केंद्र सरकार ने श्रम नीति का मसौदा तैयार करने में मनुस्मृति सहित प्राचीन कई हिंदू ग्रंथों से ‘प्रेरणा’ ली गई है. मसौदा में कहा गया है, ‘काम केवल आजीविका का साधन नहीं है, बल्कि यह धर्म (सही कर्तव्य) की व्यापक व्यवस्था में योगदान है.’ लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि यह सोच आधुनिक श्रमिक अधिकारों के विपरीत है. ट्रेड यूनियनों ने मसौदा वापस लेने की मांग की है.

नई दिल्ली: केंद्र सरकार ने श्रम नीति के मसौदे को तैयार करने में मनुस्मृति से ‘प्रेरणा’ ली है. यह वही प्राचीन हिंदू ग्रंथ है जिसमें जाति-व्यवस्था को स्थापित किया गया था. विशेषज्ञों का कहना है कि यह सोच मज़दूरों के अधिकारों के विपरीत है.
द टेलीग्राफ के मुताबिक, श्रम मंत्रालय द्वारा तैयार किए गए ‘राष्ट्रीय श्रम और रोजगार नीति’ के मसौदे में कहा गया है कि सामाजिक परंपराओं में श्रम को एक पवित्र और नैतिक कर्तव्य माना गया है, जो सामाजिक सौहार्द, आर्थिक समृद्धि और सामूहिक कल्याण को बनाए रखता है.
मसौदा नीति में कहा गया है, ‘भारतीय दृष्टिकोण में काम केवल आजीविका का साधन नहीं है, बल्कि यह धर्म (सही कर्तव्य) की व्यापक व्यवस्था में योगदान है. यह दृष्टिकोण हर कामगार, चाहे वह कारीगर हो, किसान, शिक्षक या औद्योगिक मज़दूर को सामाजिक सृजन की प्रक्रिया का आवश्यक हिस्सा मानता है.’
नीति में आगे कहा गया है, ‘मनुस्मृति, याज्ञवल्क्यस्मृति, नारदस्मृति, शुक्रनीति और अर्थशास्त्र जैसे प्राचीन ग्रंथों ने ‘राजधर्म’ की अवधारणा के ज़रिए इस सोच को व्यक्त किया है, जिसमें राजा या शासक का कर्तव्य बताया गया है कि वह न्याय सुनिश्चित करे, उचित मज़दूरी दे और कामगारों को शोषण से बचाए.’
नीति में कहा गया है, ‘श्रम शक्ति नीति 2025 इन स्वदेशी ढांचों से प्रेरणा लेती है, लेकिन इन्हें आधुनिक राज्य के संवैधानिक और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में रखती है.’
मसौदा वापस लेने की उठी मांग
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) से जुड़ी ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC) ने आरोप लगाया कि मसौदा नीति ट्रेड यूनियनों से परामर्श किए बिना तैयार की गई है. संगठन ने श्रम मंत्रालय से अपील की कि वह इस मसौदे को तुरंत वापस ले और इसे जनमत के लिए अंतिम रूप देने से पहले केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से चर्चा शुरू करे. संगठन के अनुसार, नीति में नौकरी की सुरक्षा, रोज़गार सृजन और न्यूनतम वेतन अधिनियम के तहत तय अनिवार्य न्यूनतम वेतन जैसे सबसे अहम मुद्दों को नज़रअंदाज़ किया गया है.
जेएनयू (जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय) के सेंटर फॉर इन्फॉर्मल सेक्टर एंड लेबर स्टडीज़ के फैकल्टी सदस्य प्रदीप शिंदे ने अखबार से कहा कि मजदूरी, श्रमिकों के अधिकार और शोषण से सुरक्षा जैसे विचार आधुनिक युग की देन हैं, जो औद्योगिकीकरण और पूंजीवाद के उभरने के बाद, पिछले दो सौ वर्षों में विकसित हुए.
उन्होंने कहा, ‘प्राचीन समय में ‘जजमानी प्रथा’ प्रचलित थी और मजदूरों के कोई अधिकार नहीं थे. उस समय वेतन प्रणाली भी नहीं थी. काम के बदले उन्हें बहुत ही न्यूनतम भुगतान मिलता था, वह भी अधिकतर वस्तुओं के रूप में, न कि पैसे में. मजदूरों की भुगतान तय करने में कोई भूमिका नहीं होती थी.’
शिंदे ने कहते हैं, ‘हिंदू धार्मिक ग्रंथों में बताए गए ‘श्रम’ (काम या परिश्रम) के विचार को महिमामंडित करना दरअसल उसी जाति-आधारित श्रम विभाजन को दोबारा मजबूत करने की कोशिश है, जिसमें ब्राह्मण धार्मिक कर्मकांड करने के कारण सर्वोच्च दर्जा रखते थे.’
उन्होंने कहा, ‘प्राचीन समय में ‘जजमानी प्रथा’ प्रचलित थी और मजदूरों के कोई अधिकार नहीं थे. उस समय वेतन प्रणाली भी नहीं थी. काम के बदले उन्हें बहुत ही न्यूनतम भुगतान मिलता था, वह भी अधिकतर वस्तुओं के रूप में, न कि पैसे में. मजदूरों की भुगतान तय करने में कोई भूमिका नहीं होती थी.’
शिंदे ने कहते हैं, ‘हिंदू धार्मिक ग्रंथों में बताए गए ‘श्रम’ (काम या परिश्रम) के विचार को महिमामंडित करना दरअसल उसी जाति-आधारित श्रम विभाजन को दोबारा मजबूत करने की कोशिश है, जिसमें ब्राह्मण धार्मिक कर्मकांड करने के कारण सर्वोच्च दर्जा रखते थे.’
उन्होंने आगे कहा है कि प्राचीन शास्त्रीय ग्रंथों में राजा को भले ही शक्ति का प्रतीक माना गया हो, लेकिन उसकी स्थिति ब्राह्मण से नीचे रखी गई थी.
शिंदे ने कहते हैं, ‘यह तथ्य कि स्मृतियों का उल्लेख श्रमिक अधिकारों के संदर्भ में किया जा रहा है, यह दिखाता है कि आरएसएस ब्राह्मणों की उस श्रेष्ठता को दोबारा स्थापित करने की कोशिश कर रहा है, जिसे वह मानता है कि निर्वाचित शासकों द्वारा मान्यता दी जानी चाहिए.’
उन्होंने जोड़ा कि श्रम को धर्म या राजधर्म से जोड़ना एक गलत विचार है, क्योंकि यह मजदूरों के अधिकार, उचित वेतन और सुरक्षा जैसे पहलुओं को नज़रअंदाज़ करता है.
मजदूरी और मजदूरों का हाल?
सरकार ने नवाचार (इननोवेशन) और उद्यमिता (आंत्रप्रेन्योरशिप) के ज़रिए सभी को सामाजिक सुरक्षा और रोज़गार देने का वादा किया है, लेकिन इन क्षेत्रों में उसका प्रदर्शन बहुत खराब रहा है. कुल कामगारों में से केवल 10 प्रतिशत औपचारिक (फॉर्मल) क्षेत्र के कर्मचारी हैं, जिन्हें भविष्य निधि (PF), जीवन बीमा और स्वास्थ्य बीमा जैसी सामाजिक सुरक्षा सुविधाएं मिलती हैं. वहीं, 90 प्रतिशत कामगारों को अपनी सामाजिक सुरक्षा खुद ही सुनिश्चित करनी पड़ती है.
आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 के मुताबिक, बीते पांच सालों में भारत में नियमित नौकरियों के सृजन में गिरावट दर्ज की गई है.
इसके विपरीत, 2018-19 से 2022-23 के बीच लोगों का स्वरोज़गार (सेल्फ-एम्प्लॉयमेंट) में जुड़ाव लगातार बढ़ा है. यह सर्वे जुलाई 2024 में संसद में पेश किया गया था और इसमें सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय द्वारा किए गए पीरियॉडिक लेबर फोर्स सर्वे के आंकड़ों का हवाला दिया गया है.
आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 के अनुसार, मज़दूरों को मिलने वाली मजदूरी की वास्तविक क्रय शक्ति (रियल वेज) घट रही है यानी उनकी कमाई से चीज़ें खरीदने की क्षमता कम हो रही है, भले ही मजदूरी (नॉमिनल वेज) में थोड़ी बढ़ोतरी हुई हो.