वर्तमान सरकार को पसंद नहीं कि जनता उस पर निगरानी रखे: जस्टिस एपी शाह

राजस्थान के ब्यावर में आरटीआई क़ानून के बीस साल पूरे होने के मौक़े पर आयोजित एक कार्यक्रम में पूर्व न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह ने कहा कि वर्तमान सरकार आरटीआई क़ानून को कमज़ोर करने की कोशिश कर रही है. 2019 के संशोधन और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में देरी से आरटीआई का असर कम हुआ है. डीपीडीपी क़ानून में छिपा प्रावधान आरटीआई को पूरी तरह ख़त्म कर सकता है.

नई दिल्ली: राजस्थान के ब्यावर में सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून लागू होने के 20 साल पूरे होने के मौके पर आयोजित आरटीआई मेला और सम्मेलन में दिल्ली हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस एपी शाह ने कहा कि आरटीआई कानून आम नागरिकों को सबसे शक्तिशाली उपकरण देता है, जो भ्रष्टाचार और सरकारी जवाबदेही की कमी के खिलाफ उन्हें आवाज़ उठाने का अधिकार प्रदान करता है.

शाह ने अपने संबोधन में बताया कि इस कानून का जन्म ज़मीन से संघर्षों और सामाजिक आंदोलनों की बदौलत हुआ, न कि किसी राजनेता की इच्छा से.

आम जीवन में आरटीआई की महत्ता को समझाते हुए जस्टिस शाह ने कहा, ‘आरटीआई का क़ानून कहता है कि सरकार की सूचना पर आपका हक़ है. जिस तरह अपने खेत और घर पर आपका अधिकार है उसी तरह आपको यह जानने का भी अधिकार है कि आपके गांव या ज़िले में सरकार पैसा कहां ख़र्च करती है, स्कूल के शिक्षक कैसे नियुक्त होते हैं, और यह भी कि आपको आपका राशन कार्ड क्यों नहीं मिला.’

सम्मेलन में शाह ने खास तौर पर अरुणा रॉय, निखिल डे, शंकर सिंह और मजदूर किसान शक्ति संगठन (एमकेएसएस) का धन्यवाद करते हुए कहा कि इनके प्रयासों और संघर्षों ने ही राजस्थान में मस्टर रोल के जरिए सरकारी भुगतान की पारदर्शिता की नींव रखी.

उन्होंने यह भी जोड़ा कि मस्टर रोल आंदोलन में ग्रामीणों ने सड़क निर्माण और अकाल राहत के लिए दिए गए पैसों की जानकारी हासिल करने के लिए अधिकारियों का सामना किया और जन-सुनवाइयों के जरिए वास्तविकताओं को सामने लाया. इस आंदोलन के प्रभाव से पहले राजस्थान में और फिर पूरे भारत में 2005 में आरटीआई कानून अस्तित्व में आया.

उन्होंने आरटीआई के उद्भव का वर्णन करते हुए कहा, ‘इस क़ानून की ख़ास बात यह है कि इसे संसद या किसी राजनेता ने इसलिए नहीं बनाया कि वे जनता की मदद करना चाहते थे. बल्कि आरटीआई का विचार ज़मीन से पैदा हुआ, साधारण मज़दूरों और किसानों के संघर्षों से, शहरों से ज़्यादा गांवों में, और यह आप जैसे लोगों की बदौलत ही अस्तित्व में आया.’

उन्होंने धारा 4 के महत्व पर भी जोर दिया और कहा, ‘क़ानून में धारा 4 का प्रावधान किया गया, जिसमें यह वादा है कि किसी नागरिक के पूछने से पहले ही सरकार ख़ुद सूचना सबके सामने रखेगी.’ जस्टिस शाह ने बताया, ‘धारा 4 सरकार को एक सार्वजनिक नोटिस बोर्ड लगाने को कहती है. जिसमें सभी लाभार्थियों के नाम, ख़र्च हुए पैसों का ब्यौरा और सभी योजनाओं के बारे में जानकारी हो ताकि सभी लोग आसानी से उसे देख सकें.’

आरटीआई को कमजोर करने की कोशिश
आरटीआई को कमजोर करने की कोशिश

जस्टिस शाह ने कहा कि वर्तमान सरकार गुपचुप तरीके से काम करने पसंद करती है. यही वजह है कि आरटीआई कानून को कमजोर किया जा रहा है.

उन्होंने कहा, ‘आरटीआई क़ानून ने भ्रष्ट लोगों के हाथ से ताक़त छीनकर जनता को ताक़तवर बनाया. लेकिन सरकारें, विशेषकर वर्तमान सरकार जो 2014 से सत्ता में है, इस बात को बिल्कुल पसंद नहीं करती कि गुपचुप तरीक़े से काम करने की उनकी ताक़त उनसे छीनी जाए. वे इस बात को बिल्कुल पसंद नहीं करते कि जनता हमेशा उन पर निगरानी रखे.’

जस्टिस शाह ने उन तरीकों की तरफ ध्यान दिलाया, जिसके माध्यम से आरटीआई को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है, ‘सरकार कुछ तरीक़ों से आरटीआई क़ानून को कमज़ोर करने की कोशिश कर रही है. उदाहरण के तौर पर, 2019 में, वह एक ऐसा संशोधन लेकर आई जिससे आरटीआई क़ानून का संचालन प्रभावित होता है. अगर कोई अधिकारी आपके द्वारा मांगी गई सूचना न दे तो आप सूचना आयोग का रूख करेंगे. ये आयोग आरटीआई के मामलों में न्यायाधीशों की तरह होते हैं. उनके पास शक्ति भी है और वे स्वतंत्र संस्थाएं हैं जो सूचना न देने वाले अधिकारी पर जुर्माना भी लगा सकती हैं और उन्हें सज़ा भी दे सकती हैं.

उन्होंने आगे कहा, ‘सूचना आयुक्तों का कार्यकाल पहले पांच साल के लिए तय था. इसका मतलब था कि वे बिना किसी डर के आज़ादी से अपना काम कर सकते थे. लेकिन 2019 के बाद यह नियम बदल दिया गया है- अब केंद्र सरकार यह तय कर सकती है कि आयुक्तों की तनख़्वाह कितनी होगी और वे कितने समय तक पद पर रहेंगे. इसकी वजह से कोई भी आयुक्त अपना काम ठीक से करने से डरेगा.’

शाह ने एक अन्य पहलू को रेखांकित करते हुए कहा, ‘दूसरा काम जो सरकार ने किया है वह है सूचना आयुक्तों की नियुक्ति ही न करना. जब कोई सूचना आयुक्त रिटायर हो जाता है तो सरकार नए आयुक्त की नियुक्ति करने में बहुत ढिलाई बरतती है. और इसके चलते आरटीआई अपीलों का अंबार बढ़ता ही जाता है. अगर आपको अपने किसी सवाल का जवाब हासिल करने में दो या तीन साल लग जाते हैं तो आरटीआई क़ानून का कोई मतलब नहीं रह जाता. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी सरकार को कहा है कि वह आरटीआई को खोखला बना रही है क्योंकि वह ख़ाली पदों पर नियुक्ति नहीं कर रही है.’

सरकार इस तरह धीरे-धीरे इस क़ानून को ख़त्म कर रही है – आयुक्तों के लिए भय का माहौल बनाकर और नियुक्ति और अपीलों के निपटारे में देरी के ज़रिए. हाल ही में एक नए क़ानून के ज़रिए एक बड़ा ख़तरनाक हमला भी इस पर हुआ है, उस क़ानून का नाम है डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (डीपीडीपी) क़ानून, 2023. सरकार कहती है कि यह क़ानून आपकी निजता की सुरक्षा के लिए है लेकिन इसमें छिपा एक प्रावधान है जो आरटीआई क़ानून को ही पूरी तरह से ख़त्म कर सकता है.
तो हमें क्या करना चाहिए?

जस्टिस शाह सुझाव देते हैं, ‘इस क़ानून को बचाने का सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि हम लगातार इसका उपयोग करते रहें और सरकार आपके जिन सवालों के जवाब नहीं देती उनके लिए आरटीआई के आवेदन लगाते रहें. स्थानीय राजनेताओं से मांग करें कि सारी सार्वजनिक जानकारी नोटिस बोर्ड और वेबसाइट के ज़रिए उपलब्ध करवाई जाए ताकि हमें उसके लिए कहीं आवेदन ना करना पड़े. सरकार पर दबाव बनाएं कि डीपीडीपी क़ानून में बदलाव किया जाए और आरटीआई कार्यकर्ताओं की सुरक्षा की भी लगातार मांग करें ताकि सच्चाई के लिए लड़ने वाले लोग डर के साए में जीने पर मजबूर ना हों.’

उन्होंने कहा, ‘यह कोई राजनीतिक लड़ाई नहीं है. यह तो एक ‘व्यक्तिगत’ लड़ाई है, नागरिकों के तौर पर हमारी ताक़त के लिए और हमारे लोकतंत्र के लिए. हमें साथ मिलकर अपनी आवाज़ उठानी होगी और नागरिकों के तौर पर हमारी ताक़त का उपयोग करना होगा ताकि जनता के इस क़ानून को कहीं पराजित ना कर दिया जाए. सरकार रूपी इस बक्से पर फिर से ताला न लगने दें. आरटीआई रूपी इस चाबी को सम्भाल कर रखें और सरकार को जवाबदेह बनाए रखें.’

शाह ने संग्रहालय परियोजना पर भी प्रकाश डाला, ‘मुझे इस बात की भी बेहद ख़ुशी है कि आज यहां आप सब के बीच मैं उस जगह मौजूद हूं जहां दुनिया का पहला आरटीआई संग्रहालय आकार ले रहा है. यह म्यूज़ियम एक ऐसी जगह बने जो भारतीय संविधान के मूल्यों को आगे बढ़ाए. यहां इतिहास के संघर्ष हमारे वर्तमान और भविष्य के संघर्षों को प्रेरणा देगा.’