अभिव्यक्ति की आज़ादी के मामले में सीधे एफआईआर दर्ज न करें, प्रारंभिक जांच हो: सुप्रीम कोर्ट

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के ख़िलाफ़ एक कविता को लेकर एफआईआर दर्ज करने के लिए गुजरात पुलिस की आलोचना करते हुए आदेश दिया कि पुलिस को ‘बोले या लिखे गए शब्दों’ से जुड़े केस में एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करनी चाहिए.

नई दिल्ली: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को तवज्जो देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को कांग्रेस सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के खिलाफ सोशल मीडिया पर अपलोड की गई कविता को लेकर एफआईआर दर्ज करने के लिए गुजरात पुलिस की आलोचना की.

बार एंड बेंच की रिपोर्ट के अनुसार, जस्टिस एएस ओका और जस्टिस उज्जल भुयां की बेंच ने एफआईआर को खारिज कर दिया और इस बात पर भी जोर दिया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता उस पर लगाए गए प्रतिबंधों से ऊपर है और भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 196 के तहत धार्मिक समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के अपराध को असुरक्षित लोगों, जो हर छोटी आलोचना पर बुरा मान जाते हैं, के मानकों के आधार पर लागू नहीं किया जा सकता है.

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि पुलिस अधिकारियों को ‘बोले या लिखे गए शब्दों’ से जुड़े मामलों में एफआईआर दर्ज करने से पहले प्रारंभिक जांच करनी चाहिए, जिससे एक मजबूत कानूनी मिसाल कायम होगी, जो भारत में फ्री स्पीच से जुड़े भविष्य के मामलों को प्रभावित करेगी.

ख़बरों के मुताबिक, पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि पुलिस अधिकारी ‘सभी नागरिकों को दी गई अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करने और उसे बनाए रखने के लिए बाध्य हैं’ और भाषण, नाटक, व्यंग्य, स्टैंड-अप कॉमेडी एक्ट, कविता या कलाकृति से जुड़े मामलों में सीधे एफआईआर दर्ज करने से मौलिक अधिकार का हनन होने की प्रवृत्ति है.

इस फैसले के केंद्र में भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (बीएनएसएस) की धारा 173(3) की अदालत की व्याख्या है, जिसने एक महत्वपूर्ण प्रक्रियात्मक सुरक्षा पेश की. यह प्रावधान तब प्रारंभिक जांच की अनुमति देता है जब कथित अपराध के लिए तीन साल या उससे अधिक लेकिन सात साल से कम की सजा हो.

अदालत ने स्पष्ट किया कि ऐसे मामलों में जहां कथित अपराध बोले गए या लिखे गए शब्दों पर आधारित है, एफआईआर दर्ज करने से पहले यह पता लगाना आवश्यक है कि क्या प्रथमदृष्टया मामला बनता भी है.

अदालत ने कहा, ‘ऐसे मामले में जहां धारा 173 की उप-धारा (3) लागू होती है, भले ही किसी संज्ञेय अपराध के होने से संबंधित सूचना प्राप्त हो, यह पता लगाने के लिए जांच की जा सकती है कि मामले में कार्यवाही के लिए प्रथमदृष्टया मामला मौजूद है या नहीं. ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य उन तुच्छ मामलों में एफआईआर दर्ज करने से रोकना है, जहां सजा सात साल तक है, भले ही सूचना में संज्ञेय अपराध के होने का खुलासा हो.’

फैसले के अनुसार, ‘ऐसे मामलों में जहां आरोप अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की सीमाओं का उल्लंघन करने से संबंधित हैं, वहां यह पता लगाने के लिए प्रारंभिक जांच करना हमेशा उचित होता है कि क्या आरोपी के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए प्रथमदृष्टया मामला बनता है.’

पीठ ने कहा, ‘इससे यह सुनिश्चित होगा कि अनुच्छेद 19 (1) (ए) द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें.’ अदालत ने बताया कि बीएनएसएस प्रारंभिक जांच करने के लिए उच्च पुलिस अधिकारियों की मंजूरी प्रदान करता है.
‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई भी प्रतिबंध उचित और आनुपातिक हो’

फैसले में आगे कहा गया, ‘ऐसे मामलों में उच्च पुलिस अधिकारी को आमतौर पर पुलिस अधिकारी को प्रारंभिक जांच करने की अनुमति देनी चाहिए. इसलिए, जब संज्ञेय अपराधों के होने का आरोप लगाया जाता है, जहां सजा 7 साल तक के कारावास की है, जो बोले गए या लिखे गए शब्दों पर आधारित है, तो धारा 173 (3) के तहत विकल्प का प्रयोग करना और यह पता लगाने के लिए प्रारंभिक जांच करना हमेशा उचित होगा कि क्या आगे बढ़ने के लिए कोई प्रथमदृष्टया मामला मौजूद है.’

यह महत्वपूर्ण व्याख्या यह सुनिश्चित करती है कि पुलिस अधिकारी केवल आरोपों के आधार पर स्वतः एफआईआर दर्ज नहीं कर सकते, बल्कि पहले उन्हें यह निर्धारित करना होगा कि क्या संबंधित बात कहना या भाषण वास्तव में कानून के तहत अपराध है.

प्रक्रियागत पहलुओं से परे जाकर यह निर्णय पुलिस के संवैधानिक कर्तव्य को दोहराता है कि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को बनाए रखे. यह कानून प्रवर्तन एजेंसियों को याद दिलाता है कि उनकी शक्तियां निरंकुश नहीं हैं और उन्हें संवैधानिक दर्शन के अनुरूप होना चाहिए जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लोकतंत्र की आधारशिला मानता है.

इसमें कहा गया है, ‘पुलिस अधिकारियों को संविधान का पालन करना चाहिए और उसके आदर्शों का सम्मान करना चाहिए. संविधान का दर्शन और उसके आदर्श प्रस्तावना में ही पाए जा सकते हैं, जिसमें कहा गया है कि भारत के लोगों ने भारत को एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने और उसके सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और पूजा की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने का संकल्प लिया है.’

इसके अलावा, पीठ ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई भी प्रतिबंध उचित और आनुपातिक होना चाहिए, साथ ही अनुच्छेद 19(2) के तहत बनाए गए अपवादों के दुरुपयोग के खिलाफ चेतावनी दी.

फैसले में स्पष्ट रूप से चेतावनी दी गई है कि, ‘अनुच्छेद 19(2) में दिए गए उचित प्रतिबंध उचित ही रहने चाहिए और काल्पनिक और दमनकारी नहीं होने चाहिए. अनुच्छेद 19(2) को अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मूल अधिकारों पर हावी होने की अनुमति नहीं दी जा सकती.’

इसके साथ ही कोर्ट के निर्णय में कानून प्रवर्तन को फ्री स्पीच के सिद्धांतों को बनाए रखने के अपने कर्तव्य के बारे में संवेदनशील बनाने के लिए बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों की मांग की गई है, जिसमें कहा गया है, ‘संविधान 75 साल से अधिक पुराना है. अब तक पुलिस अधिकारियों को संविधान का पालन करने और इसके आदर्शों का सम्मान करने के अपने कर्तव्य के बारे में संवेदनशील होना चाहिए था. यदि पुलिस अधिकारी इन दायित्वों के बारे में नहीं जानते हैं, तो राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे बड़े पैमाने पर प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करके शिक्षित और संवेदनशील हों.’