इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि संघ परिवार तब अपने असली रूप में था, जब उसने हिन्दू राष्ट्र के प्रति अपने तमाम समर्पण के बावजूद भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन कराया, फिर भाजपा को ‘गांधीवादी समाजवादी’ बनाया या अब, जब समाजवाद के साथ धर्मनिरपेक्षता को भी संविधान की प्रस्तावना से हटाना चाहता है?

पिछले दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने ‘समाजवादी’ व ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से हटाने की ‘जोरदार’ मांग की. इसके लिए उन्होंने इस ‘तर्क’ को आधार बनाया कि 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा देश पर थोपे गये आपातकाल के दौरान इन शब्दों को 42वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में तब जोड़ा गया था, जब समूचे विपक्ष को जेल में ठूंस दिया गया था और संसद की कार्यवाहियों में उसकी भागीदारी नहीं थी.
इसके बाद संघ परिवारियों में होसबोले के सुर में सुर मिलाने की होड़-सी लग गई. भले ही किसी भी तरफ से इस जवाबी तर्क का कोई जवाब नहीं आया कि इस तर्क को लागू किया जाए तो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्रीकाल में डेढ़-डेढ़ सौ सांसदों को निलंबित करके चलाई गई संसद की कार्यवाहियों में किये गये फैसलों को किस रूप में लिया जाये?
भरमाने के लिए!
बहरहाल, विडम्बना यह कि उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ तक ने इस होड़ में शामिल होने से परहेज नहीं किया. उन्होंने तो उल्टे इन दोनों शब्दों के प्रति अपनी हिकारत का भी भरपूर प्रदर्शन किया. केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता विश्वसरमा आदि को तो वैसे भी इस होड़ में आगे रहना था. इस होड़ से, स्वाभाविक ही, देश में व्यापक प्रतिक्रियाओं का जन्म हुआ, जिसके चलते इस मुद्दे पर विभिन्न कोणों से भरपूर विचार-विमर्श हुआ.
इसके बावजूद कि कई हलकों में यह भी कहा गया कि होसबोले द्वारा शिगूफे के तौर पर आगे की गयी इस मांग का उद्देश्य वास्तविक समस्याओं की ओर से देश का ध्यान हटाना है. ताकि बेलगाम होती जा रही महंगाई व बेरोजगारी और आर्थिक सामाजिक विषमताओं आदि के कारण नरेंद्र मोदी सरकार के विरुद्ध फैल रहा जनाक्रोश और न बढ़े और जब भी कोई चुनाव हो, भाजपा अपने भावनात्मक मुद्दों की ढीली होती जा रही फांस को फिर से कड़ी करके मतदाताओं को भरमा सके. सबको पता है कि वह ऐसे भावनात्मक मुद्दों के पोषण के लिए जानी जाती रही है और उनकी बिना पर मौका देखकर आसमान सिर पर उठाने और चुप्पी साध लेने का उसे भरपूर अभ्यास है.
फिर भी इस होड़ के हड़बोंग में एक कोण बचा रह गया. यह कि होसबोले ने इन दोनों शब्दों में अभिव्यक्त दो बेहद पवित्र संवैधानिक मूल्यों का अनादर ही नहीं किया, अपनी पार्टी व परिवार की उन आस्थाओं के दुरंगेपन व ढुलमुलपन को भी निर्वसन कर डाला, जिनको लेकर प्रायः आसमान सिर पर उठाने और देश को सौ-सौ नाच नचाने की उनकी फितरत जग जाहिर है.
जहां तक इन शब्दों के अनादर की बात है, उसको तो वे (संविधान की शपथ लेकर निर्वाचित व पदासीन उनके संवैधानिक पदाधिकारी भी) पहले ही उस बिंदु तक पहुंचा चुके हैं, जहां संविधान की प्रस्तावना में रहते हुए भी इन शब्दों की अप्रतिष्ठा अपने चरम पर जा पहुंची है. इसके बावजूद इनका संविधान की पोथियों में औपचारिक तौर पर बने रहना भी उनको गवारा नहीं है, तो इसके पीछे के उनके मंसूबों को समझना बहुत कठिन नहीं है. हां, इससे उनकी आस्थाओं व निष्ठाओं का ढुलमुलपन भी खूब उजागर होता है.
गौरतलब है कि 1977 में जनता पार्टी में विलीन भारतीय जनसंघ को उसमें व्यापक टूट-फूट के बाद 6 अप्रैल, 1980 को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के रूप में पुनर्जीवित किया गया तो उसने अपना जो ‘नया’ संविधान बनाया, उसमें पहले ही पृष्ठ पर लिखा था कि पार्टी विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान एवं समाजवाद, पंथनिरपेक्षता (धर्मनिरपेक्षता के इस्तेमाल से सायास बचने वाले संघ परिवारी उसके बदले यही शब्द इस्तेमाल करते हैं) और लोकतंत्र के प्रति सच्ची आस्था व निष्ठा रखेगी तथा भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखंडता को कायम रखेगी. ज्ञातव्य है कि उस समय भी ये दोनों शब्द संविधान की प्रस्तावना में विद्यमान थे, लेकिन तब वे आजकल की तरह उसे चुभते नहीं, बल्कि इस लायक लगते थे कि वह इनमें सच्ची आस्था व निष्ठा प्रदर्शित कर सके.
तब दोनों भाते थे
यह प्रदर्शन उसने किया भी. अलबत्ता, फैशन के तौर पर अपने समाजवाद को सबसे अलग जताने के लिए उसको ‘गांधीवादी समाजवाद’ कहा और अपनी पंथनिरपेक्षता को सकारात्मक पंथनिरपेक्षता.
ऐसा इसलिए कि तब उसे लगता था कि केंद्र की सत्ता का स्वाद चखने का यही रास्ता सबसे मुफीद है और इस पर चलती रहे तो कौन जाने मतदाता जल्दी ही उसे उसके उस ‘गुनाह’ की माफी दे दें जो उसने दोहरी सदस्यता के बहुचर्चित मुद्दे पर देश को 1977 में हासिल दूसरी आजादी का सुहाना सपना तोड़कर किया था.
लेकिन उसकी मंशा नहीं फली और मतदाताओं द्वारा उसे बुरी तरह नकार दिया गया. इंदिरा गांधी की हत्या के बाद के लोकसभा चुनाव में तो और भी. तब राजनीतिक रूप से अछूत बन जाने का खतरा उठा कर भी उसने तेजी से हिन्दुत्व के नाम पर बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की राह पकड़ ली.
फिर भी उसकी आंखों का पानी इतना नहीं मरा कि वह सीधे-सीधे घोषित कर सके कि उसकी एकमात्र सत्ता में आस्था ही असंदिग्ध है. शेष आस्थाओं को लेकर तो वह मौका और दस्तूर देखकर सिर्फ इसलिए आसमान सिर पर उठाती रहती है ताकि वे उसके सत्तारोहण की सीढ़ी बन जायें. यहां तक कि हिंदुओं की आस्था के बहाने अयोध्या में ‘वहीं’ राममंदिर निर्माण का विश्व हिंदू परिषद की अगुवाई वाला उसका ‘विराट’ आंदोलन भी उसकी राजनीतिक सुविधा पर ही आधारित है.
यहां याद किया जा सकता है कि बीती शताब्दी के नवें दशक में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की अलम्बरदारी ने उसे बढ़त दिलानी शुरू की तो भी वह इन दोनों शब्दों और उनमें अभिव्यक्त संवैधानिक मूल्यों को खुल्लमखुल्ला आंखें दिखाने की हिम्मत नहीं करती थी. उल्टे खुद को धर्मनिरपेक्ष जताने के ढोंग किया करती थी.
तब जहां उसके उदार माने जाने वाले नेता यह कहते थे कि उन्हें या उनकी पार्टी को किसी से धर्मनिरपेक्षता का पाठ पढ़ने की जरूरत नहीं है क्योंकि हिंदू स्वभाव से ही धर्मनिरपेक्ष हैं और उनके ही कारण देश भी, वहीं अनुदार नेता दूसरे दलों की धर्मनिरपेक्षता को धार्मिक अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के तुष्टीकरण से जोड़कर या छद्म करार देकर ही खुश हो लेते थे.
अनंतर, उनकी सत्ताकुल रणनीतिक चालाकी ने देखा कि इस चालाकी से बनाई गई बढ़त ने उन्हें केंद्र की सत्ता का पाला तो छुआ दिया, लेकिन उसके आगे नहीं ले जा पा रही तो मई, 1998 में दर्जनों दलों का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन बनाने के लिए राममंदिर में अपनी आस्था के साथ समान नागरिक संहिता और अनुच्छेद 370 के उन्मूलन का अपना एजेंडा भी ठंडे बस्ते में डाल दिया और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारों तक ही नहीं, 26 मई, 2014 को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बना लेने तक उसी में डाले रखा.
‘सच्ची आस्था’ की खिल्ली
मोदी के सत्तारोहण के बाद ही वह दौर आया, जब भाजपा और संघ के कई नेता, जिनमें उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और असम के मुख्यमंत्री हिमंता विश्वसरमा आदि भी शामिल हैं, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद में भाजपा द्वारा अपने जन्म के वक्त जताई गई ‘सच्ची आस्था’ की खुलेआम खिल्ली उड़ाने लगे.
फिर तो उन्होंने यह याद रखना भी जरूरी नहीं समझा कि 13 दिसम्बर 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया तो बाबासाहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने निराशा जताई थी कि उसमें साफ-साफ समाजवाद की बात नहीं कही गयी.
बाबासाहेब चाहते थे कि प्रस्ताव साफ-साफ शब्दों में समाजवाद की बात कहे ताकि सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय प्रदान किया जा सके. उन्होंने कहा था कि मेरी समझ में नहीं आता कि जब तक देश की अर्थ नीति समाजवादी नहीं होगी, किसी भावी हुकूमत के लिए यह कैसे सम्भव होगा कि वह देशवासियों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय प्रदान करे. सवाल है कि ऐसे में समाजवाद को प्रस्तावना में लाकर बात साफ कर दी गई, इमरजेंसी में ही सही, तो भला क्या ग़लत हुआ?
लेकिन उनका इस याद को जरूरी न समझना इस लिहाज से स्वाभाविक था कि भाजपा जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक भुजा है, उसके वैचारिक शिखर पुरुष माधव सदाशिव गोलवलकर का मानना था कि समाजवाद इस (यानी भारत की) मिट्टी की उपज तो नहीं ही है, हमारे (यानी भारतीयों के) रक्त और परम्पराओं में नहीं है. अपने ‘बंच आफ थाट्स’ में उन्होंने लिखा है कि हमारे सहस्रों वर्षों के राष्ट्र जीवन की परम्पराओं एवं आदर्शों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं.
यहां के हमारे करोड़ों लोगों के लिए यह विचार परकीय है. ऐसा होने के कारण इसमें हमारे हृदयों को पुलकित और समर्थ एवं चारित्र्य सम्पन्न जीवन के लिए प्रेरित करने की शक्ति नहीं है. इस प्रकार हम देखते हैं कि इसमें हमारे राष्ट्रीय जीवन के आदर्श की आवश्यकता पूर्ण करने की शक्ति प्रारंभिक योग्यता भी नहीं है. वे ‘जनतांत्रिक समाजवाद’ और ‘समाजवादी जनतंत्र’ शब्दों की भी आलोचना करते और मानते थे कि समाजवाद जनतंत्रात्मक नहीं हो सकता.
असली रूप?
लेकिन इससे इस सवाल का जवाब नहीं मिलता कि संघ परिवार तब अपने असली रूप में था, जब उसने हिन्दू राष्ट्र के प्रति अपने तमाम समर्पण के बावजूद भारतीय जनसंघ को जनता पार्टी में विलीन कराया, फिर भाजपा को ‘गांधीवादी समाजवादी’ बनाया या अब, जब समाजवाद के साथ धर्मनिरपेक्षता को भी संविधान की प्रस्तावना से हटाना चाहता है?
उसकी यह चाह इस तथ्य के बावजूद है कि केशवानंद भारती और मिनर्वा मिल्स के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय धर्मनिरपेक्षता को संविधान की बुनियादी विशेषता बता चुका है, जो मूल अधिकार के रूप में धर्म की स्वतंत्रता की गारंटी में भी अन्तर्निहित है.
बहुचर्चित बोम्मई मामले में सर्वोच्च न्यायालय की नौ सदस्यीय संविधान पीठ यह भी स्पष्ट कर चुकी है कि धर्मनिरपेक्षता का अर्थ यह नहीं है कि राज्य का धर्म के प्रति शत्रु भाव है. इसका अर्थ यह है कि राज्य विभिन्न धर्मों के बीच तटस्थ है और प्रत्येक व्यक्ति को अपना धर्म मानने और उस पर आचरण करने की स्वतंत्रता है.
संघ परिवार का इस चाह वाला रूप ही असली है और बाकी सारे दांत दिखाने के हैं तो देश को समझने में देर नहीं करनी चाहिए कि हिन्दू राष्ट्र के उसके लक्ष्य को पूरा करने के रास्ते में देश का धर्मनिरपेक्ष संविधान ही सबसे बड़ी बाधा है और इसीलिए वह संविधान की शपथ लेकर राजकाज चलाओ रहे अपने स्वयंसेवकों को तरह-तरह से उसको खत्म करने की व्यूह रचना में लगाये हुए है. इस सिलसिले में ढाढ़स की बात इतनी-सी ही है कि सर्वोच्च न्यायालय अपने अनेक निर्णयों में स्पष्ट कर चुका है कि संविधान के बुनियादी ढांचेा के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती और बुनियादी ढांचे में एक तत्व धर्मनिरपेक्षता भी है.
लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के अपने बूते बहुमत न पा सकने के बावजूद संघ और भाजपा इस ढांचे से छेड़छाड़ की नई व्यूह रचनाओं से बाज नहीं आ रहे तो साफ है कि वे अपने उन हिंदुत्ववादी मतदाताओं को, जिनके बूते 2014 व 2019 के लोकसभा चुनावों में सुनहरे दिन देखे, यह आश्वासन देते रहना चाहते हैं कि वे नाउम्मीद न हों और उस दिन के सपने देखते रहें जब भाजपा को संसद के दोनों सदनों में प्रचंड बहुमत मिल जाये वह देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर सकने की स्थिति में आ जाये. भले ही यह आश्वासन देते हुए उनके अंतिम लज्जा वसन भी उतरे जा रहे हों.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)