वो वीरांगनाएं, जो स्वतंत्रता के लिए जो प्राण-प्रण से लड़ीं…

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हम ऐसी आठ महिला स्वतंत्रता सेनानियों को याद कर रहे हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के बहुविध संघर्ष में अपनी भरपूर चमक बिखेरी. इन्हें इस रूप में याद करना इस अर्थ में बहुत प्रासंगिक है कि आज की तारीख में न सिर्फ इनके, बल्कि प्रायः सारी महिला सेनानियों द्वारा स्वतंत्रता संघर्ष में दिए गए योगदानों को विस्मृति के गर्त में धकेल दिया गया है.

अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन में दो अप्रतिम महिला स्वतंत्रता सेनानियों (अरुणा आसफ अली और मातंगिनी हाजरा) द्वारा प्रदर्शित अपूर्व बहादुरी की बाबत पढ़ चुके हैं. आज ऐसी आठ और महिला स्वतंत्रता सेनानियों को याद कर रहे हैं, जिन्होंने स्वतंत्रता के बहुविध संघर्ष में अपनी भरपूर चमक बिखेरी.

इन्हें इस रूप में याद करना इस अर्थ में बहुत प्रासंगिक है कि आज की तारीख में न सिर्फ इनके बल्कि प्रायः सारी महिला सेनानियों द्वारा स्वतंत्रता संघर्ष में दिए गए योगदानों को विस्मृति के गर्त में धकेल दिया गया है. यह तब है, जब वे किसी भी मायने में पुरुषों के योगदानों से कमतर नहीं है. न अहिंसक संघर्ष में, न सशस्त्र, न भूमिगत गतिविधियों के संचालन में और न देशवासियों को जगाने में. और यह तब है जब उनकी गुलामी दोहरी थी, वे अंग्रेजों के साथ अनेक सामाजिक रूढ़ियों की भी गुलाम थीं.

हां, बताना जरूरी है कि यह आठ की संख्या इन महिला सेनानियों की संख्या की नहीं, स्थान की उपलब्धता की सीमा है. अन्यथा इस श्रृंखला में कस्तूरबा गांधी, भीकाजी कामा, विजयलक्ष्मी पंडित, हंसा मेहता, कमला नेहरू, कल्पना दत्त, भीमाबाई होल्कर और राजकुमारी अमृत कौर जैसी और भी अनेक विभूतियां हैं.

बेगम, जो वीरांगना बन गई

बेगम हजरतमहल यों तो 1856 में अंग्रेजों द्वारा छलपूर्वक अपदस्थ कर दिए गए अवध के नवाब वाजिद अली शाह की अनेक बेगमों में से एक थीं, लेकिन इतिहासकार उनका परिचय 1857 के स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी वीरांगना के रूप में देते हैं, जिसकी बदौलत उस संग्राम में लखनऊ ने दिल्ली से कहीं ज्यादा पराक्रम प्रदर्शित किया और उसके पतन के महीनों बाद तक गोरों से लोहा लेता रहा.

इस वीरांगना का जन्म कब और कहां हुआ, किसी को भी ठीक से नहीं मालूम. जो मालूम है वह यह कि इस स्वतंत्रता संग्राम में उसने, जब जैसी जरूरत पड़ी, युद्ध के मोर्चें से सत्ता संचालन तक में अनूठे ओज व तेज का प्रदर्शन किया. देशभक्त फौजों की रसद, गोलाबारूद, अस्त्र-शस्त्र और तनखाह के लिए अपने बेशकीमती जेवर तक बेच डाले.

उसने अपनी सेना व जासूसों के तंत्र में महिलाओं को कुछ इस तरह शामिल किया कि अंग्रेज सैनिक उन्हें मरदाने वेश में हथियार बांधकर लड़ती देखकर दांतों तले उंगलियां दबा लेते थे. निर्णायक मुकाबलों में यह वीरांगना खुद हाथी पर सवार होकर मोर्चें पर जाती और विपरीत परिस्थितियों में भी ‘आफत की परकाला’ बन जाती थी. अंतिम दिनों में पराजय को सामने खड़ी देखकर भी वह विचलित नहीं हुई. 11 मार्च, 1858 को एक ओर अंग्रेज लखनऊ में घुसे आ रहे थे और
दूसरी ओर उसने बहादुरशाह जफर के बेटों के कातिल कर्नल हडसन को मौत के घाट उतरवा दिया था. कुछ ही दिनों बाद लखनऊ का पतन हो गया तो उसने नेपाल में बेचारगीभरा दर्दनाक निर्वासन भी झेला और 1879 में 17 अप्रैल को वहीं अंतिम सांस ली .

रानी, जो खूब लड़ी

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जो भूमिका निभाई, उसे सबसे अच्छे ढंग से, उनका मुकाबला करने वाले गोरे जनरल ह्यूरोज की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है कि रानी अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता में तो अप्रतिम थी ही, बागी नेताओं में सबसे खतरनाक भी थी.

हम जानते हैं कि 21 नवंबर, 1853 को राजा गंगाधर राव नेवालकर के निःसंतान निधन के बाद अंग्रेज गवर्नरजनरल लार्ड डलहौजी ने झांसी पर ‘डॉक्ट्रिन आफ लैप्स’ का कहर बरपाना चाहा (जिसके तहत निःसंतान राजाओं की मौत के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी उनके दत्तक पुत्र-पुत्रियों की विरासत को मान्यता न देकर उनके राज्य हड़प लेती थी) तो रानी लक्ष्मीबाई ने ‘मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी’ के उद्घोष के साथ कैसी वीरता से विकट युद्ध किया और अपने रहते कंपनी का मंसूबा पूरा नहीं होने दिया था.

इतिहासकारों के अनुसार, लार्ड डलहौजी ने डॉक्ट्रिन आफ लैप्स के तहत सात मार्च, 1854 को एक फरमान निकाला और इरादतन होली के दिन ही झांसी पहुंचाया था. फरमान के साथ एक इश्तिहार भी था, जिसमें लिखा था कि अब कंपनी की ओर से झांसी का शासन मेजर एलिस चलाएंगे.

इसके बाद रानी ने होली के सारे समारोह रद्द कर दिए और झांसी के भविष्य पर छाए काले बादलों से निपटने की योजनाएं बनाने लगी थीं. तब से डेढ़ से ज्यादा शताब्दियां बीत गईं, लेकिन झांसी के लोग उस फरमान के आने, रानी द्वारा उसे अंगूठा दिखाने और अंग्रेजों के विकट हमले से झांसी को बचाते हुए वीरगति पाने की याद में होली के दिन होली नहीं मनाते.

अवध की लक्ष्मीबाई

1857 में बागी हुए अवध के राजे-रजवाड़ों में से अनेक लखनऊ के पतन के बाद हवा का रुख देखकर बदल गए और अंग्रेजों से जा मिले. लेकिन गोंडा जिले में स्थित तुलसीपुर की रानी ईश्वरीकुमारी से (जिन्हें इतिहासकार ‘अवध की रानी लक्ष्मीबाई’ कहते हैं) ऐसा समझौता गवारा नहीं हुआ.

उन्होंने अवध के अंतिम नवाब बिरजिसकदर व उनकी मां बेगम हजरतमहल को अपने यहां शरण दे दी तो उनसे पहले से ही कुपित अंग्रेज और कुपित हो उठे.

दरअसल, अंग्रेजों ने तुलसीपुर के राजा दृगनारायण सिंह को अरसे से लखनऊ के बेलीगारद में नजरबंद कर रखा था. बगावत भड़की तो उनपर दबाव डाला कि वे उसे कुचलने में मदद करें और उनके इनकार पर उन्हें गोली मार दी.

सत्ता रानी ईश्वरीकुमारी के हाथ आयी तो अवध को एक और बेगम हजरतमहल मिल गई. अंग्रेज बार-बार हमले करके भी उन्हें परास्त नहीं कर सके तो जनरल होपग्रांट व ब्रिगेडियर रोक्राफ्ट ने धावा बोला. यह विकल्प खुला रखते हुए कि रानी बेगम हजरतमहल व बिरजिसकदर को उन्हें सौंप दें और निर्भय राज करें.

लेकिन ईश्वरीकुमारी ने यह जानते हुए भी कि उनके मुट्ठी भर सैनिक विशाल अंग्रेजी सेना का कुछ बिगाड़ नहीं पायेंगे, भीष्म प्रतिज्ञा की कि बिरजिस व बेगम के सुरक्षित निकल जाने तक फिरंगियों को तुलसीपुर में घुसने नहीं देंगी.

उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा निभाई भी. बिरजिस व बेगम निकल गए तो उन्होंने कदम पीछे खींचे, दुधमुंहे बेटे के साथ घोड़े की पीठ पर बैठीं और सुराही दर्रे से नेपाल सीमा पर स्थित दांग-देवखुर की घाटियों में जा समाईं.

सुचेता यानी अपनी मिसाल आप
वर्ष 1936 में महात्मा गांधी द्वारा विरोध के बावजूद उनके ‘दाहिने हाथ’ आचार्य जेबी कृपलानी से ‘बेमेल’ व अंतर्जातीय प्रेम विवाह करने और 1940 में महिलाओं के अधिकारों के लिए संघर्ष के उद्देश्य से अखिल भारतीय महिला कांग्रेस का गठन करने वाली सुचेता कृपलानी बिना झुके या घुटने टेके अपने फैसले करने के लिए जानी जाती थीं.

अंग्रेजों से संघर्ष में कुछ भी उठा न रखने वाली सुचेता ने अपने प्रेम विवाह के वक्त नाराज महात्मा गांधी को वचन दिया था कि वे कृपलानी की शक्ति बनेंगी, कमजोरी नहीं और इस तरह उनको एक के बजाय दो-दो ‘दाहिने हाथ’ मिल जाएंगे.

इसके बावजूद महात्मा ने उन्हें इस विवाह की इजाजत भर दी थी, आशीर्वाद नहीं. इससे पहले यह भी सुझाया था कि वे किसी और से विवाह कर लें. लेकिन सुचेता ने कह दिया था कि उनका प्रेम कृपलानी से, और विवाह किसी और से करना अनैतिक होगा.

सुचेता ने महात्मा को दिया गया वचन भी पूरी निष्ठा से निभाया. 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भाग लेकर वे एक साल जेल में भी रहीं. आज़ादी के वक्त नोआखाली भीषण दंगों की आग में झुलसने लगा तो अनहोनियों के तमाम अंदेशों के बावजूद महात्मा के साथ उसे बुझाने गईं. उन दिनों वे अपने साथ सायनाइड रखा करती थीं ताकि मानमर्दन की नौबत आए तो उसे खाकर जान दे दें.

विभाजन के बाद शरणार्थियों के पुनर्वास में भी उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. एक और खास बात यह कि वे गाती बहुत अच्छा थीं. पं. नेहरू के ‘ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ वाले ऐतिहासिक भाषण सेे पहले ‘वंदेमातरम’ उन्होंने ही गाया था.

कोकिला, जो भरपूर कूकी

भारतकोकिला सरोजिनी नायडू प्रख्यात कवयित्री व स्वतंत्रता सेनानी तो थीं ही, बहुभाषाविद और महिलाओं में जागरूकता की फिक्रमंद कार्यकर्ता भी थीं. 1925 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली ‘भारतीय महिला’ अध्यक्ष बनीं तो पहली महिला अध्यक्ष एनी बेंसेंट की गहरी दोस्त मानी जाती थीं. बापू उन्हें अपनी सबसे प्रिय शिष्या कहते थे, जबकि विनोद में वे उन्हें ‘मिकी माउस’ कहती थीं. उन्हें बिहार से संविधान सभा की सदस्य भी चुना गया था.

छुटपन में ही साहित्य-सृजन की ओर उन्मुख सरोजिनी को उनके ‘माहेर मुनीर’ नामक नाटक ने पहली पहचान दिलाई थी, जबकि ‘गोल्डन थ्रैशोल्ड’ उनका पहला कविता संग्रह था. बाद में उनके दूसरे तथा तीसरे कविता संग्रहों-बर्ड ऑफ टाइम तथा ब्रोकन विंग-ने कवयित्री के रूप में उनकी पहचान को मुकम्मल कर दिया था.

वर्ष 1905 में बंगाल विभाजन के त्रासद दौर में वे देश के राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होकर स्वतंत्रता संग्राम में कूदीं तो पीछे मुड़कर नहीं देखा-सविनय अवज्ञा आंदोलन में बापू के साथ जेल गईं तो 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में भी 21 महीने जेल में रहीं. नमक सत्याग्रह के दौरान भी वे बापू के साथ थीं और उनकी गिरफ्तारी के बाद उनकी ज्यादातर जिम्मेदारियां वही संभालती थीं. अपनी सामाजिक राजनीतिक सक्रियताओं के बावजूद उन्होंने अपनी साहित्य-सेवा से कभी समझौता नहीं किया.

वे सार्वजनिक जीवन में गहरी ईमानदारी, भाषणों में अधिक साहस और कार्रवाई में अधिक ईमानदारी की पैरोकार थीं. उन्नीसवीं शताब्दी के अंत के वर्षों में देश में प्लेग की भीषण महामारी फैली तो लोगों को उससे बचाने के लिए भी उन्होंने जी-जान लगा दी थी.

‘दूसरे घर’ की लड़ाई लड़ी
सभ्यता और राष्ट्रीयता को सहचर मानने और धर्म में गहरी दिलचस्पी रखने वाली आयरिश मूल की रचनात्मक लेखिका, प्रभावशाली वक्ता और कई भाषाओं की जानकार ऐनी बेंसेंट के लिए भारत ‘दूसरा घर’ था और उन्होंने भारतीयों की आज़ादी व अधिकारों के लिए बहुविध लड़ाइयां लड़ीं. उन्होंने भारत को एक लासानी सभ्यता के रूप में स्वीकार किया और पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की कड़ी आलोचना करते हुए उसको गले लगाया था.

बताते हैं कि उन्होंने 1878 में पहली बार भारत के बारे में अपने विचार प्रकट किए. अनंतर, 1893 में पहली बार भारत आईं तो अपने विचारों ने भारतीयों का दिल जीत लिया. इससे पहले 21 मई, 1889 को थियोसोफी से प्रभावित होकर वे थियोसोफिकल सोसायटी से जुड़ गई थीं और 1907 में उसकी अध्यक्ष निर्वाचित हुई थीं. आगे चलकर उन्होंने निर्धनों की सेवा में आदर्श समाजवाद के दर्शन किए और शोषितों व गरीबों की दशा सुधारने के लिए जीवनपर्यंत काम किया.

वे भारत के संघर्ष में अहम भूमिका निभाने वाली स्वतंत्रता सेनानी और प्रख्यात समाज सुधारक के रूप में भी जानी जाती है. 1917 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की पहली महिला अध्यक्ष भी बनी थीं.

अपने ऐतिहासिक होमरूल आंदोलन से उन्होंने न सिर्फ भारतीयों में चेतना जगाई, बल्कि बाल गंगाधर तिलक के साथ मिलकर होम रूल लीग की स्थापना की और स्वराज के आदर्श को खूब लोकप्रिय बनाया था. 20 सितंबर, 1933 को अड्यार (मद्रास) में अपने निधन से पहले वे इच्छा व्यक्त कर गई थीं कि उनकी अस्थियों को गंगा में प्रवाहित कर दिया जाये. उनकी इस इच्छा का सम्मान किया गया था.

गुप्त रेडियो स्टेशन चलाया

आजीवन अविवाहित रहकर स्वतंत्रता संघर्ष में जूझती रही उषा मेहता ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भूमिगत रहकर ‘गुप्त कांग्रेस रेडियो’ के संचालन में बड़ी भूमिका निभाई थी. चूंकि तत्कालीन परिस्थितियों में यह बड़े जोखिम का काम था, इसलिए उन्हें मुख्यतः इसी के लिए याद किया जाता है. हालांकि देश की स्वतंत्रता के लिए उनका योगदान इतना ही नहीं था.

14 अगस्त, 1942 को उनके द्वारा कुछ सहयोगियों के साथ शुरू किए गए इस भूमिगत रेडियो स्टेशन के प्रसारण तीन महीने तक होते रहे थे. सरकारी अधिकारी उसका पता न लगा सकें, इसके लिए उसका प्रसारण स्थल प्रतिदिन बदल दिया जाता था. उषा की आवाज में उस पर प्रसारित पहले शब्द थे : यह भारत में कहीं से 42.34 मीटर तरंग दैर्ध्य पर कॉल कर रहा कांग्रेस रेडियो है.

इस रेडियो स्टेशन ने गोरी सरकार द्वारा प्रतिबंधित खबरों और सूचनाओं को प्रसारित करके भारत छोड़ो आंदोलनकारियों की बहुत मदद की थी. उषा के मुताबिक इस रेडियो स्टेशन का संचालन उनके जीवन के सबसे बेहतरीन पलों में से था, जबकि सबसे दुखद यह कि वे एक भारतीय तकनीशियन के धोखे के चलते पकड़ी गईं.

मुकदमे के दौरान उन्होंने उनसे पूछे गए एक भी सवाल का उत्तर नहीं दिया. 1942 से 1946 तक चार साल की सजा सुनाई गई तो बीमार होने तक उसे पुणे की यरवदा जेल में काटा. वे आठ वर्ष की उम्र में ही स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय हो गई थीं. बॉम्बे में थीं तो जेलों में जाकर कैेदी स्वतंत्रता सेनानियों तक गुप्त बुलेटिन व संदेश पहुंचाया करती थीं.

क्रांतिकारियों की भाभी

यों तो उनका नाम दुर्गावती देवी था, लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद के प्रधान सेनापतित्व वाली हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के तहत क्रांतिकर्म में सक्रिय होने के बाद उसके क्रांतिकारी उनको ‘दुर्गा भाभी’ कहने लगे, क्योंकि कि वे उनके आंदोलन के सिद्धांतकार भगवतीचरण वोहरा की पत्नी थीं.

1918 में 11 साल की उम्र में ही वे वोहरा से ब्याह दी गई थीं, लेकिन उन्होंने इस बाल विवाह को अपने या उनके रास्ते की बाधा नहीं बनने दिया था और क्रांतिकर्म में उनके कंधे से कंधा मिलाकर चलती रही थीं. एक बम परीक्षण में उनके असमय निधन के बाद भी वे क्रांतिकारियों की सहयोगी व सलाहकार बनी रहीं.

कुख्यात साइमन कमीशन के विरुद्ध प्रदर्शन में पुलिस लाठीचार्ज से घायल लाला लाजपतराय की मौत के बाद वे लाठीचार्ज का आदेश देने वाले लाहौर के एसपी जेम्स स्काॅट को खुद ही मार देना चाहती थीं, लेकिन बाद में भगत सिह, सुखदेव व राजगुरु वगैरह ने इसका जिम्मा संभाला और गलत पहचान के कारण स्काॅट के सहायक जाॅन सांडर्स को मार दिया. इसको लेकर अंग्रेज उनके पीछे पड़ गए तो भगत सिंह को पुलिस की नजरों से दूर ले जाने की एक योजना में दुर्गा भाभी ने भेष बदलकर उनकी पत्नी की भूमिका भी निभाई.

नौ अक्टूबर, 1930 को उन्होंने क्रूर अंग्रेज गवर्नर लॉर्ड हैली पर गोली भी चलाई थी, लेकिन वह बच गया था. वे पिस्तौल चलाने में सिद्धहस्त थीं और इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क में गोरी पुलिस से अंतिम मुठभेड़ के वक्त चंद्रशेखर आज़ाद के पास जो पिस्तौल थी, वह उन्होंने ही उन्हें दी थी.