जीविका दीदी के खाते में दस हज़ार: महिला मतदाताओं के लिए नीतीश का बड़ा दांव

नीतीश सरकार ने 26 सितंबर को मुख्यमंत्री महिला रोज़गार योजना की शुरुआत की. इसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में 75 लाख जीविका दीदियों के खाते में दस-दस हज़ार रुपये भेजे गए. तीन अक्टूबर को 25 लाख और महिलाओं को दस-दस हज़ार दिए गए. क्या यह क़दम महिला मतदाताओं के बीच नीतीश की साख मज़बूत करेगा?

भोरे (गोपालगंज), बिहार: ‘दस हजार रूपया में का होई ? कौन रोजगार होई ? एगो नीमन बकरी भी नाहीं मिली. बकरी चरावे खातिर भी त खेत बारी होखे के चाहीं. हमन के तो उहो नाहीं बा. महंगाई से खर्चा बढ़त जात बा. जीविका क मतलब हो गईल बा कि केहू तरह जिय. नीतीश जी खाली जीविका जीविका न करीं. हमन के रोजगार दीं. कल-कारखाना लगाईं. लड़िकन के नौकरी दीं. महंगाई कम करीं.’

(दस हजार रुपये में क्या होगा? कौन-सा रोजगार हो जाएगा? एक अच्छी बकरी भी नहीं मिलेगी. फिर बकरी को चराने के लिए भी तो खेती-बाड़ी कुछ होना चाहिए, हमारे पास तो वो भी नहीं है. मंहगाई से खर्चे बढ़ रहे हैं, जीविका का मतलब भी यही रह गया है कि किसी तरह से बस बसर हो जाए. नीतीश जी, खाली जीविका-जीविका मत कीजिए, हमे रोजगार दीजिए. कल-कारखाना लगाइए, बच्चों को नौकरी दीजिए और महंगाई काम करिए.)

गोपालगंज जिले के विजयीपुर प्रखंड के दिघवा ग्राम पंचायत के दलित बस्ती की रंभा और आरती ने यह बात तब कही जब जीविका दीदियों को नीतीश सरकार द्वारा दस हजार रुपये की आर्थिक सहायता से रोजगार शुरू करने के बारे में पूछा गया.

बिहार विधानसभा चुनाव में जीविका दीदियों की सबसे अधिक चर्चा हो रही है. नीतीश सरकार मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना के तहत 1.40 करोड़ जीविका दीदियों को अपने पसंद की आजीविका शुरू करने के लिए दस-दस हजार रुपये की आर्थिक सहायता दिये जाने को खूब जोर-शोर से प्रचारित कर रही है.

जीविका दीदी की हर तरफ चर्चा

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपनी हर सभा में इसका जिक्र कर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि ‘1 करोड़ 40 लाख से अधिक जीविका दीदियां अलग-अलग कामों से बिहार और देश की अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका निभा रही हैं. हमारी सरकार द्वारा हर परिवार की एक महिला को अपनी पसंद का रोजगार शुरू करने के लिए 10 हजार रुपये दिये जा रहे हैं. यह राशि मिलने के बाद कई महिलाओं ने अपना रोजगार शुरू कर दिया है. इसमें यह व्यवस्था की गई है कि रोजगार चलने पर उन्हें दो लाख रूपये तक की अतिरिक्त सहायता भी दी जाएगी.’

एनडीए गठबंधन इस कदम को जीत की गारंटी मान रही है. भाजपा-जद यू के नेताओं का कहना है कि जीविका दीदियों के खाते में सीधे दस हजार रुपये की मदद भेजने से महिला मतदाताओं में मोदी-नीतीश सरकार की महिला पक्षधर छवि और मजबूत हुई है और इसका बड़ा असर दिखेगा.

दूसरी तरफ पूर्व उप मुख्यमंत्री और महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के लिए घोषित चेहरा तेजस्वी यादव ने जीविका दीदियों को हर महीने 2500 रुपये की सहायता देने के साथ-साथ समूहों के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली कम्युनिटी मोबालाइजर (सीएम) को पक्की नौकरी देने और उन्हें 32 हजार रुपये देने की घोषणा की है.

महागठबंधन के संकल्प पत्र में भी इसका स्पष्ट उल्लेख करते हुए कहा गया है कि सभी जीविका सीएम (कम्युनिटी मोबलाइजर) को स्थायी किया जाएगा, उन्हें सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाएगा, उन्हें 30 हजार रुपये वेतन और दो हजार भत्ता दिया जाएगा. जीविका दीदियों द्वारा लिए गए कर्ज को माफ किया जाएगा और अगले दो साल तक बिना ब्याज का कर्ज दिया जाएगा.

नीतीश सरकार ने 26 सितंबर को मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना की शुरूआत की. इसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की उपस्थिति में 75 लाख जीविका दीदियों को दस-दस हजार रुपये उनके खाते में भेजे गए. तीन अक्टूबर को 25 लाख और महिलाओं को दस-दस हजार दिए गए. विधानसभा चुनाव की घोषणा के पहले छह अक्टूबर को 21 लाख महिलाओं को सहायता राशि दी गई.
आर्थिक सहायता पाने वाली महिलाओं को ‘लाभुक महिलाएं ‘ कहा गया. इस तरह 1.21 करोड़ महिलाओं को कुल दस हजार करोड़ की आर्थिक सहायता दी गई है. अब इस योजना को शहरों में भी विस्तारित किया जा रहा है. शहरों में स्वयं सहायता समूह गठित कर उससे जुड़ी महिलाओं को रोजगार के लिए दस हजार की आरंभिक आर्थिक सहायता दी जा रही है.

‘जीविका ‘ से जुड़ी हैं 1.40 करोड़ महिलाएं

नीतीश सरकार ने 2007 में बिहार ग्रामीण आजीविका परियोजना शुरू किया. इसी को स्थानीय भाषा में जीविका कहा जाता है. विश्व बैंक समर्थित यह परियोजना पहले छह जिलों में शुरू हुई. बाद में इसे सभी जिलों में लागू किया गया.

बिहार में जीविका के तहत स्वयं सहायता समूहों का गठन बहुत तेजी से हुआ. आज बिहार में 11,44,421 स्वयं सहायता समूह गठित किए जा चुके हैं जिनसे 1.40 करोड़ महिलाएं जुड़ी हुई हैं. समूह की सदस्यों को जीविका दीदी कहा जाता है.

इसका मकसद मकसद ग्रामीण गरीबों विशेषकर महिलाओं को का सामाजिक और आर्थिक रूप से सशक्त करना है.

जीविका दीदियों को खेती, पशुपालन, मत्स्य पालन, मुर्गी पालन, शहद उत्पादन गैर-खेती कार्यों, जैसे अगरबत्त्ती, मोमबत्ती, मधुबनी पेटिंग, सिलाई आदि में आजीविका के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. साथ ही विलेज ऑर्गनाइजेशन (वीओ) और फिर क्लस्टर लेवल पर फेडरेशन बनाया जाता है ताकि सोशल सर्विस प्रोवाइडर, बिजनेस एंटिटी और फॉर्मल बैंकिंग सिस्टम के वैल्यूड क्लाइंट बन सकें.

केंद्र सरकार ने 1999 में स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना शुरू किया था जिसे मनमोहन सरकार दम 2011 में नेशनल रूरल लाइवलीहुड्स मिशन (एनआरएलएम ) में बदल दिया. मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद इसी योजना को दीनदयाल अन्त्योदय योजना का नाम दे दिया. इस योजना में स्वयं सहायता समूहों का गठन कर उन्हें आजीविका के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध कराया जाता है.

बिहार रूरल लाइवलीहुड्स प्रमोशन सोसाइटी की वेबसाइट के अनुसार, इस परियोजना के तहत अब तक 11,07481 स्वयं सहायता समूह और 77087 विलेज आर्गनाइजेशन बन चुके हैं. 1047398 स्वयं सहायता समूहों के बैंक में बचत खाता है और 986946 स्वयं सहायता समूह के लोन एकाउंट हैं.

कर्ज चुकाने में चला गया सरकार से मिला पैसा
दिघवा गांव की दलित बस्ती की जीविका दीदियों में नीतीश सरकार की दस हजार रुपये की आर्थिक सहायता को लेकर कोई खास उत्साह नहीं है. उल्टे रोजगार, महंगाई को लेकर मोदी-नीतीश सरकार के प्रति तीव्र आक्रोश दिखा. सभी का मानना था कि चुनाव में वोट के लिए यह मदद दी गई है. स्वयं सहायता समूहों की बहुत ही महिलाओं को अभी यह मदद मिली भी नहीं हैं.

दिघवा ग्राम पंचायत की दलित बस्ती की बांसुरी जीविका स्वयं सहायता समूह में 11 महिलाएं जुड़ी हुई हैं. इसमें 13 सदस्य थीं जिसमें दो महिलाओं की मौत हो चुकी है. समूह की 11 में से छह सदस्यों को दस-दस हजार की सहायता मिली है.

आरती ने ये दस हजार रुपये समूह से लिए गए 13 हजार कर्ज चुकाने के लिए दे दिया. दस हजार रुपये देने के बाद भी उन पर तीन हजार और सूद की देनदारी है. चनवा देवी के दोनों बहुओं को अभी दस हजार रुपये नहीं मिले हैं. वे रोज इस बारे में पता कर रही हैं और निराश हो रही हैं.

सुनकेशा देवी ने अपने दस हजार मकान का लिंटर लगवाने के लिए ईंट, सीमेंट खरीदने में खर्च कर दिए. उन्होंने समूह से भी पचास हजार कर्ज के लिए आवेदन किया है. उनकी शिकायत है कि दो महीना आवेदन किए हो गए अभी तक पैसा नहीं मिला है. वह कहती है कि इसी कारण हम लोगों को प्राइवेट (माइक्रोफाइनेंस कंपनियां) से महंगे सूद पर कर्ज लेना पड़ता है क्योंकि जरूरत पर पैसा नहीं मिल पाता है.
रंभा देवी कहती हैं कि उन्होंने बकरी खरीदनी चाही लेकिन दस हजार में ‘नीमन’ बकरी नहीं मिली. नीमन बकरी 15-18 हजार रुपये में मिल रही थी. दो हजार और मिलाकर 12 हजार में देशी बकरी खरीदे हैं लेकिन बकरी रखने की न तो जगह है और न चराने के लिए खेत-बारी. वह कहती हैं, ‘बताईं एगो बकरी से कइसे गुजर-बसर होई. ’

शांति देवी ने बताया कि वह पाड़ी (भैंस का बच्चा)लेना चाहती थीं लेकिन 20 से 30 हजार रुपये में पाड़ी मिल रही है. अब कहां से इतना पइसा लाएं?

बांसुरी जीविका स्वयं सहायता समूह पुराने समूहों में से एक है. यह समूह जब बना था तब बिहार सरकार की जीविका परियोजना शुरू नहीं हुई थी. यह समूह पहले महिलाओं के स्वास्थ्य एवं पोषण के प्रति जागरूकता के लिए बना था. वर्ष 2007 में जीवका परियोजना शुरू होने के बाद यह उसके तहत आ गया और समूह का बैंक में खाता खुला.

गोपालगंज जिले में 25,326 स्वयं सहायता समूह हैं और 2,93,923 परिवार इससे जुड़े हुए हैं.

बांसुरी समूह की सभी सदस्य महिलाएं दलित बिरादरी से आती हैं. दलित बस्ती में दो दर्जन घर है. दलित परिवारों के अधिकतर पुरुष सदस्य मजदूरी करने दिल्ली, मुंबई, राजस्थान गए हुए हैं. गांव में बूढे, बच्चे, लड़कियां और महिलाएं हैं. दलितों के पास बहुत कम जमीन हैं.

सुनकेशा कहती हैं, ‘केहू के पास एक कट्ठा तो केहू के पास दुई कट्ठा जमीन बा. अइसन केहू नाहीं बा जेकरे पास चार कट्ठा से अधिक जमीन होई.’

कर्ज जाल
भूमिहीनता, बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, पढ़ाई-दवाई के बढ़ते खर्च ग्रामीण गरीबों को कर्ज के जाल में फंसा रहे हैं. बांसुरी जीविका स्वयं सहायता समूह की महिलाएं भी इससे बच नहीं सकी हैं.

चनवा देवी के बड़े बेटे अशोक और मंझले बेटे मनोज दिल्ली में मजदूरी करते हैं. अशोक ने बीमार होने पर और मनोज ने लड़की की शादी के लिए माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से कर्ज ले लिया. कर्ज की किश्त नहीं चुका पाने के कारण दोनों की पत्नी घर में ताला बंद कर बच्चों के साथ दिल्ली चली गई हैं. कंपनी वाले कर्ज वसूली के लिए अब चनवा देवी को तंग कर रहे हैं.

चनवा देवी ने बताया, ‘आज ही माइक्रोफाइनेंस कंपनी वाला आया था. कह रहा था कि पैसा नहीं मिला तो घर में ताला लगा देंगे. इहां खइले के मोहाल बा, कहां से पैसा लौटाएं?’

समूह की एक अन्य महिला ने बेटी की शादी के खर्चे के लिए 45-45 हजार के दो कर्ज माइक्रोफाइनेंस कंपनी से लिए है जिसकी किश्त 2,550-2,550 रुपये आती है. समूह से भी उन्होंने भैंस खरीदने के लिए कर्ज लिया था.

स्वयं सहायता समूह की एक और सदस्य ने बताया कि उन्होंने भी माइक्रोफाइनेंस कंपनी से दो कर्ज लिया है.

इसी गांव की रहने वाली कम्युनिटी मोबालाइजर सीएम सरोज आजाद ने कहा कि गांवों में रोजगार के लिए खेती ओर पशुपालन प्रमुख है. जमीन न होने से समूह की महिलाएं इन क्षेत्रों में आजीविका की गतिविधियां नहीं कर पाती हैं.

उन्होंने माना कि अधिकतर महिलाएं आजीविका के बजाय अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए समूह के साथ-साथ माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से कर्ज लेने को मजबूर हो रही हैं. आमदनी न होने के कारण वे कर्ज लौटा भी नहीं पा रही हैं.

‘हमार गांव सब ओर से, सब चीज से हीन बा’

दिघवा दलित बस्ती के दोनों तरफ तथाकथित ऊंची जातियों के लोगों के घर हैं और उन्हीं के पास खेती वाली जमीन है. दलित बस्ती के लिए अभी तक रास्ता नहीं बन सका है. पानी आपूर्ति का पाइप भी कथित बड़ी जाति के लोगों की दबंगई के कारण गांव नहीं आ पा रहा है. आवास योजना से भी दलित बस्ती वंचित है.

समूह से जुड़ीं आरती, सुशीला, द्रोपदी, रिंकू, शांति और कलावती ने बताया कि उनमें से किसी को कालोनी (आवास) नहीं मिला है. सुनकेशा के अनुसार, उनके ससुर को इंदिरा गांधी के समय कालोनी मिला था.

सरोज आजाद ने बताया कि दो लोगों को सरकारी आवास मिला है. आरती ने दो बार शौचालय के लिए आवेदन किया लेकिन अभी तक उन्हें इसके लिए सहायता नहीं मिली है.
गांव की दलित महिलाओं को खेती में काम कम मिल रहा है क्योंकि गेहूं-धान हार्वेस्टर (स्थानीय बोली में कंपाइन) से कट रहा है. रिंकू बताती हैं कि कभी-कभार सोहनी (खेत से खर-पतवार निकालना) का काम मिलता भी है तो सिर्फ 100 रुपये मजदूरी मिलती है.

इन महिलाओं में सबसे बुजुर्ग चनवा देवी गरीबी और जनकल्याणकारी योजनाओं से दलित बस्ती की वंचना पर तीखी टिप्पणी करती हैं, ‘ई गांव बड़ा हीन बा. सब ओर से, सब चीज से हीन बा.’

दलित बस्ती की महिलाएं अपने विधायक सुनील कुमार से बहुत दुखी है. सुनील कुमार मूल रूप से दिघवा के बगल के गांव महुअवा के रहने वाले हैं. उनके पिता चन्द्रिका राम और भाई अनिल कुमार भी इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. सुनील कुमार आईपीएस अधिकारी रहे हैं और महानिदेशक पद से रिटायर होने के बाद राजनीति में आए. पिछले चुनाव में वह पहली बार लड़े और जीत गए.

उन्हें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का नजदीकी माना जाता है. पहले उन्हें मद्य निषेध मंत्री और बाद में वे शिक्षा मंत्री बनाया गया.

रिंकू देवी और सुनकेशा कहती हैं कि सुनील कुमार ‘जात भाई’ हैं लेकिन उ इधर तकबे नाहीं करलें. कब्बो देखहूं नाहीं अइलें कि हमन के कईसे जीयत बांटी जा. एक गिलास पनिए पीये चलि आइल रहतीं तबौ हम मनती. उ त खाली बड़का-बड़का पार्टी के ही देखलें.’

शांति देवी और द्रोपदी का कहना था कि अगर वोट मांगे अइलन तब पूछल जाई कि कहां तोहार घर ह, हमन के तोहके चीन्हत नइखीं.’

सरोज आजाद दो दशक से स्वयं सहायता समूहों के कामकाज को देख रही हैं. वे उन्होंने बताया कि दस से 15 महिलाओं का समूह बनता है. समूह की सदस्य अपने में से अध्यक्ष, सचिव और कोषाध्यक्ष चुनती हैं. साप्ताहिक रूप से हर सदस्य दस रुपये जमा करती हैं. स्वयं सहायता समूह का बैंक में खाता खुलता है और वे अपनी बचत जमा करती है. साथ ही बैंक उनका एक रिवाल्विंग फंड देता है जिसे वे आजीविका संबधी कार्य के लिए कर्ज ले सकती है.

उन्होंने बताया कि विधानसभा चुनाव के पहले जीविका दीदियों को दस हजार की आर्थिक सहायता दिए जाने के बाद स्वयं सहायता समूहों के गठन में और तेजी आई है. आर्थिक रूप से बेहतर घरों की महिलाएं भी स्वयं सहायता समूह से जुड़ रही हैं ताकि वे भी सरकारी मदद पा सकें. चौमुखा गांव में 20 समूह पहले से संचालित थे. आर्थिक सहायता की घोषणा के बाद वहां 20 और समूह बन गए हैं.

जीविका समूहों की सफलता को खूब चमकाया जाता रहा है लेकिन बांसुरी जीविका समूह की हकीकत तो एकदम दूसरी ही है. चनवा देवी के शब्दों में कहे तो ‘एकर फोकस बा केतना, ए पर नजर बा केतना.’