वही पुराना विभाजनकारी राग, स्वतंत्रता दिवस पर प्रधानमंत्री का भाषण छोड़ गया निराश

अपने देश में जातीय-राष्ट्रवादी नेता और वैश्विक मंच पर उदार राजनेता की दोहरी भूमिका निभाना नरेंद्र मोदी के लिए संभव नहीं है. जब प्रधानमंत्री देश के बाहर मूल्यों के पैरोकार के रूप में खुद को प्रस्तुत करते हैं, जबकि घर में संस्थानों की स्वायत्तता पर अंकुश लगाते हैं, तो वैश्विक नेता इस विरोधाभास को न सिर्फ़ पहचानते हैं बल्कि उसे भारत के विरुद्ध इस्तेमाल भी करते हैं.

लाल क़िले से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वतंत्रता दिवस भाषण पर दिया भाषण एक बार फिर उस चिंताजनक प्रवृत्ति को दर्शाता है, जिसने उनके कार्यकाल को परिभाषित किया है. वो है, हर नागरिक की चिंताओं और आकांक्षाओं के संरक्षक के रूप में पार्टी रेखाओं से ऊपर उठकर बोलने में असमर्थता.

प्रधानमंत्री को हर भारतीय का प्रतिनिधि होना चाहिए था, जिसकी आवाज़ आम भारतीय के साथ गूंजती हो. इसके बजाय उनके संबोधन ने उनके उसी राजनीतिक अंदाज़ को मज़बूत किया, जो आम सहमति बनाने की बजाय लगातार पक्षपातपूर्ण पहचान-आधारित लामबंदी की ओर झुकता है.

यह दृष्टिकोण उनके चुनावी रणनीति के अनुरूप ही है, जो एक खास ध्रुवीकरण को आंच देता है. उनकी बयानबाज़ी अक्सर प्रत्यक्ष रूप से या सांकेतिक संकेतों के ज़रिए ‘हम बनाम वे’ की भ्रामक अवधारणा को बढ़ावा देती है, क्योंकि उन्हें डर है कि समावेशी भाषा अपनाने से उनके समर्थक वर्ग का कुछ हिस्सा उनसे दूर जा सकता है.

बीते डेढ़ दशक में भारतीय राजनीति में जो बदलाव आए हैं, वे यह दिखाते हैं कि मौजूदा राजनीतिक संस्कृति व्यापक और समावेशी नेतृत्व की बजाय त्वरित और भड़काऊ संदेशों को इनाम देती है. लेकिन देश का बड़ा हिस्सा शांति और समृद्धि चाहता है, सिवाय उस छोटे वर्ग के जो ध्रुवीकरण से फलता-फूलता है.

सबसे अधिक चिंता की बात यह रही कि प्रधानमंत्री ने जनसंख्या से जुड़े सवाल पर गलत विमर्श छेड़ा. भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश (डेमोग्राफिक डिविडेंड) पर बात करने की बजाय जनसंख्या का भय दिखाया. एक युवा देश के लिए, जहां लगभग 65% आबादी 35 वर्ष से कम आयु की है, यह ऐतिहासिक अवसर है, जो राष्ट्रीय विमर्श का केंद्र होना चाहिए.

भय फैलाने के बजाय भाषण में यह बताया जाना चाहिए था कि भारत की युवा आबादी वैश्विक अर्थव्यवस्था में एक बेजोड़ अवसर प्रस्तुत करती है, बशर्ते उन्हें कौशल, अवसर और समावेशी वातावरण मिले, जिसमें हर कोई योगदान दे सके, चाहे उसकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो.

जनसंख्या पर भय फैलाना देश की खुफिया, सुरक्षा और प्रशासनिक व्यवस्था पर भी गंभीर सवाल खड़ा करता है. देश की सुरक्षा करने वाले स्वाभिमानी और देशभक्त अधिकारी, जिन्होंने अब तक शानदार काम किया है, उन्हें अब आवाज़ उठानी चाहिए, वरना प्रधानमंत्री द्वारा सार्वजनिक रूप से किए गए इस अपमान के साथ उन्हें सिर झुकाकर जीना होगा.

देश यह सुनकर संतोष करता कि प्रधानमंत्री गरीबों की आर्थिक तंगी, बेरोज़गारी का संकट, बढ़ती असमानता और ग्रामीण परेशानियों को विपक्षी हमले के तौर पर नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की वास्तविक समस्याओं के रूप में स्वीकार कर रहे हैं. धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्र की परवाह किए बिना हर भारतीय की गरिमा और अधिकारों की रक्षा का स्पष्ट संकल्प.. नागरिकों को यह भरोसा दिलाता कि वे खुद को सभी का नेता मानते हैं, न कि केवल एक राजनीतिक आधार का.
इस भाषण को वैश्विक समुदाय, अंतरराष्ट्रीय निवेशक और कूटनीतिक जगत बारीकी से देखेंगे. वे यह नोट करेंगे कि भारतीय सरकार समाज और राजनीति को ध्रुवीकृत करने में अधिक रुचि रखती है, बजाय उस समावेशी शासन के जिसे आधुनिक अर्थव्यव्स्थाएं आवश्यक मानती हैं. इस तरह का संदेश संभावित निवेशकों और व्यापारिक साझेदारों को चिंताजनक संकेत देता है, क्योंकि उन्हें मालूम है कि स्थायी निवेशों के लिए एक समावेशी, शांतिपूर्ण और स्थिर सामाजिक माहौल ज़रूरी है.

जब किसी राष्ट्र का नेतृत्व समाज को एकजुट करने के बजाय विभाजित करता हुआ दिखता है, तो उसकी स्थिरता पर सवाल खड़े हो जाते हैं और वैश्विक जगत उसे लेकर सशंकित हो जाता है.

प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर वैश्विक चुनौतियों के प्रति भारत की प्रतिक्रिया को स्पष्ट करने का बड़ा मौका भी गंवा दिया. स्वतंत्रता दिवस का संबोधन वह पल होना चाहिए था, जब वे अमेरिका की ट्रंप सरकार द्वारा शुरू किए गए व्यापार युद्ध और भारत की व्यापार नीति की संप्रभुता पर मंडराते खतरों पर भारत की स्थिति स्पष्ट करते.

भाषण में अमेरिका द्वारा भारत के बाहरी मामलों में दखल, विशेषकर पाकिस्तान के साथ संघर्ष को लेकर बढ़ती चिंताओं का भी कोई ज़िक्र नहीं था. पाकिस्तान के साथ संघर्ष के बाद वैश्विक समुदाय में भारत की बढ़ती अलग-थलग स्थिति को उच्चतम स्तर पर मान्यता मिलनी चाहिए थी और एक रणनीतिक जवाब सामने आना चाहिए था. लेकिन इस पर कोई बात न होना एक गंभीर चूक थी.

इसके साथ ही गाज़ा जैसे क्षेत्रों में शांति और न्याय की मज़बूत अपील का अभाव भी महसूस हुआ, जबकि वैश्विक मंच पर नैतिक नेतृत्व का दावा भारत की ऐतिहासिक पहचान रही है.

मोदी के सलाहकारों को यह समझना चाहिए कि घरेलू स्तर पर एक जातीय-राष्ट्रवादी नेता और वैश्विक मंच पर उदार राजनेता की दोहरी भूमिका निभाना संभव नहीं है. यही खाई वैश्विक शक्तियों को भारत को घेरने का मौका देती है. उदाहरण के तौर पर, जब प्रधानमंत्री अंतरराष्ट्रीय मंचों जैसे जी-20 या क्वाड में लोकतांत्रिक मूल्यों के पैरोकार के रूप में खुद को प्रस्तुत करते हैं, जबकि घर में प्रेस की स्वतंत्रता और संस्थानों की स्वायत्तता पर अंकुश लगाते हैं, तो वैश्विक नेता इस विरोधाभास को न सिर्फ़ पहचानते हैं बल्कि उसे भारत के विरुद्ध इस्तेमाल भी करते हैं.

प्रधानमंत्री मोदी स्पष्ट रूप से एक सक्षम प्रशासक, वैश्विक राजनेता और भारत की दिशा पर परिवर्तनकारी प्रभाव छोड़ने वाले नेता के रूप में देखे जाना चाहते हैं. उनके पास अभूतपूर्व राजनीतिक शक्ति है, जिसे उन्हें साझा नहीं करना पड़ता.. एक ऐसा पद, जो उन्हें सैद्धांतिक रूप से साहसिक और राजनेता-सुलभ निर्णय लेने में सक्षम बनाता है. लेकिन इस मज़बूत स्थिति के बावजूद, अगर वे अपने संकुचित राजनीतिक प्रवृत्तियों पर लगाम नहीं लगाते और सच्चे कद के राजनेता की भूमिका नहीं अपनाते, तो उनकी छवि और विरासत हमेशा संदेह के घेरे में रहेगी.
विडंबना यह है कि भले ही मोदी व्यक्तिगत तौर पर उनकी प्रशंसा न करते हों, लेकिन उनके सामने जवाहरलाल नेहरू का एक प्रेरक उदाहरण मौजूद है, जिन्होंने अपनी राजनीतिक जटिलताओं के बावजूद यह समझा कि सच्चा राजनेतृत्व तात्कालिक और संकीर्ण गणनाओं से ऊपर उठने में है.

नेहरू की ‘नियति से मुलाक़ात’ की भावना के अनुरूप, मोदी इस मंच का उपयोग यह वादा करने में कर सकते थे, ‘आने वाले दिनों में मैं आपके सवाल पूछने के अधिकार, आपके विरोध करने के अधिकार और आपके बेहतर मांगने के अधिकार की रक्षा करूंगा. कोई पत्रकार सच कहने पर चुप नहीं कराया जाएगा. कोई नागरिक अपनी बात कहने पर जेल नहीं जाएगा. हमारी अदालतें, हमारा चुनाव आयोग, हमारी संसद.. वे स्वतंत्र रहेंगे, न कि किसी सत्ताधारी पार्टी के औज़ार या गढ़ बनेंगे.’

एक सच्चे राष्ट्रीय संबोधन को, ख़ासकर उस दिन जब यह पूरे भारतवासियों का दिन होता है, समावेशिता, मेल-मिलाप और विविधता को गले लगाने वाली दृष्टि पर आधारित होना चाहिए. इसके बजाय पक्षपातपूर्ण संकेतों से भरा उनका भाषण कुछ चुनिंदा उपलब्धियों पर केंद्रित रहा, और उन मुद्दों पर चुप्पी साध गया, जिन पर पूरे देश के नेता के तौर पर प्रतिक्रिया ज़रूरी थी.

भाषण को सामूहिक स्वामित्व की बजाय राजनीतिक श्रेय के चश्मे से पेश कर के प्रधानमंत्री ने बांटने की बजाय एकजुट करने का, घाव गहरा करने की बजाय भरने का एक अवसर खो दिया, चाहे वह घरेलू स्तर पर हो या वैश्विक मंच पर भारत की स्थिति को लेकर.

भाषण जैसा होना चाहिए था और जैसा वास्तव में दिया गया, उसके बीच की यह खाई न केवल राजनीतिक कल्पनाशक्ति की कमी को दर्शाती है, बल्कि उस बड़े अवसर की भी चूक को उजागर करती है, जिसमें भारत को एक आत्मविश्वासी, समावेशी लोकतंत्र के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता था, जो घर में एकजुट रहते हुए दुनिया का नेतृत्व कर सके.