पचास साल पहले: जेपी की हुंकार और इंदिरा का शिकंजा

आपातकाल से ठीक पहले जिस आंदोलन ने इंदिरा गांधी को सबसे बड़ी चुनौती दी थी, उसके नायक थे जयप्रकाश नारायण. बिमल प्रसाद और सुजाता प्रसाद द्वारा लिखी जेपी की जीवनी उन महीनों को समूची विभीषिका से दर्ज करती है जब भारत को अंधी गली में धकेल दिया गया था.

आपातकाल की कथा कहते इस अध्याय के संपादित अंश.
आपातकाल स्वतंत्र भारत का शायद सबसे स्याह अध्याय था, जिसके नायक थे जयप्रकाश नारायण. बिमल प्रसाद और सुजाता प्रसाद द्वारा लिखी यह जीवनी उन महीनों को समूची विभीषिका से दर्ज करती है जब भारत को अंधी गली में धकेल दिया गया था.

हिंदी में शीघ्र-प्रकाश्य इस किताब का अनुवाद आशुतोष भारद्वाज ने किया है. पढ़ें, आपातकाल की कथा कहते अध्याय के संपादित अंश.

25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित एक विशाल रैली में इंदिरा पर तीखा हमला करते हुए जयप्रकाश नारायण ने उनके खिलाफ लंबे और व्यापक सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया था. ‘(उनकी तानाशाही की) सम्भावना को टालने के लिए लंबे और कठिन संघर्ष के लिए तैयार रहें. मैं भी इस संघर्ष में आपके साथ रहूंगा.’ उन्होंने जगजीवन राम और वाईबी चव्हाण जैसे वरिष्ठ नेताओं से आग्रह किया कि वे स्वीकार करें कि इंदिरा का प्रधानमंत्री बने रहना देश या पार्टी के हित में नहीं है.

उन्होंने सशस्त्र बलों और पुलिस से अपील की कि वे अवैध आदेशों का पालन न करें, और सरकार को खुली चुनौती दी कि वह ऐसी अपील करने के लिए उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाए. उन्होंने सरकारी कर्मचारियों से ‘अपने कर्तव्य’ पर विचार करने का आग्रह किया और छात्रों से कहा कि वे आने वाले हफ्तों और महीनों में कक्षाओं के बजाय जेल जाएं. उन्होंने टेलीविजन और रेडियो संस्थानों को सरकारी प्रचार की मशीन बन जाने के लिए लताड़ा, और लोगों को सूचना और प्रसारण मंत्री का घेराव करने के लिए प्रेरित किया.

एक बार फिर रामलीला मैदान दिनकर के ओजस्वी शब्दों से गूंज उठा था—सिंहासन खाली करो कि जनता आती है. जेपी का शक्तिशाली और भावनात्मक भाषण नये घटनाक्रम को जन्म दे रहा था. सशस्त्र बलों और पुलिस से उनकी अपील को देशद्रोह से कम नहीं माना गया था.

दिलचस्प है कि 1930 के दशक में इंदिरा के दादा मोतीलाल नेहरू ने भी इसी तरह का प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें पुलिस से अवैध आदेशों का पालन न करने का आग्रह किया गया था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस प्रस्ताव वाले पर्चे बांटने के लिए दोषी ठहराए गए लोगों की अपील स्वीकार कर ली थी और यह फैसला सुनाया था कि पुलिस से अवैध आदेशों का पालन न करने के लिए आग्रह करना अनुचित नहीं है.

इसके बाद कैबिनेट को दरकिनार करते हुए आपातकाल लागू करना ऐसा भूकंप था, जिसने संसदीय लोकतंत्र के सभी मानदंडों को चकनाचूर कर दिया. 25 जून की आधी रात से कुछ मिनट पहले इंदिरा गांधी सिद्धार्थ शंकर रे के साथ राष्ट्रपति भवन गईं और राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद को आपातकाल लागू करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 352(1) वाली उद्घोषणा पर हस्ताक्षर करने का निर्देश दिया. इसे मंजूरी देने के लिए कैबिनेट की सुबह 6 बजे बैठक हुई.

बहादुर शाह ज़फ़र मार्ग—वह सड़क जहां हिंदुस्तान टाइम्स और स्टेट्समैन जैसे अख़बारों को छोड़कर तमाम प्रमुख अख़बारों की प्रेस थीं—की बिजली की आपूर्ति आधी रात को काट दी गई थी. कई भारतीयों के लिए आपातकाल लागू होने की जानकारी का पहला स्रोत 26 जून की सुबह 7.30 बजे बीबीसी का रेडियो प्रसारण था. यह भय और अफवाह की राजनीति की शुरुआत थी जो मानवाधिकारों के उल्लंघन, सेंसरशिप, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन, निर्मम विध्वंस और जबरन नसबंदी का समर्थन करती थी, और इसका विरोध करने वालों को दोषी करार देती थी.

26 जून को भोर से ठीक पहले दर्जनों विपक्षी नेता और कांग्रेस के असंतुष्ट नेता, कॉलेज और विश्वविद्यालय के शिक्षक, पत्रकार, ट्रेड यूनियन कर्मी और छात्र नेताओं को 1971 के कुख्यात कानून मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिया गया, जिसमें दो साल तक बिना मुकदमे के गिरफ्तारी का प्रावधान था. गिरफ्तार लोगों में जेपी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, अशोक मेहता और अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा चंद्रशेखर तथा मोहन धारिया जैसे लगभग तीस सांसद शामिल थे. उस दिन सुबह 8 बजे ऑल इंडिया रेडियो पर राष्ट्र के नाम अपने आकस्मिक संबोधन में प्रधानमंत्री ने कहा कि राष्ट्रपति ने आंतरिक खतरे से निपटने के लिए आपातकाल की घोषणा की है. उन्होंने जोड़ा कि देश की एकता को भंग करने के लिए सांप्रदायिक भावनाएं भड़काई जा रही हैं.

रामलीला मैदान की रैली के बाद जेपी गांधी शांति प्रतिष्ठान में आराम कर रहे थे, जब 25-26 जून की रात 3 बजे उन्हें उठा लिया गया. जब पुलिस उन्हें ले जा रही थी, वे बुदबुदाये, ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि.’ उनके सचिव ने जैसे-तैसे चंद्रशेखर को संदेश भेजा, जो कुछ ही मिनटों में वहां पहुंच गए, लेकिन उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया. जेपी को हरियाणा के सोहना में एक पर्यटक लॉज में ले जाया गया. मोरारजी को भी वहां लाया गया और बगल के कमरे में रखा गया. उन्हें एकदूसरे से मिलने की अनुमति नहीं थी. दो दिन के भीतर जेपी के हृदय की स्थिति बिगड़ने लगी. उन्हें वापस दिल्ली लाया गया और हृदय संबंधी जांच के लिए एम्स ले जाया गया.
जब हृदय रोग विशेषज्ञों ने हरी झंडी दे दी, उन्हें 1 जुलाई को वायुसेना के विमान से चंडीगढ़ और फिर शहर के पोस्टग्रेजुएट इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च (पीजीआई) की तीसरी मंजिल के वार्ड में ले जाया गया. अब वे हिरासत में थे. यह एक साफ-सुथरा कमरा था—छोटा-सा बिस्तर, एयर कंडीशनर, लिखने की मेज, अलमारी और आरामकुर्सियां.

जेपी अब चंडीगढ़ के डिप्टी कमिश्नर और जेल महानिरीक्षक एमजी देवसहायम की निगरानी में थे. देवसहायम ने बाद में बताया था कि उस दिन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने आधी रात के बाद उन्हें फोन करके निर्देश दिया था कि किसी भी आगंतुक को आने और जेपी को किसी से फोन पर बात करने की अनुमति न दी जाए. लेकिन देवसहायम ने सात जुलाई को ही जेपी के भाई राजेश्वर और दोस्त तारकुंडे को उनसे मिलने की अनुमति दे दी.

जेपी ने इंदिरा को पहला ख़त 21 जुलाई को लिखा था. क्रोध और पीड़ा में डूबे इस ख़त में उन्होंने इंदिरा के भाषणों और साक्षात्कारों की तीखी आलोचना की थी.

‘प्रेस और हर तरह के सार्वजनिक प्रतिरोध को दबाकर और आलोचना व अंतर्विरोधों की परवाह किए बगैर आप झूठे और विकृत बयान दे रही हैं. आपने कथित तौर पर कहा है कि लोकतंत्र राष्ट्र से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है. क्या आप ज़रूरत से ज्यादा कल्पना नहीं कर रही हैं, मैडम प्रधानमंत्री? …कृपया उस नींव को नष्ट न करें जिन्हें राष्ट्रपिता ने और आपके श्रेष्ठ पिता ने डाली थी. आपने जो रास्ता अपनाया है, उस पर संघर्ष और संताप बिछा पड़ा है. आप एक महान परंपरा के महान मूल्यों की और गतिशील लोकतंत्र की वारिस हैं. अपने बाद के लिए इनके टूटे टुकड़े मत छोड़ जाइये. इन सबको फिर से एक साथ जोड़ने में बहुत समय लगेगा… प्रिय इंदिरा जी, कृपया अपने आप को राष्ट्र के साथ न जोड़ें. आप अमर नहीं हैं, भारत अमर है.’

जैसी उम्मीद थी, इसका कोई जवाब नहीं आया.
दूसरी तरफ चुप्पी की एक दीवार थी जिसे कोई भी शब्द भेद नहीं सकता था. बरसों बाद शशि थरूर ने द ग्रेट इंडियन नॉवेल में आपातकाल को ‘द सीज’ की तरह चित्रित किया था कि कैसे एक नेता का व्यक्तिगत संकट देश के राजनीतिक संकट में बदल सकता था. सत्ता के दुरूपयोग को वैधता मिल चुकी थी. कोई कभी भी हिरासत में लिया जा सकता था. यहां तक कि आचार्य कृपलानी और सुशीला नैयर जैसे स्वतंत्रता सेनानियों को भी नहीं बख्शा गया था. तमिलनाडु और गुजरात में विपक्ष की संवैधानिक सरकारें गिरा दी गईं. इंदिरा संवैधानिक और नागरिक सुरक्षाओं को एक-एक करके खत्म कर रही थीं.

तानाशाही का फंदा कसता जा रहा था. 27 जून को राष्ट्रपति के आदेश ने उस मौलिक अधिकार को निलंबित कर दिया जो आपको कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर किसी अन्य तरीके से जीवन या स्वतंत्रता से वंचित करने के खिलाफ अदालत जाने का अधिकार देता है. 22 जुलाई को दोनों सदनों ने 38वां संशोधन विधेयक पारित किया, जिसमें आपातकाल की घोषणा पर और स्वतंत्रता पर प्रतिबंधों की न्यायिक समीक्षा पर रोक लगा दी गई. 18 अगस्त को संसद ने 39वां संशोधन विधेयक पारित किया, जिसके तहत राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और स्पीकर के चुनाव न्यायपालिका के दायरे से बाहर कर दिए गए.

42वें संशोधन ने संसद को संविधान के किसी भी हिस्से को संशोधित करने या बदलने के लिए असीमित अधिकार दे दिए. इस कुख्यात 42वें संविधान संशोधन के विरोध में भारी प्रदर्शन हुए. 16 और 17 अक्टूबर 1976 को दिल्ली में विपक्षी दलों ने एक बड़े सम्मेलन में इस विधेयक का कड़ा विरोध किया. 25 अक्टूबर को भारत के प्रमुख विद्वानों, लेखकों, कलाकारों और सार्वजनिक हस्तियों ने हस्ताक्षरित ‘राष्ट्रव्यापी मांग’ शीर्षक से एक ज्ञापन राष्ट्रपति को सौंपा.

हस्ताक्षरकर्ताओं में लोतिका सरकार, एस गोपाल, रोमिला थापर, राज कृष्ण, मृणाल दत्ता चौधरी, वीएम दांडेकर, आंद्रे बेते, मुल्क राज आनंद, विजय तेंदुलकर, जे. स्वामीनाथन, मृणाल सेन, रोमेश थापर, बीजी वर्गीज, निखिल चक्रवर्ती, एमसी छागला, वीएम तारकुंडे और सोली सोराबजी शामिल थे.

29 जून 1975 को दिल्ली के प्रेस क्लब में करीब सौ पत्रकारों ने सेंसरशिप की निंदा करते हुए एक प्रस्ताव पेश किया. इसके बाद सरकार ने इस बैठक के मुख्य आयोजकों में शामिल कुलदीप नैयर को गिरफ्तार कर लिया. दिसंबर 1975 में पारित एक अध्यादेश ने संसदीय कार्यवाही के लेखों के प्रकाशन पर संपादकों और प्रकाशकों को सिविल और क्रिमिनल प्रकरणों से मिली रियायत को खत्म कर दिया. एक अन्य अध्यादेश ने प्रेस परिषद को खत्म कर दिया.

सरकार ने कठोर कदम उठाते हुए चार स्वतंत्र समाचार एजेंसियों- प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया, यूनाइटेड प्रेस ऑफ इंडिया, समाचार भारती और हिंदुस्तान समाचार- को मिलाकर ऐसी समाचार एजेंसी बना दी जो सीधे उसके नियंत्रण में काम करती थी. पचास से अधिक ऐसे पत्रकारों, कार्टूनिस्टों और फोटोग्राफरों से मान्यता वापस ले ली गई, जिन्होंने सेंसर की सीमा लांघने की हिम्मत की थी. कई पत्रिकाएं बंद हो गईं या उनका प्रकाशन स्थगित कर दिया गया—जेपी का एवरीमैन, शंकर का वीकली, मेनस्ट्रीम, क्वेस्ट, सेमिनार, फ्रंटियर, हिम्मत इत्यादि.

द टाइम्स (लंदन), द डेली टेलीग्राफ, द वाशिंगटन पोस्ट और लॉस एंजिल्स टाइम्स के विदेशी संवाददाताओं को देश से निष्कासित कर दिया गया. द इकोनॉमिस्ट और द गार्डियन के पत्रकारों को भी देश छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया गया. बीबीसी ने अपने संवाददाता मार्क टुली को वापस इंग्लैंड बुला लिया.

(पेंगुइन द्वारा प्रकाशित बिमल प्रसाद और सुजाता प्रसाद की किताब ‘द ड्रीम ऑफ रेवोल्यूशन’ का हिंदी अंश)