सुप्रीम कोर्ट ने अपने विशेष अधिकारों का उपयोग करते हुए घोषणा की है कि तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि द्वारा दो से पांच साल तक रोके गए 10 विधेयकों को स्वीकृत माना जाएगा. राज्य सरकार ने केवल विधेयकों की मंज़ूरी में देरी ही नहीं, बल्कि अन्य मामलों में भी राज्यपाल की निष्क्रियता को भी चुनौती दी थी.

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (8 अप्रैल) को अपने विशेष अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि के पास लंबित 10 विधेयकों को मंजूरी दे दी. इस फैसले से कोर्ट ने यह साफ संदेश दिया कि उसे राज्यपाल के रवैये पर आपत्ति है.
एक मीडिया रिपोर्ट बताती है कि जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए कानून बनाने की प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका को अपने हाथ में ले लिया. अनुच्छेद 142 के तहत न्यायालय को ‘पूरा न्याय’ करने की शक्ति दी गई है, लेकिन इसे बहुत कम मामलों में लागू किया जाता है, खासकर जब इसमें अन्य संवैधानिक संस्थाएं शामिल हों.
राज्यपाल ने किस तरह के विधेयकों को रोक रखा था?
इन 10 विधेयकों में मुख्य रूप से राज्य विश्वविद्यालयों के संचालन, भ्रष्टाचार विरोधी उपायों, सरकारी नियुक्तियों और कैदियों की समयपूर्व रिहाई से जुड़े कानून शामिल हैं. मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इस फैसले को ‘ऐतिहासिक जीत’ करार दिया और कहा कि यह राज्य सरकार की स्वायत्तता को मजबूत करता है.
इन विधेयकों में मद्रास विश्वविद्यालय (संशोधन) विधेयक, तमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय (संशोधन) विधेयक और डॉ. अंबेडकर लॉ यूनिवर्सिटी (संशोधन) विधेयक शामिल हैं. ये विधेयक राज्यपाल से कुलपति नियुक्त करने का अधिकार लेकर राज्य सरकार को देने के लिए लाए गए थे.
विधेयक ही नहीं सरकार के अन्य फैसलों में भी अड़चन डाल रहे थे राज्यपाल?
तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर केवल विधेयकों की मंजूरी में देरी ही नहीं, बल्कि अन्य मामलों में भी राज्यपाल की निष्क्रियता को चुनौती दी थी. इसमें 50 से अधिक कैदियों की समयपूर्व रिहाई के आदेशों में देरी, तमिलनाडु लोक सेवा आयोग (टीएनपीएससी) में नियुक्तियों को लटकाने और भ्रष्टाचार के मामलों में पूर्व मंत्रियों और विधायकों पर मुकदमा चलाने की अनुमति देने में देरी जैसी शिकायतें थीं.
विशेष रूप से 38 कैदियों, जिनमें 16 मुस्लिम कैदी भी शामिल थे, की रिहाई से जुड़े फैसले को राज्यपाल ने रोक दिया था. इस देरी पर विपक्षी एआईएडीएमके ने सरकार पर पक्षपात करने का आरोप लगाया था.
राज्य सरकार ने यह भी बताया कि तमिलनाडु लोक सेवा आयोग (टीएनपीएससी) में 14 सदस्यों और एक अध्यक्ष की जरूरत थी, लेकिन आयोग केवल चार सदस्यों के साथ काम कर रहा था. इनमें से एक सदस्य को अतिरिक्त रूप से अध्यक्ष का कार्यभार संभालना पड़ रहा था. याचिका में आरोप लगाया गया कि राज्यपाल ने नियुक्तियों में ‘संदिग्ध सवाल’ उठाकर प्रक्रिया को रोक रखा था.
तमिलनाडु सरकार का कहना था कि राज्यपाल जानबूझकर विधेयकों पर निर्णय नहीं ले रहे थे और इससे प्रशासनिक कामकाज ठप हो रहा था.
कोर्ट के आदेश पर सरकार की प्रतिक्रिया
मंगलवार (8 अप्रैल) के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों की शक्तियों पर सख्त नियम लागू किए. कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को ‘शीघ्रता से कार्य’ करना चाहिए और वह किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते.
यदि कोई विधेयक दोबारा पारित हो जाता है, तो राज्यपाल को एक महीने के भीतर उस पर सहमति देनी होगी. यदि वे किसी विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने का निर्णय लेते हैं, तो भी उन्हें यह तीन महीने के भीतर करना होगा.
कोर्ट में तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट पी. विल्सन ने इस फैसले को बड़ी जीत बताते हुए कहा है, ‘राज्यपाल के पास कोई पूर्ण वीटो पावर नहीं है. अनुच्छेद 200 को अनुच्छेद 163 के साथ पढ़ा जाना चाहिए, जो राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य करता है.’
तमिलनाडु विधानसभा में सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने इसे ‘सिर्फ तमिलनाडु की नहीं, बल्कि पूरे भारत की जीत’ बताया. उन्होंने कहा, ‘यह राज्य की स्वायत्तता और संघीय ढांचे की रक्षा के लिए द्रविड़ राजनीति के सिद्धांतों पर लड़ी गई लड़ाई की जीत है. और यह लड़ाई जारी रहेगी—और तमिलनाडु इसे जीतेगा.’
राज्य सरकार को सुप्रीम कोर्ट क्यों जाना पड़ा था?
तमिलनाडु विधानसभा ने जनवरी 2020 से अप्रैल 2023 के बीच कुल 12 विधेयक राज्यपाल की मंजूरी के लिए भेजे. लेकिन राज्यपाल ने इन पर कोई फैसला नहीं लिया और उन्हें बिना किसी कार्यवाही के रोक रखा. जब तमिलनाडु सरकार ने नवंबर 2023 में इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में उठाया और राज्यपाल की निष्क्रियता पर सवाल किया, तो राज्यपाल ने तुरंत दो विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया और बाकी 10 विधेयकों को नामंजूर कर दिया.
इसके बाद, 18 नवंबर 2023 को तमिलनाडु विधानसभा ने विशेष सत्र बुलाकर इन 10 विधेयकों को दोबारा पारित किया और फिर से राज्यपाल को मंजूरी के लिए भेजा. इस बार राज्यपाल ने सभी 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेज दिया. इसके बाद, राष्ट्रपति ने इनमें से एक विधेयक को मंजूरी दी, सात विधेयकों को खारिज कर दिया और बाकी दो पर कोई फैसला नहीं लिया.
अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया है, जो राज्यों के अधिकारों को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि राज्यपाल संविधान के दायरे में रहकर ही काम करें.
राज्यपाल की शक्तियों को रेखांकित करते फैसले!
सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में स्पष्ट किया है कि यदि कोई विधेयक असामान्य रूप से लंबे समय तक रोका जाता है, तो इसे स्वचालित रूप से स्वीकृत माना जाएगा. कोर्ट ने स्पष्ट किया, ‘यदि विधानसभा कोई विधेयक दोबारा पारित करती है, तो राज्यपाल को उस पर सहमति देनी ही होगी.’
एक रिपोर्ट बताती है कि राज्यपाल की शक्तियों पर लगाम लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट पहले भी कई ऐतिहासिक फैसले दे चुका है. 1974 में शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल को आमतौर पर मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे रहना चाहिए और उनके पास स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने का अधिकार केवल अपवादस्वरूप ही होना चाहिए.
2006 में रमेश्वर प्रसाद बनाम भारत सरकार मामले में कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि राज्यपाल की व्यक्तिगत राय राष्ट्रपति शासन लगाने का आधार नहीं हो सकती.
राज्यपाल को माफी देने और दया याचिका पर निर्णय लेने की न्यायिक शक्तियों के संबंध में भी सुप्रीम कोर्ट ने 2006 में कहा था कि उनके फैसले सीमित न्यायिक समीक्षा के अधीन होंगे.
2016 में नबाम रेबिया बनाम बामांग फेलिक्स मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि विधानसभा को बुलाने की शक्ति केवल राज्यपाल के पास नहीं है.
2023 में पंजाब सरकार ने राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, जब उन्होंने विधानसभा के बजट सत्र को बुलाने से इनकार कर दिया था.
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर कहा था, ‘जब विधानसभा सत्र में होती है, तो फ्लोर टेस्ट बुलाने का अधिकार स्पीकर के पास होता है, लेकिन जब विधानसभा सत्र में नहीं होती, तो अनुच्छेद 163 के तहत राज्यपाल के पास फ्लोर टेस्ट बुलाने की शेष शक्तियां होती हैं.’
राज्यपाल की अन्य शक्तियां भी हो सकती हैं न्यायिक जांच के दायरे में
राज्यपाल की कुछ अन्य शक्तियां, जैसे राज्य सरकार के अधिकारियों के खिलाफ मुकदमा चलाने की स्वीकृति देना और राजनीतिक दलों को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना, भी न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकती हैं.
कर्नाटक के मामले में, जहां राज्यपाल थावरचंद गहलोत ने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी दी, इस मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी जा सकती है.
सरकार गठन के मामले में भी राज्यपाल की भूमिका कई बार सुप्रीम कोर्ट में सवालों के घेरे में रही है. 2017 में कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल वजुभाई वाला ने सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को सरकार बनाने का न्योता दिया, जबकि कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन संख्या बल में अधिक था. सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों में फ्लोर टेस्ट को त्वरित समाधान बताया है, लेकिन इस मुद्दे पर विस्तृत कानूनी निर्णय अभी भी लंबित हैं.