अयोध्या: दूसरी प्राण-प्रतिष्ठा ने कुछ किया न किया हो, चर्चाओं का बाज़ार गर्म कर दिया

गत पांच जून को राम मंदिर में आयोजित दूसरी प्राण-प्रतिष्ठा ने जहां भाजपा-आरएसएस की अंदरूनी राजनीति को लेकर भरपूर चर्चाएं पैदा कीं, वहीं कहानी तब दिलचस्प हुई जब समारोह की तस्वीरों में भाकपा के वरिष्ठ स्थानीय नेता अतुल कुमार सिंह पीत वस्त्रों में यजमानों में बैठे पूजा करते दिखे.

श्रीरामजन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट द्वारा नवनिर्मित राम मंदिर में गत पांच जून को आयोजित दूसरी प्राण-प्रतिष्ठा न पहली प्राण-प्रतिष्ठा (जो गत वर्ष 24 जनवरी को खासे सरकारी चाक्चिक्य के साथ आयोजित की गई थी) जितने विवादों, बदगुमानियों और बदमजगियों वगैरह को तो जन्म नहीं दे पाई, लेकिन चर्चाएं भरपूर पैदा कीं. इतनी कि जितने मुंह उतनी बातें की स्थिति उत्पन्न हो गई.

यह और बात है कि इन चर्चाओं में ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के अन्य संगठनों की अंदरूनी राजनीति व अंतर्विरोधों के इर्द-गिर्द ही घूमती रहीं. अलबत्ता, ट्रस्ट द्वारा जारी की गई प्राण-प्रतिष्ठा समारोह की तस्वीरों ने तब इन चर्चाओं को एक सर्वथा नया मोड़ दे डाला, जब भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा) के वरिष्ठ स्थानीय नेता अतुल कुमार सिंह पीले वस्त्रों में उसके यजमानों में बैठे पूजा करने में व्यस्त दिखे.

संघ परिवारियों के कई हल्कों ने उनके इस ‘रूपांतरण’ को हिंदुत्व की नई विजय के रूप में देखा, जबकि कई अन्य ने ‘अपने’ लल्लू सिंह (जो 2024 का लोकसभा चुनाव हार गए) की हैसियत घटाकर ‘पराये’ अतुल कुमार सिंह को अगली पांत में जगह देने की कवायद के रूप में. उन्होंने इस कवायद के साइड इफेक्ट भी गिनाए.

बहरहाल, दूसरी प्राण-प्रतिष्ठा के कई दिन पहले से ही अयोध्या की हवा इस तरह की चर्चाओं से गर्म थी कि यह प्राण-प्रतिष्ठा, सच पूछिए तो, पहली प्राण प्रतिष्ठा का जवाब है और इस जवाब को इसलिए जरूरी समझा गया है कि पहली कुछ इस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम कर दी गई थी कि उसमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की कोई भूमिका ही नहीं बची थी.

तब इसे लेकर प्रदेश विधानसभा में विपक्ष के तत्कालीन नेता और समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो अखिलेश यादव ने यह कहकर योगी पर करारा तंज भी कसा था कि ‘महफ़िल सजाई आपने और लूट कोई और ले गया.

इसके मद्देनजर चर्चाएं करने वाले कह रहे थे कि इसीलिए दूसरी प्राण प्रतिष्ठा योगी के जन्मदिन पर आयोजित करके उनके द्वारा और उन्हीं के नाम की गई. ताकि पहले से ही डगमग ‘मोदी योगी संतुलन’ और न डगमगाने लग जाए.

ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने मौसम की प्रतिकूलताओं के हवाले से किसी को भी दूसरी प्राण-प्रतिष्ठा का निमंत्रण न भेजे जाने और श्रद्धालुओं से उस अवसर पर अपनी जिम्मेदारी पर आने या न आने जैसी बातें कहीं, तो कई चर्चाओं में उनकी बातों को भी योगी से उनकी खुन्नस के रूप में देखा गया. समारोह में लल्लू सिंह को कम तवज्जो मिलने को लेकर भी खूब रस लिए गए.

शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद का यह सवाल भी चर्चाओं में काफी देर तक गूंजता रहा कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 22 जनवरी, 2024 को राम मंदिर का शिखर निर्मित हुए बिना ही प्राण-प्रतिष्ठा कर चुके हैं, तो अब दोबारा प्राण प्रतिष्ठा का क्या तुक है?

उनके अनुसार ‘अब शिखर बनने के बाद दोबारा प्राण-प्रतिष्ठा का एक ही मतलब है कि पहली प्राण प्रतिष्ठा गलत और हिंदू धर्म शास्त्र के विरुद्ध थी.’

एक एजेंसी द्वारा अयोध्या के प्रसाद की ऑनलाइन डिलीवरी के बहाने श्रद्धालुओं से की गई भारी भरकम ठगी की चर्चा भी कुछ देर प्राण-प्रतिष्ठा की चर्चाओं पर हावी रही.

लेकिन अंतत: अतुल कुमार सिंह ने प्राण-प्रतिष्ठा के ‘पहले वामपंथी यजमान’ बनकर प्राय: सारी चर्चाओं का रुख अपनी ओर मोड़ लिया, जिनमें संघ परिवार का विजय भाव भी खुलकर सामने आया.
लाल सलाम से लाल सलामी!’

दरअसल, राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट द्वारा जारी तस्वीरों में यजमानों की जगह अतुल के बैठे दिखते ही विभिन्न ‘धर्मनिरपेक्ष’ हल्कों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की ले-दे की जाने लगी. उसके आलोचकों द्वारा पूछा जाने लगा कि क्या पार्टी अब ‘रामराज्य को लाल सलामी’ की राह पर चल पड़ी है?

आलोचकों को छोड़ भी दें तो यह ‘लाल सलामी’ अनेक दूसरे लोगों को भी इस अर्थ में बहुत चौंकाने वाली लग रही थी कि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जो 1989 में फैजाबाद (जिसके अंतर्गत अयोध्या स्थित है) लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व भी कर चुकी है, पहली प्राण-प्रतिष्ठा को लोकसभा चुनाव से पहले सरकार द्वारा प्रायोजित राजनीतिक कार्यक्रम बताकर उसमें शामिल नहीं हुई थी.

तब उसके महासचिव डी. राजा ने कहा था कि ‘संविधान यह स्पष्ट करता है कि भारतीय राज्य को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य बने रहना चाहिए. भारतीय राज्य को सभी धर्मों के प्रति तटस्थ रहना चाहिए. परोक्ष रूप से उसे किसी विशेष धर्म को वास्तविक आधिकारिक धार्मिक दर्जा प्रदान करने के लिए कदम नहीं उठाना चाहिए. लेकिन यहां हम क्या देख रहे हैं कि प्रधानमंत्री जा रहे हैं और उनके साथ आरएसएस प्रमुख भी इस कार्यक्रम में भाग लेंगे.’

इसके चलते उन्होंने उस प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को लोकसभा चुनाव के समय लोगों की आंखों में धूल झोंकने का राजनीतिक अभियान बताते हुए कहा था कि हम ऐसी चीजों में शामिल नहीं हैं, इसलिए इस समारोह में भाग नहीं लेंगे.

देर से आया पार्टी का जवाब

तो क्या अब पार्टी अपने इस रवैए को बदलने या उस पर पुनर्विचार करने की दिशा में जा रही है? कई ऐसे असुविधाजनक सवालों से परेशान पार्टी को प्रतिक्रिया देने में चौबीस घंटों से ज्यादा का समय लग गया तो इसके पीछे भी कई गंभीर कारण गिनाए जाने लगे.

पहला यह कि जिले में उसकी गतिविधियों का बड़ा तकिया अतुल कुमार सिंह या उनके परिवार पर ही रहता आया है. अतुल के बाबा शम्भू नारायण सिंह कभी जिले की अमसिन विधानसभा सीट (जो अब अस्तित्व में नहीं है) से भाकपा के विधायक चुने गए थे और पिता हरिनारायण सिंह का भी उसके वरिष्ठ नेताओं में शुमार था. खुद अतुल भी पार्टी की राज्य की सर्वोच्च नीति-निर्धारक मंत्रिपरिषद के सचिव मंडल में रह चुके हैं. अब उनके इस तरह पक्ष बदलने को, भले ही वे किसी दूसरी राजनीतिक पार्टी में शामिल नहीं हुए हैं, भाकपा के लिए लगभग वैसा ही झटका माना जा रहा है जैसा मुलायम सिंह के दौर में उसके वरिष्ठ नेता मित्रसेन यादव के समाजवादी पार्टी में शामिल हो जाने से लगा था.

बहरहाल, पार्टी आलोचनाओं के दबाव से बाहर निकली और संभली तो भी उसने अतुल कुमार सिंह के प्रति इतनी नरमी बरती कि उन्हें कारण बताओ नोटिस देने या निष्कासित करने के बजाय यह कहकर छुट्टी कर दी कि उनका अरसे से उससे कोई संबंध नहीं है.

अलबत्ता, पार्टी के जिला सचिव अशोक कुमार तिवारी ने इस आशय के अपने बयान में कुछ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया.

उन्होंने कहा कि अतुल कुमार सिंह भाजपा की सरकार से डरे हुए व्यापारी (में बदल गए) हैं. इसीलिए उन्होंने विगत कई वर्षो से पार्टी के आंदोलनों व कार्यक्रमों से स्वत: दूरी बनाये रखी थी. तिवारी ने बयान में यह भी कहा कि पार्टी जनवादी व प्रगतिशील वैचारिक पक्षधरता के लिए जानी जाती है और उसका साम्प्रदायिक तत्वों से कोई लेना-देना नहीं है.

लेकिन जब तक यह बयान आया, बहुत देर हो चुकी थी और सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों पर ‘रामराज्य में लाल सलामी’ और ‘रामराज्य में कामरेडराज्य की कार्यशाला’ जैसी कटूक्तियां बहुचर्चित हो चली थीं.

एक ओर कोई चुटकी लेकर ‘बदलती अयोध्या, हारती अयोध्या?’ का सवाल पूछ रहा था, फिर खुद ही बता रहा था : ‘नहीं भइया, ‘रिब्रांड’ हो रही है. पहले जहां रामराज्य की परिकल्पना थी, अब वहां ‘कामरेडराज्य’ की कार्यशाला चल रही है… अब यज्ञशाला में यजमान वही होगा, जो पहले मार्क्स पढ़ता था..जो कभी भगवा को अफीम कहता था.’

दूसरी ओर यह तंज इस स्तर तक पहुंच गया था:
कामरेड अतुल सिंह जी — करोड़पति, कम्युनिस्ट और यजमान! पीले वस्त्र में बैठे वेद मंत्रों की गूंज में जब ‘ॐ स्वाहा’ बोलते हैं, तो बैकग्राउंड में पार्टी फंड की खनक भी सुनाई देती है….मार्क्स का चित्र अब राम दरबार के ठीक बगल में टंगा है….यहां मंदिर की नींव रखने वालों को ‘डुप्लीकेट चप्पल’ पहनाकर बाहर बिठा दिया गया और उनके नाम पर ‘ऑरिजिनल पूजन पास’ उन्हीं को दिया जा रहा है, जिनकी आत्मा लाल, लेकिन जेब भगवामय है….और जनता? वह तो अब ‘मंडप के बाहर’ खड़ी है. उसे सिर्फ यह सुनाई देता है कि आहुति दी जा चुकी है… बाकी जनता कृपया प्रतीक्षा करे….जय श्रीराम…और जय मार्क्स अब एक साथ गूंजते हैं. अयोध्या अब मंदिर-मंडप नहीं, बाजार और मार्केटिंग की मिक्स रेसिपी बन चुकी है.

जब यह सब चर्चित हो रहा था तो गत लोकसभा चुनाव में भाजपा को उसके गढ़ अयोध्या में करारी शिकस्त देकर हीरो बने समाजवादी पार्टी के सांसद अवधेश प्रसाद ही क्योंकर चर्चा से बाहर रहते?

प्राण प्रतिष्ठा समारोह से एक दिन पहले चार जून को अपनी जीत की पहली वर्षगांठ पर (ज्ञातव्य है कि 2024 में लोकसभा चुनाव के नतीजे इसी दिन आये थे) राललला और हनुमंत लला का आशीर्वाद लेने उनकी ‘शरण’ में गए तो कई लोग सवाल पूछने लगे कि क्या वे भाजपाइयों से ‘बड़ा रामभक्त’ होने की प्रतिद्वंद्विता में उलझ गए हैं?

ऐसा नहीं है तो संसद से सड़क तक वे बार-बार यही क्यों दोहराते रहते हैं कि भगवान राम व हनुमान कृपा से सांसद चुने गए हैं. क्यों वे उस संविधान के प्रति अपनी कृतज्ञता क्यों नहीं प्रदर्शित करते जिसकी व्यवस्था के तहत हुए चुनाव में अयोध्या की जनता जनार्दन ने उन्हें अपने मत दिए और सांसद चुना?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)