उपराष्ट्रपति का इस्तीफ़ा लोकतंत्र पर धब्बा, लेकिन अब राजस्थान की राजनीति क्या करवट लेगी?

जगदीप धनखड़ राजस्थानी किसान हैं, जो कई बार ज़मीन और फ़सल की हिफ़ाज़त के लिए झुक जाता है. लेकिन जब उसे लगता है कि पानी सिर से गुज़र रहा है तो वह पटखनी देने में देर नहीं लगाता. उसकी वह पटखनी किसी विद्रोही से भी अधिक ख़तरनाक़ होती है.

लोकतंत्र में कब पद और प्रतीक अचानक इस तरह मौन हुए हैं? लोकतंत्र की स्थिरता केवल संस्थाओं के बने रहने से नहीं, उनमें निहित पारदर्शिता, उत्तरदायित्व और संवाद की निरंतरता से सुनिश्चित होती है. किसी सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति बिना पूर्व संकेत, बिना स्पष्ट सार्वजनिक कारण इस्तीफ़ा दे तो यह घटना केवल व्यक्तिगत निर्णय नहीं रहती; एक ऐसी अनुगूंज बन जाती है, जो पूरे लोकतांत्रिक तंत्र को प्रश्नांकित करती है.

उपराष्ट्रपति का इस्तीफ़ा ऐसा ही क्षण है.

एक ऐसा मोड़, जहां लोकतंत्र के यथार्थ और आत्मा के बीच का अंतर और भी स्पष्ट हो जाता है. इस संदर्भ में हम विश्व के विभिन्न लोकतंत्रों में हुए कुछ ऐसे ही असामान्य, लेकिन चौंकाने वाले इस्तीफ़ों का अवलोकन कर सकते हैं. इस विवेक के साथ कि हर पद, हर निर्णय और हर चुप्पी न्याय के सिद्धांतों की कसौटी पर कसी जानी चाहिए. लेकिन यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं कि इस आकस्मिक इस्तीफ़े का असर उस राजस्थान की राजनीति पर क्या होगा, जहां से जगदीप धनखड़ आते हैं?

अधिकतर राजनीतिक लोगों की मान्यता है कि इसका राजस्थान पर ख़ास असर नहीं; क्योंकि विधानसभा चुनाव अक्तूबर 2028 में हैं और लोकसभा उसके बाद. और धनखड़ पहले तो दो दशक राजनीतिक बियाबान में रहे और जब अचानक परिदृश्य पर आए तो भाजपा ने ही उन्हें बनाया. लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है?

धनखड़ दोस्तों के दोस्त हैं और निजी जीवन में बहुत लोकतांत्रिक व्यक्ति हैं. वे विचारभिन्नता वाले अदने से दोस्तों की लंबी-लंबी फ़ेसबुक पोस्ट तक पढ़ लेते हैं और मौक़ा मिलने पर अपने हास्यबोध वाले कटाक्ष से चूकते भी नहीं. वे राजस्थानी किसान हैं, जो कई बार ज़मीन और फ़सल की हिफ़ाज़त के लिए अफ़सरों को घूस भी खिलाता है, झुक भी जाता है, काठ जैसी रीढ़ को रबरनुमा करने का माद्दा भी रखता है; लेकिन जब उसे लगता है कि पानी सिर से गुजर रहा है तो वह पटखनी देने में देर नहीं लगाता. उसकी वह पटखनी किसी विद्रोही से भी अधिक ख़तरनाक़ होती है. राजस्थान में संगरिया और घड़साना के किसान आंदोलनों की इबारत सियासी तौर पर यही सबक़ देती है.

ख़ैर, धनखड़ अगर अक्स-अक्स छुपा हूं हज़ार शीशों में वाली अदा नहीं रखते तो दो दशक से भी अधिक समय तक सियासी बियाबान में रहने के बावजूद अचानक एक दिन पश्चिम बंगाल के राज्यपाल और फिर उपराष्ट्रपति नहीं बना दिए जाते. लेकिन अगर उनके अतीत और सियासी रंगों की पड़ताल करें तो हमें उस कालखंड को याद करना होगा, जब देश में ताऊ देवीलाल और वीपीसिंह का परचम लहरा रहा था.

वे देवीलाल के बहुत करीब थे और उन्होंने 1989 की राजीव विरोधी लहर में झुंझुनूं लोकसभा सीट से जीत हासिल की. चंद्रशेखर सरकार में वे केंद्रीय संसदीय कार्य उप मंत्री रहे.

राजस्थान में 27 फरवरी, 1990 को विधानसभा की 200 सीटों के नतीजे आए तो भाजपा को सबसे अधिक सीटें 85 सीटें मिलीं और कांग्रेस महज 50 सीटों पर सिमट गई. जनता दल ने 55 सीटें जीतीं, जो कांग्रेस से पांच अधिक थीं. 1991 का लोकसभा चुनाव आया तो कांग्रेस ने उन्हें अजमेर लोकसभा से टिकट दिया और वे भाजपा के रासासिंह रावत से चुनाव हार गए. यह वह दौर था जब वे भाजपा और आरएसएस को इस देश के सामाजिक तानेबाने को बिगाड़ने और किसान विरोधी राजनीति के लिए जिम्मेदार ठहराते थे.

धनखड़ रिश्ते बनाने और वक्तृत्व कला के इतने माहिर हैं कि उनमें वैचारिक दूरियों को पार करके सामने वाले को मोह लेने की ख़ूबी ग़ज़ब है. उनके विरोधी उन्हें मौक़ापरस्त करार देते हैं तो निजी तौर पर धनखड़ मानते आए हैं कि जब-जब उनकी प्रतिभा को पहचाना गया तो राजनीतिक दलों ने उन्हें मौक़ा दिया. वे किसी से कभी कुछ मांगने नहीं गए. साल 1993 का चुनाव आया तो कांग्रेस ने अपनी नेता प्रभा ठाकुर का टिकट काटकर धनखड़ को किशनगढ़ से टिकट दिया और वे विधायक बन गए.
क्या जाट समुदाय प्रभावित होगा

27 सितंबर, 2023 को राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने विधानसभा चुनाव शुरू होने से ठीक पहले धनखड़ के राजस्थान दौरों को लेकर आपत्ति जताते हुए कहा था कि उपराष्ट्रपति एक दिन में चार-चार पांच-पांच दौरे कर रहे हैं. गहलोत ने आरोप लगाया था कि वे यहां इसलिए इतने दौरे कर रहे हैं क्योंकि यहां चुनाव हैं.

चुनाव के नतीजे आए तो साफ़ हुआ कि भाजपा को विधानसभा चुनाव में जाट वोटों का फ़ायदा भी हुआ है, लेकिन सभी राजनीतिक प्रेक्षक इस बात से सहमत हैं कि

जिस तरह उनका इस्तीफ़ा हुआ है, उससे प्रदेश का जाट हृदय आहत हुआ है. प्रदेश की एलीट जाट राजनीति के चेहरे रहे धनखड़ को लेकर अब आसन्न पंचायती राज चुनाव में भाजपा को झटका लग सकता है.

राजस्थान के जाट समूहों में दो दिन से सत्यपाल मलिक, चौधरी वीरेंद्र सिंह, दुष्यंत चौटाला, रामसिंह कस्वां, कमला कस्वां, राहुल कस्वां, सुनील जाखड़, संजीव बालियान आदि नामों को लेकर तरह-तरह की चर्चाएं हैं और भाजपा के जाट विरोधी होने की तर्क-वितर्क भरपूर चल रहे हैं. हरियाणा के चुनाव प्रभारी रहे सतीश पूनिया को लेकर भी राजस्थान के जाटों में नाराज़गी हैं, क्योंकि उन्हें प्रदेशाध्यक्ष पद से अचानक हटा दिया गया था.

राजस्थान में जाट सियासत का मौसम तो उसी समय बदल गया था जब जाट की बहू, राजपूत की बेटी और गुर्जर की समधन कहलाने वाली ताक़तवर नेता वसुंधरा राजे को हाशिए पर किया गया था. बिजलियां बहुत चमकीं, लेकिन भाजपा की क़ामयाबियों का मंज़र बिलकुल नहीं भीगा. अब माना जा रहा है कि राजस्थान में भाजपा से जुड़े किसी उपेक्षित जाट नेता का भाग्योदय होना तय है.

राजनीतिक तौर पर अब यह दिख रहा है कि प्रदेश में जाटों की राजनीति करने वाले राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी के नेता हनुमान बेनीवाल इन हालात का पूरा फ़ायदा उठाएंगे. यह घटनाक्रम उन बेनीवाल के लिए सियासी संजीवनी है, जो मारवाड़ के जाटलैंड में कुछ समय पहले उपचुनावों में भाजपा से मामूली अंतर से हार गए थे.

राजस्थान के जाट फिलहाल मुखर तो नहीं; लेकिन अंदरूनी तौर पर उनको यह सुहा नहीं रहा कि हरियाणा में एंटी जाट राजनीति करके वाली पार्टी उनका ख़याल रखेगी. और इसी समय हुए धनखड़ के इस्तीफ़े से जो चोट आई है, उससे जाट मिज़ाज बदलने वाला है क्योंकि कांग्रेस ने भाजपा से आए जाट सांसद राहुल कस्वां को तो सहेजा है ही, प्रदेश की कमान भी एक जाट गोविंदसिंह डोटासरा के हाथों में है. कस्वां परिवार जनसंघ के समय से भाजपा के साथ रहा है.

प्रदेश में भाजपा नेता और आरएसएस के ट्रेड यूनियन लीडर ज्ञानदेव आहूजा ने कुछ समय पहले प्रदेश के दलित नेता और नेता प्रतिपक्ष टीकाराम जूली के पूजा करने के बाद एक मंदिर को गंगाजल को धोया था. इस घटना के बाद भाजपा ने आहूजा को पार्टी से बर्खास्त तो कर दिया; लेकिन मुद्दा शांत नहीं हुआ. इसके तत्काल बाद सीनियर आईपीएस और दलित समुदाय के संवेदनशील चेहरे रविप्रकाश मेहरड़ा को बिना डीजीपी बनाए रिटायर कर देना भी प्रदेश के दलित समुदाय में नाराज़गी का विषय बना हुआ है. ऐसे में कांग्रेस प्रदेश नेतृत्व जाट और विधायक दल की कमान एक दलित के हाथ में होने से भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग काफी लड़खड़ा गई है.

कांग्रेस के सीनियर नेता अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद ऐसे जाट भी अब कांग्रेस में अधिक सक्रिय हैं, जो उन्हें जाट सीएम की राह में अड़चन मानते आए थे. कुछ समय पहले जिस तरह भाजपा सरकार के दलित उपमुख्यमंत्री प्रेमचंद बैरवा के ख़िलाफ़ अंदरूनी तौर पर अभियान चलाया गया, उसके चलते भी दलित समुदाय में भारी नाराज़गी है.

राजस्थान की राजनीति में जातियां बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह मुखर तो नहीं हैं, लेकिन वे राजनीतिक दलों की उस भाषा को आसानी से बांचने में क़ामयाब रहती हैं, जहां चालाक राजनीतिक दल सियासी सफ़र में चलते-चलते अचानक चुपके से रास्ता बदलने लगते हैं. धनखड़ के इस्तीफ़े के मामले में भाजपा के इस रुख को लेकर जाट समुदाय की भौंहें तनी हुई हैं, भले ही भाजपा उसे प्रेम में डूबी एक जाति का कटाक्ष मानकर चलती रहे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)