉर्ड है, जिससे स्पष्ट होता है कि उच्च शिक्षा विभाग में विभिन्न प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया जा रहा है।
नियमों की गलत व्याख्या कर लगाया चूना
सूत्रों के अनुसार ऐसे अनेक मामले हैं, जिनमें विभाग में बैठे उच्च अधिकारियों ने अपने स्वार्थ के चलते नियमों की गलत व्याख्या कर विभाग को चूना लगाया है। इनमें से कई प्रोफेसर है, जो सालों से विभाग में ओएसडी बनकर तैनात हैं और नियम विरूद्ध अपने से वरिष्ठों के प्रकरणों पर भी निर्णय कर रहे हैं। गलत पदोन्नति का एक उदाहरण सहायक प्राध्यापक से सह प्राध्यापक बनाए जाने का है। कुछ मामले सह प्राध्यापकों से प्राध्यापक बनाए जाने के भी हैं। लगभग 400 सहायक प्राध्यापकों की पदोन्नति को प्रभावित कर रहे हैं। बीते दिनों सहायक प्राध्यापक से सह प्राध्यापक पद पर जो पदोन्नतिया की गई हैं, इनमें विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के 2010 के निर्देशों का स्पष्ट उल्लंघन किया गया है। साथ ही उच्च शिक्षा विभाग के 2015 में स्थापित नियमों और प्रावधानों पर भी खरी नहीं उतरती हैं। इस कारण पंद्रह साल बाद भी प्राध्यापकों की वरिष्ठता सूची जारी नहीं हो सकी है। सूत्रों के मुताबिक प्राफेसर्स की 1 अप्रैल 2010 की स्थिति में बनने वाली वरिष्ठता सूची भी सवालों के घेरे में है। बीते दिनों पीएम एक्सीलेंस महाविद्यालयों में प्राचार्यों की नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू की गई है। इसमें प्रधानमंत्री कार्यालय विशेष रुचि ले रहा है और प्रतिदिन राजनीतिक स्तर पर इसकी मॉनिटरिंग की जा रही है। सूत्रों का कहना है कि बावजूद इसके इस प्रक्रिया के संचालन में भी त्रुटियां हैं। इंटरव्यू पैनल में अधिकारियों को शामिल करने के प्रोसिजर का पालन नहीं किया गया। इनमें से कुछ अधिकारी तो स्वयं आवेदक थे।
विभाग में नहीं होती सुनवाई
जानकारी के अनुसार उच्च शिक्षा विभाग में भर्राशाही इस कदर है कि अधिकारियों-कर्मचारियों की समस्याओं का समाधान विभाग द्वारा नहीं किया जाता है। विभाग में पहुंचने वाली शिकायतों और आवेदनों पर सुनवाई नहीं की जाती है, जिसके चलते बड़ी संख्या में लोग कोर्ट की शरण में जा रहे हैं। परेशान कर्मचारी अब अपने साथ हो रहे अन्याय के विरोध में विधानसभा और सर्वोच्च न्यायालय भी जा रहे हैं। पिछले दो-तीन वर्षों में इस तरह के मामलों में वृद्धि हुई है। इस तरह की विसंगतियों पर विराम नहीं लगा और विभाग में शिकायतों का निराकरण नहीं हुआ तो आने वाले दिनों में अदालत की शरण में जाने वाले प्राध्यापकों की संख्या में और अधिक बढ़ोतरी हो सकती है। गौरतलब है कि 2006 के वेतनमान में यूजीसी ने पहली बार कालेजों और यूनिवर्सिटीज के प्राध्यापकों की समान ग्रेड पे दस हजार रुपए स्वीकृत किए गए थे। इसके अलावा स्वीकृत पदों में से सहायक प्राध्यापकों के दस फीसदी एसोसिएट प्राध्यापक और इसी अनुपात में एसोसिएट से प्राध्यापक बनाए जाने की प्रक्रिया का भी पालन नहीं किया गया। आरोप है कि विभाग के अधिकारियों ने यूजीसी के 31 दिसंबर 2008 की नियमावली में वर्णित योग्यताओं की अवहेलना की है। ऐसे लोग भी प्राध्यापक बना दिए गए, जो पात्र नहीं हैं।