अयोध्या फैसले पर सवाल उठाते हुए पूर्व जज ने कहा- सुप्रीम कोर्ट में कभी मंदिर निर्माण की मांग नहीं रखी गई थी

वरिष्ठ अधिवक्ता और पूर्व न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर दिए गए फैसले की बुनियाद पर सवाल उठाते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट में कभी मंदिर निर्माण की मांग नहीं रखी गई थी. उन्होंने जोड़ा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस का असर अब तक खत्म नहीं हुआ है और पूजा स्थल अधिनियम के बावजूद देशभर में 17 मुकदमे दायर हो चुके हैं.

नई दिल्ली: वरिष्ठ अधिवक्ता और सेवानिवृत्त न्यायाधीश एस. मुरलीधर ने संवेदनशील धार्मिक मामलों में न्यायपालिका के रवैये की आलोचना की है. उन्होंने पूर्व भाजपा नेता और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के ख़िलाफ़ बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में स्वतः संज्ञान (सुओ मोटो) अवमानना याचिका पर कार्रवाई न होने को गंभीर चूक बताया.

शनिवार (6 सितंबर) को ए.जी. नूरानी स्मृति व्याख्यान में बोलते हुए मुरलीधर ने कहा, ‘22 साल तक इस मामले की सुनवाई नहीं हुई. अंततः जब इसे जस्टिस संजय कौल के समक्ष सुनवाई के लिए लाया गया तब कहा गया, ‘मरे हुए घोड़े को क्यों पीटना.’ जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद माना था कि यह एक गंभीर अपराध था. यह संस्थागत भूल है, जो मेरी नज़र में अक्षम्य है.’

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, उन्होंने अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद मामले में दिए गए फैसले की बुनियाद पर सवाल उठाते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट में कभी किसी ने मंदिर निर्माण की मांग नहीं रखी थी.

वह कहते हैं, ‘आर्टिकल 142 के तहत निर्देश जारी किए गए, जिसकी मांग किसी ने नहीं की थी. कोई कानूनी आधार नहीं, न कोई प्रार्थना और इसलिए न कोई विरोध. न केंद्र सरकार के वकील और न ही हिंदू संगठनों ने मंदिर निर्माण की मांग की थी. यह निर्देश उन याचिकाओं से परे था जिनकी सुनवाई अदालत में चल रही थी.’

उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद विध्वंस का असर आज तक खत्म नहीं हुआ है. ‘पूजा स्थल अधिनियम के लागू होने के बावजूद पूरे देश भर में 17 मुकदमे दायर हुए हैं.’

मुरलीधर ने मीडिया पर भी निशाना साधा और कहा कि देश का इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लगातार ‘हिंदू-मुसलमान’ पर अटका रहता है, जबकि असल में भारत की ताक़त इसकी बहुलता है.

राम जन्मभूमि मामले पर बोलते हुए उन्होंने कहा, ‘हम भूल जाते हैं कि हमारी संस्कृति मिश्रित है, बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद अदालतों का रवैया निराशाजनक रहा. सुनवाई के दौरान अदालत द्वारा जो कहा गया और जो फैसला सुनाया गया, उसमें कोई तार्किक मेल नहीं है.’

इस फैसले की मुख्य कड़ी माने जाने वाले पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा, ‘यह बिना लेखक (author less) का फैसला था, लेकिन इस फैसले के लेखक ने खुद कहा कि उन्होंने निर्णय देने से पहले परमात्मा से परामर्श लिया था.’

पूर्व हाईकोर्ट जज मुरलीधर ने ज़ोर देकर कहा कि भारत की ताक़त विविधता और बहुलता में है. ‘भारत की आबादी जितनी धार्मिक है, उतनी ही विविध भी है. हम कभी एक संस्कृति, एक भाषा या एक धर्म नहीं रहे और न ही रह सकते हैं.’

उन्होंने हिजाब मामले में जस्टिस सुधांशु धूलिया की राय से सहमति जताते हुए कहा, ‘धार्मिक प्रथाओं की ‘मौलिकता’ में घुसना खतरनाक है क्योंकि यह धर्मशास्त्र में दख़ल है. इसमें जज ग़लतियां कर सकते हैं.’

उन्होंने कहा कि देश एक अहम मोड़ पर खड़ा है जहां नई पीढ़ी को संवैधानिक मूल्यों के प्रति जागरूक करना बेहद ज़रूरी है.

न्यायाधीशों को अपनी निजी धार्मिक मान्यताओं को सार्वजनिक तमाशा बनाने से उन्होंने चेताया. उन्होंने कहा, ‘हम यह नहीं पूछते कि हमारे जज कौन हैं और उनका धर्म क्या है. न्यायपालिका को आत्ममंथन करना होगा.’