दिल्ली सरकार ने सेवानिवृत्त सरकारी वकीलों की संविदा भर्ती का विज्ञापन निकाला है, जिसका प्रॉसिक्यूटर्स वेलफेयर एसोसिएशन ने कड़ा विरोध किया है. एसोसिएशन का कहना है कि यह नियमों और संविधान के ख़िलाफ़ है, युवाओं को अवसर से वंचित करता है और न्याय प्रक्रिया को कमज़ोर कर सकता है.

नई दिल्ली: दिल्ली की भाजपा सरकार को सेवानिवृत्त हो चुके हो ऐसे सरकारी वकीलों की तलाश है, जिनके पास केंद्र सरकार, राज्य सरकार या सरकार की किसी एजेंसी (सीबीआई, एनआईए, आदि) के साथ काम करने का अनुभव हो.
दिल्ली सरकार के डायरेक्टरेट ऑफ प्रॉसिक्यूशन (होम डिपार्टमेंट) की ओर से 21 अगस्त, 2025 को जारी विज्ञप्ति में कुल 196 पदों पर पब्लिक प्रॉसिक्यूटर, एडिशनल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर और असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर के पदों पर संविदा आधारित भर्ती की जानकारी मिलती है.
विज्ञापन में साफ लिखा है, ‘यह अनुबंध शुरू में एक वर्ष की अवधि के लिए होगा, या 65 वर्ष की आयु पूरी होने तक, या फिर पद नियमित रूप से भर जाने तक, इनमें से जो भी पहले हो.’
इस नियुक्ति प्रक्रिया की सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह युवाओं और अपेक्षाकृत कम उम्र के वकीलों को एकदम दरकिनार कर देती है. इस तरह उभरती हुई प्रतिभाओं को नकार देती है.
गौरतलब है कि संविदा पर रखे जाने वाले इन सेवानिवृत्त प्रॉसिक्यूटर्स को अपनी नई नौकरी में मेडिकल, यात्रा भत्ता या एलटीसी (लीव ट्रैवल कंसेशन) जैसी कोई अतिरिक्त सुविधा नहीं दी जाएगी.
साल भर में केवल आठ दिन की छुट्टी मिलेगी और इन कर्मचारियों को अपनी निजी प्रैक्टिस भी बंद करनी होगी.
विज्ञप्ति में स्पष्ट रूप से लिखा है कि यह नियुक्ति पूर्णतः संविदा आधारित है और इसके नियमितीकरण का कोई दावा नहीं किया जा सकता.
विज्ञापन में स्पष्ट कर दिया गया है कि ‘चयनित उम्मीदवारों के काम के घंटे वही होंगे जो नियमित अभियोजकों (रेगुलर प्रॉसिक्यूटर) के लिए निर्धारित हैं. हालांकि, उन्हें अर्जित अवकाश (ईएल) आदि का हक़ नहीं होगा.’
आवेदकों के लिए उम्र की सीमा 64 वर्ष है.
सरकार के इस कदम से नाराज़ हैं वकील
दिल्ली प्रॉसिक्यूटर्स वेलफेयर एसोसिएशन के सचिव जमशेद अंसारी ने द वायर हिंदी से बातचीत में संविदा भर्ती के लिए जारी विज्ञापन का कड़े शब्दों में विरोध किया है.
उन्होंने कहा, ‘यह विज्ञापन गैरकानूनी, मनमाना, अधिकार से परे और असंवैधानिक है, क्योंकि यह निष्पक्ष अवसर और योग्यता-आधारित भर्ती के सिद्धांतों को कमजोर करता है. सेवानिवृत्त अभियोजकों को प्राथमिकता देकर निदेशालय न केवल योग्य युवाओं को रोजगार से वंचित कर रहा है बल्कि ख़तरनाक उदाहरण पेश कर रहा है.’
वह आगे कहते हैं, ‘हम इस विज्ञापन को तत्काल वापस लेने की मांग करते हैं और अधिकारियों से आग्रह करते हैं कि वे एक पारदर्शी और योग्यता-आधारित भर्ती प्रक्रिया अपनाएं, जो युवा वकीलों को समान अवसर प्रदान करे. हमारे न्याय तंत्र का भविष्य नए कानूनी पेशेवरों को सशक्त बनाने पर निर्भर करता है, न कि सेवानिवृत्त व्यक्तियों को दोबारा नियुक्त करने पर, जिससे नई प्रतिभाओं का रास्ता बंद हो जाए.’
जमशेद अंसारी खुद एडिशनल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हैं.
इस मामले पर एसोसिएशन के प्रवक्ता गौरव पांडे ने कहा, ‘सेवानिवृत्त अभियोजकों की भर्ती का प्रस्ताव मौजूदा भर्ती नियमों के सीधे विपरीत है… भर्ती की स्थापित प्रक्रिया को दरकिनार करके यह प्रस्ताव न केवल नियमों की अनदेखी करता है, बल्कि विभाग में पूरी निष्ठा से सेवा कर रहे अभियोजकों के करियर की प्रगति को भी खतरे में डाल देता है. ये अधिकारी अपने अनुभव और काम के आधार पर पदोन्नति के अवसरों की उम्मीद कर रहे थे, लेकिन यह प्रस्ताव उन्हें अनुचित रूप से उन मौकों से वंचित कर देगा. इसका असर न केवल उनके मनोबल पर पड़ेगा बल्कि पूरे विभाग की कार्यक्षमता और माहौल पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा.’
एसोसिएशन ने इस संबंध में दिल्ली सरकार को पत्र लिख आपत्ति जताई है.
नियमित भर्ती के संबंध में एसोसिएशन जो चिंता जाहिर कर रहा है, उसमें सच्चाई नज़र आ रही है. दरअसल, दिल्ली सरकार में यूपीएस के माध्यम से 66 असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की भर्ती के लिए 12 अप्रैल, 2025 को प्रकाशित विज्ञप्ति जारी की गई थी. लेकिन 2 मई, 2025 को यूपीएससी ने एक नोटिस जारी कर कहा कि भर्ती प्रक्रिया को अगले आदेश तक रोक दिया गया है. अब उसके बाद सेवानिवृत्त प्रॉसिक्यूटर्स के लिए संविदा आधारित भर्ती निकाली गई है, जो दर्शाता है कि सरकार नियमित भर्ती से बचने की कोशिश कर रही है.
सरकारी वकीलों की संविदा भर्ती चिंताजनक क्यों है?
लॉ कमिशन ऑफ इंडिया की 197वीं रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पब्लिक प्रॉसिक्यूटर को कार्यपालिका और सभी बाहरी प्रभावों से स्वतंत्र होना चाहिए क्योंकि वह न्यायिक प्रक्रिया का अंग है और न्यायालय का अधिकारी है.
लेकिन संविदा नियुक्ति से नौकरी की असुरक्षा के कारण न्यायिक निष्पक्षता में बाधा आ सकती है और सरकारी दबाव में आने की संभावना बढ़ जाती है. वेतन की कमी से न्याय व्यवस्था की गुणवत्ता में गिरावट आ सकती है. निजी प्रैक्टिस की मनाही से इन अभियोजकों की आर्थिक तंगी और बढ़ सकती है. यह स्थिति न केवल व्यक्तिगत कष्ट का कारण बनेगी बल्कि न्याय व्यवस्था की समग्र गुणवत्ता को भी प्रभावित करेगी.
लॉ कमिशन की रिपोर्ट में यह भी लिखा है, ‘पब्लिक प्रॉसिक्यूटर, एडिशनल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर और असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर की नियुक्ति की कोई भी योजना ऐसी होनी चाहिए, जिससे अभियोजन अधिकारियों का एक स्वतंत्र निकाय बने…’
क्या संविदा पर नियुक्त सरकारी वकील अपना स्वतंत्र निकाय बन पाएंगे?
लॉ कमिशन ऑफ इंडिया सुझाव देता है कि ‘…राज्यों में पब्लिक प्रॉसिक्यूटर चुने जाने हैं तो उन्हें केवल लोक सेवा आयोग के जरिए सख़्त स्क्रीनिंग और परीक्षा के बाद ही चुना जाना चाहिए.’
हालांकि, दिल्ली सरकार में वकीलों की जबरदस्त तंगी को देखते हुए हाल में दिल्ली हाईकोर्ट ने एड-हॉक पर भर्ती प्रक्रिया शुरू करने का निर्देश दिया था. लेकिन दिल्ली प्रॉसिक्यूटर्स वेलफेयर एसोसिएशन ने सेवानिवृत्त अभियोजकों को अनुबंध के आधार पर नियुक्त करने को उच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना बताया है.
दिल्ली में प्रॉसिक्यूटर्स के करीब 50% पद खाली
दिल्ली में अभियोजकों की स्थिति वास्तव में गंभीर है. दिल्ली प्रॉसिक्यूटर्स वेलफेयर एसोसिएशन के आंकड़ों के अनुसार, कुल 507 स्वीकृत पदों में से केवल 257 भरे हैं और 250 रिक्त हैं, यानी 49.4% पद खाली हैं. 257 में से भी 54 संविदा पर काम कर रहे हैं.
स्वीकृत पद:
पब्लिक प्रॉसिक्यूटर: 32
एडिशनल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर: 210
असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर: 265
कुल: 507
भरे गए पद:
पब्लिक प्रॉसिक्यूटर: 11
एडिशनल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर: 131
असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर: 115 (जिसमें से 54 संविदा पर हैं)
कुल: 257 (50.6%)
जाहिर है इन रिक्तियों के कारण न्यायिक व्यवस्था के सुचारू संचालन में बाधा आ रही है. आंकड़े बताते हैं कि प्रति अदालत एक लोक अभियोजक उपलब्ध नहीं है. 155 सत्र न्यायालयों के लिए केवल 124 एडिशनल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर हैं और 181 मजिस्ट्रेट कोर्ट्स के लिए केवल 165 असिस्टेंट पब्लिक प्रॉसिक्यूटर उपलब्ध हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट भी इस समस्या से चिंतित है.
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक, जुलाई 2025 को चीफ जस्टिस डीके उपाध्याय और जस्टिस आनीश दयाल की पीठ ने दिल्ली सरकार को निर्देश दिया था कि क्रिमिनल कोर्ट्स के सुचारू संचालन के लिए नियमित भर्ती तक एड-हॉक नियुक्तियां करें. यह निर्देश 2009 से चल रहे एक स्व-संज्ञान मामले के तहत दिया गया था.