राहुल-तेजस्वी की गाड़ी पर पप्पू-कन्हैया की नो एंट्री, बिहार में क्या चाहती है कांग्रेस?

पटना समेत बिहार के तमाम शहरों में 9 जुलाई को खासी गहमागहमी रही. बिहार के साझे विपक्ष ने मतदाता सत्यापन व गहन पुनरीक्षण को लेकर ‘चक्काजाम’ का आह्वान किया था. इस दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी जिस गाड़ी पर सवार हुए, उस गाड़ी पर पूर्णिया सांसद पप्पू यादव और कन्हैया कुमार को चढ़ने से रोक दिया गया. ऐसे में कयास लगाए जा रहे हैं कि क्या बिहार में कांग्रेस की डोर अब भी लालू-राबड़ी आवास पर अटकी रहेगी?

पटना समेत बिहार के तमाम शहरों में कल 9 जुलाई को खासी गहमागहमी रही. बिहार के साझे विपक्ष ने मतदाता सत्यापन व गहन पुनरीक्षण को लेकर ‘चक्काजाम’ का आह्वान किया था. सुबह से ही प्रदेश के अलग-अलग हिस्से से ऐसी तस्वीरें आनी शुरू हो गई थीं, जो इस बात की तस्दीक़ कर रह थीं कि विपक्ष इस मुद्दे को लेकर कितना गंभीर है.

विपक्ष के तमाम नेता और कार्यकर्ता कल सड़कों पर दिखे, चुनावी साल में ऐसा होना लाज़मी भी है. पटना में ‘चक्काजाम’ के आह्वान के साथ ही एक ‘प्रतिरोध मार्च’ तय था. देश के नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी भी इस मार्च में हिस्सा लेने पहुंचे, लेकिन उनके पटना पहुंचने और इस मार्च में शामिल होने के लिए तैयार की गई गाड़ी पर किन्हीं के चढ़ने और किन्हीं को रोक दिए जाने को लेकर खासा बावेला उठ खड़ा हुआ है. सियासी गलियारे में तरह-तरह की बातें कही जा रही हैं. कोई इसे नेताओं के पॉप्युलैरिटी से जोड़ रहा है तो कोई इसे अपमान करार दे रहा है.

दरअसल, कांग्रेस नेता राहुल गांधी जिस गाड़ी पर सवार हुए, उस गाड़ी पर पूर्णिया सांसद राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव और कांग्रेस नेता कन्हैया कुमार को चढ़ने से रोक दिया गया. वीडियो के सामने आते ही तरह-तरह की बातें होने लगीं कि क्या बिहार में कांग्रेस की डोर अब भी लालू-राबड़ी आवास पर अटकी रहेगी? क्या कांग्रेस इसे अपनी नियति मान चुकी है कि उसे हिंदी पट्टी, विशेषतया उत्तर प्रदेश और बिहार में क्षेत्रीय पार्टियों के पीछे-पीछे ही चलना है? क्या कांग्रेस राज्य में अपनी स्वायत्तता को बरकरार रखने के बजाय समझौते पर अधिक जोर दे रही है, और समझौते कि राह में पप्पू यादव और कन्हैया के आने से राजद और कांग्रेस के बीच अनबन बढ़ेगी?
पहलेपहल तो पप्पू यादव ने इनकार किया कि ऐसी कोई बात नहीं है, वे तो कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ट्रक पर चढ़ाने गए थे, लेकिन देखते ही देखते वे तेजस्वी यादव और संजय यादव पर बरसने लगे. कहने लगे कि तेजस्वी कौन होते हैं, जो उन्हें राहुल गांधी से मिलने से रोक दें? वे तो उस दौर से विधायक हैं, जब तेजस्वी पैदा भी नहीं हुए थे. लेकिन जानने वाले जानते हैं कि पप्पू यादव को जोर का झटका धीरे से लगा है.

वहीं कन्हैया कुमार की ओर से इस प्रकरण पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. वो बोलें भी तो क्या बोलें?

वैसे पूर्णिया सांसद राजेश रंजन उर्फ़ पप्पू यादव ने लोकसभा चुनाव से पहले अपनी पार्टी (जन अधिकार पार्टी) का विलय कांग्रेस में करा दिया था, लेकिन बाद के दिनों में महागठबंधन के अधिकृत उम्मीदवार के बतौर चुनाव नहीं लड़ सके. बाग़ी हुए और अपने ही चिन्ह पर चुनाव लड़े और जीते.

हालांकि, बाद के दिनों में वे कांग्रेस पार्टी की बैठक में शामिल होते ज़रूर देखे गए. कल यानी कि 9 जुलाई को जिस जोर-शोर से वे चक्काजाम में शामिल थे, तो प्रथम दृष्टया ऐसा लगा कि वे भी कांग्रेस के और कांग्रेस उनकी हो गई है, लेकिन ऐसा हो न सका.
इस पूरे प्रकरण और पप्पू-कन्हैया को उक्त गाड़ी पर सवार होने से रोक दिए जाने के प्रकरण और राज्य में कांग्रेस-राजद के बीच जारी गठजोड़ पर बिहार में इंडियन एक्सप्रेस के वरिष्ठ पत्रकार संतोष सिंह कहते हैं, ‘इस तरह के तमाम मामलों में यह चर्चा कम होती है कि राहुल गांधी जैसे नेताओं के लिए सुरक्षा का प्रोटोकॉल अहम होता है. उनके साथ या मंच पर कौन रहेगा और कौन नहीं यह लिस्ट पहले ही मांग ली जाती है. दूसरी बात यह है कि पप्पू यादव इंडिया ब्लॉक का हिस्सा नहीं हैं. वे बागी होकर लोकसभा लड़े और जीते हैं. राजद की उम्मीदवार को हराया है.’

वे आगे कहते हैं, ‘यदि पप्पू को उस ट्रक पर जगह मिलती तो फिर उन्हें या उनकी राजनीति के तौर तरीकों को वैधता मिलती. राजनीति में कुछ भी बिना ठोस कारण के नहीं होता उसके पीछे गणित होती है. मेरी नज़र में पप्पू यादव कोसी-सीमांचल में अच्छा करने वाले नेता हैं, लेकिन वे किसी दल या गठबंधन के साथ नहीं रह पाए. लालू प्रसाद के दौर में पैदा होने का हश्र ये हुआ कि उन्हें राज्य की राजनीति में वैसी जगह नहीं मिल पाई. या कहें कि वे एक क्षेत्र तक ही सीमित हो गए. तिस पर से उनकी महत्वाकांक्षा कभी लालू प्रसाद से टकरा रही तो कभी तेजस्वी से. बाकी कई ऐसे मामले हैं, जैसे अजीत सरकार की हत्या या और भी कई जहां उनका अतीत पीछा नहीं छोड़ रहा.’

वहीं कन्हैया कुमार को रोक दिए जाने की वजहों पर संतोष सिंह कहते हैं, ‘कन्हैया वाले मामले में मैं कांग्रेस की रणनीतिक चूक देखता हूं. हमारी-आपकी समझ में कन्हैया कुमार बड़े नेता हो सकते हैं, लेकिन कांग्रेस के ढांचे में वे बड़े नेता नहीं हैं. यहां पद और वरीयता को तरजीह दी गई. कन्हैया जैसे नेता को गाड़ी या मंच पर जगह देने से यह दिखता कि कांग्रेस के पास भविष्य की राजनीति के लिहाज़ से कोई चेहरा है. हाल के दिनों में उन्होंने बिहार भर में पदयात्रा भी की है, तो उन्हें साथ न रखना रणनीतिक चूक है.’

ग़ौरतलब है कि 90 के दशक से ही कांग्रेस बिहार और उत्तर प्रदेश में कमजोर होती चली गई. उसका वोट बैंक अलग-अलग दलों और नेताओं के हवाले हो गया. पिछले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस महागठबंधन की सबसे कमजोर कड़ी साबित हुई थी. 70 सीटों पर लड़कर उसे सिर्फ़ 19 सीटों पर ही जीत मिली थी.

कहा और देखा गया कि कांग्रेस के ख़राब प्रदर्शन की वजह से ही महागठबंधन सत्ता में नहीं आ सका. हालांकि, हाल के दिनों में कांग्रेस की सक्रियता और राहुल गांधी के लगातार बिहार आने-जाने को लेकर तरह-तरह की बातें तो ज़रूर हो रही हैं. कांग्रेस अपनी ओर से मुख्यधारा में आने की कोशिश में लगी है.

राहुल गांधी सामाजिक न्याय और आरक्षण की बात को नए सिरे से उठा रहे हैं, लेकिन यह भी अपने तरह का सवाल है कि बिहार जैसे राज्य में जहां चेहरे बनाम चेहरे की राजनीति होती हो वहां किन्हीं मजबूत और भविष्य के चेहरों को ऐन मौक़े पर छोड़ने से कांग्रेस कितनी मजबूत होगी?

(लेखक बिहार में स्वतंत्र पत्रकार हैं.)