बिहार चुनाव: जाति की लड़ाई में खोया स्त्री का मुद्दा, पितृसत्ता राजनीति पर हुई हावी

बिहार के दो पड़ोसी राज्यों ने महिला मुख्यमंत्री दिए हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती और बंगाल में ममता बनर्जी. बिहार को आज तक ऐसी महिला मुख्यमंत्री क्यों नहीं मिल पाईं, जिनका विपक्षी दल सम्मान करें? दरअसल, बिहार की राजनीति पितृसत्ता और जातिवाद से पुती हुई है. जाति की आड़ में महिलाओं का मुद्दा खो गया है.

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बिहार चुनाव में जातिगत भागीदारी बहुत बड़ा मुद्दा है. किस जाति का नेता कौन है, ये जनता के के लिए जरूरी मसला है. लेकिन बिहार में आधी आबादी की राजनीति में क्या भागीदारी है, उनके लिए कौन से मुद्दे अहम हैं, इसकी किसी को फ़िक्र नहीं है.

बाबा साहेब आंबेडकर ने कहा था -‘मैं किसी भी समुदाय की तरक्की को, महिलाओं को हासिल हुई तरक्की से मापता हूं.’

लेकिन बिहार में महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व पार्टियों के मैनिफेस्टो तक ही सीमित है. यहां प्रमुख लड़ाई इस बात की है कि किस जाति का आदमी मुख्यमंत्री या मंत्री बनेगा, जो ठीक भी है, क्योंकि जो समाज में दरकिनार थे, उन्हें हक मिलना चाहिए जिससे वे बराबरी पर आ सकें. उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो.

लेकिन जब भागीदारी का यही आधार है, तो क्या महिलाएं समाज में दबी कुचली नहीं हैं? हजारों वर्षों से आज तक वह पितृसत्ता का दंभ नहीं झेलती आ रहीं?

किसी भी पार्टी ने 25 प्रतिशत महिलाओं को टिकट नहीं दिया

किसी भी पार्टी ने किसी महिला को सीएम या डिप्टी सीएम का चेहरा घोषित नहीं किया. राबड़ी देवी बिहार की इकलौती महिला मुख्यमंत्री रही हैं, लेकिन उन्हें किसी मंच या रैली में भाषण देते नहीं सुना गया. उनके विचार लोगों को पता ही नहीं हैं. यह साफ है कि वह प्रतिनिधित्व नहीं कर रही हैं.

नीतीश कुमार अभी तक 9 बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. उन्होंने हर दल के गठबंधन के साथ बिहार के लिए काम किया है. चाहे वह पक्ष हो या विपक्ष, उनके पिछले 5 कार्यकालों को देखा जाए तो उसमें 2 बार कांग्रेस-राजद गठबंधन के साथ रहे और 3 बार एनडीए के साथ, जिसमें से एक कार्यकाल अभी भी चल रहा है.

इन 5 कार्यकालों के मंत्रिमंडल में महिला भागीदारी को देखें, तो हर कार्यकाल में ज़्यादा से ज़्यादा 3 महिलाएं ही मंत्री बनीं, और इसके विपरीत हर बार 30 से भी अधिक मंत्रालय पुरुष को दिए गए.

हालांकि, 2020 में नीतीश कुमार के 7वें कार्यकाल में बिहार को देश के आज़ादी के बाद पहली महिला उप-मुख्यमंत्री रेणु देवी मिली थीं, लेकिन उनका कार्यकाल जदयू का एनडीए के साथ 2022 में गठबंधन टूटने के साथ खत्म हो गया था.

मालूम हो कि 2020 विधानसभा चुनाव में 243 सीटों में से एनडीए ने लगभग महिलाओं को 35 टिकट दिया था और महागठबंधन ने तकरीबन 25 महिलाओं को मैदान में उतारा था.

फिलहाल बिहार विधानसभा में 243 सीटों में 26 महिला विधायक हैं, 2015 में भी कमोबेश यही स्थिति थी. मात्र 28 महिला विधायक चुनी गई थी. विधान परिषद की बात करें, तो फिलहाल 75 में से मात्र 10 महिला एमएलसी हैं.

ये आंकड़े सिर्फ राज्य के चुनाव तक सीमित नहीं हैं. बिहार में लोकसभा की 40 सीटें हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बिहार में 4 और ‘इंडिया’ गठबंधन ने 6 महिला प्रत्याशियों को टिकट दिया था, जिनमें से मात्र 5 विजय हुई और फिलहाल सांसद है.

इससे पहले 2019 में भी मात्र 3 और 2014 में 2 महिलाएं सांसद के रूप चुनी गई थीं. 1996 में गया से भगवती देवी चुनी गई थीं. आज उनके लोकसभा भाषणों के वीडियो खूब वायरल होते हैं.

राजनीतिक परिवार से जुड़ी महिलाएं

हालांकि, भगवती देवी जैसी महिलाओं की आवाज़ें अब धीमी हो रही हैं, जो खुद के दम पे राजनीति में आई और जिन्होंने संसद में मजलूमों की हक-हकूक के बात को रखा क्योंकि ऐसा देखा जा रहा है कि जो महिला प्रत्याशी चुनाव में उतरती हैं, उनके पहले से ही राजनीतिक तार परिवार से जुड़े होते हैं, फिलहाल बिहार में जो 5 महिला सांसद हैं वह इसकी एक बड़ी उदाहरण हैं.

समस्तीपुर की सांसद शांभवी चौधरी जो बिहार सरकार में मंत्री अशोक चौधरी की बेटी हैं. सांसद मीसा भारती जो स्वयं लालू यादव की पुत्री हैं, बाकी तीनों सांसदों के भी पारिवारिक राजनीति से गहरे जुड़ाव हैं. इससे ये भी दिखता है कि गरीब, मध्यमवर्गीय महिलाएं राजनीति में हिस्सा नहीं ले रही हैं, और जो महिला चुनाव में जीत रही हैं उनके पीछे किसी के पति या पिता हैं, अर्थात इसके पीछे भी पितृसता है.
आखिर में यही ज़ाहिर होता है कि जो महिला उम्मीदवार आ भी रही हैं, वो उन 80% प्रतिशत मजलूमों की आबादी से नहीं आ रही. जिससे ठीक-ठीक ये समझ में आता है कि परिवारवाद, पूंजीवाद और पितृसत्ता बिहार की राजनीति को निगले जा रही है.

2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में महिलाओं का वोट प्रतिशत 59.7 था, जो कि पुरुषों से भी ज्यादा था. ये आंकड़ा ये कहता है कि महिलाओं की हिस्सेदारी सरकार बनाने में सबसे ज्यादा रही थी, लेकिन सभी दलों ने आंखें बंद कर लिए हैं.

2025 के चुनाव में राजद ने 143 में से मात्र 24 सीट, तो वहीं भाजपा-जदयू को मिलाके 202 सीटों में 26 सीट, कांग्रेस ने 61 में 5 सीट, जन सुराज पार्टी ने 243 सीटों में मात्र 40 सीटों पर महिलाओं को उतारा है, आधी आबादी को किसी पार्टी ने 25 प्रतिशत भी सीटें नहीं दी हैं.

इससे पता चलता है कि बिहार की राजनीतिक व्यवस्था पूरी तरीके से पुरुषों के हाथ में है, और वह आधी आबादी को अपने वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं समझते हैं, स्थिति बिल्कुल जस के तस है.

बिहार के दो पड़ोसी राज्यों ने महिला मुख्यमंत्री दिए. उत्तर प्रदेश में मायावती और बंगाल में ममता बनर्जी. बिहार को इतने बरस बाद भी एक ऐसी महिला मुख्यमंत्री क्यों नहीं मिल पाई, जिनकी राजनीतिक कुशलता से दूसरे दल डरें और जिनका विपक्षी दल सम्मान करें?

बिहार में महिला साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से भी कम है

नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़ों के अनुसार, बिहार की महिला साक्षरता दर 66.1% है जो कि राष्ट्रीय औसत से भी कम है. जब स्कूल में लड़कियां बारहवीं पास करती हैं तो उन्हें मुफ्त में साइकिल दिया जाता है, जो कि उन्हें प्रोत्साहित करता है कि ग्रामीण इलाकों से निकलकर वह शहर पढ़ाई करने जा सकें.

लेकिन ऐसा देखा जाता है कि शहर में कॉलेजों की व्यवस्था कतई खराब है, जहां समय पर परीक्षा नहीं लिया जाता है और डिग्री भी नहीं मिलती. उदाहरण के तौर पर मगध यूनिवर्सिटी (गया), जयप्रकाश नारायण यूनिवर्सिटी (छपरा) ऐसे दो विश्वविद्यालय हैं, इसका असर ये होता है कि छात्राएं नौकरी की परीक्षाओं के लिए योग्य नहीं हो पाती.

चूंकि डिग्री पांच बरस बाद मिलती है, जो की उनके उम्र के आड़े आती है. इसीलिए कइयों के इसी बीच ब्याह कर दिए जाते हैं. इससे ये भी पता लगता है कि शिक्षा के अभाव में राजनीतिक दृष्टिकोण का न होना, महिलाओं में शिक्षा की प्राथमिकता भी राजनीतिक चेतना पैदा कर सकती है.

महिला उत्थान के लिए सरकार लड़कियों को सरकारी नौकरी में 35 प्रतिशत आरक्षण दे रही है, लेकिन बिहार सरकार की ही जातिगत सर्वे की रिपोर्ट कहती है कि बिहार की पूरी आबादी में मात्र 6.11% लोग मात्र ग्रेजुएट हैं. इनमें से लड़कियों का हिस्सा क्या होगा? और अगर वो उतनी पढ़ी लिखी नहीं है तो सरकारी नौकरियों में भर्ती कैसे हो रही हैं?

सावित्री बाई फुले ने कहा था- ‘जाओ, शिक्षा प्राप्त करो और आत्मनिर्भर बनो.’

शिक्षा, स्कूल और विश्वविद्यालयों को मजबूत करने के बजाय नौकरी देने को ही महिला उत्थान का रास्ता मान लिया गया है.
जीविका दीदी से महिलाओं को 10 हजार रुपये दिए गए, जिससे लगभग 1.40 करोड़ महिलाओं को फायदा पहुंचा है. लेकिन ऐसे में सवाल ये भी उठता है कि इसका हो-हल्ला चुनाव के वक्त ही क्यों मचा?

महागठबंधन ने भी अपने मैनिफेस्टो में कहा है कि सरकार में आने के बाद वह हर महीने 2,500 की आर्थिक मदद महिलाओं को देगी, जो कि सलाना 30 हजार होता है.

बिहार में ज्यादा महिला वोटर

एक शोध में पाया गया है कि बिहार से अधिक पुरुष पलायन करते हैं, जो कि दयनीय आर्थिक स्थिति के चलते चुनाव में वोट देने नहीं आ पाते, जिसके चलते महिलाओं का मत प्रतिशत पुरुषों से ज्यादा रहता है. पार्टियां ऐसे में योजनाओं से महिलाओं को लोभ देती हैं,और अपने 5 सालों का रास्ता साफ करती हैं. यहां जेंडर एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

पंचायत चुनाव में 50 प्रतिशत आरक्षण महिलाओं को मिला हुआ है. ऐसे में सरकार महिलाओं को ज़मीन पर तो खड़ा करना चाह रही है लेकिन उन्हें सत्ता की सबसे ऊंची सीढ़ी पर नहीं चढ़ने देना चाहती. इससे ये भी साफ है कि छोटे स्तरों पर महिलाओं की भागीदारी सुनिश्चित करने वाली सरकार, महिलाओं को निर्णय लेने वाले पदों पर देखना पसंद नहीं करती.

इस तरह बिहार की राजनीति पितृसत्ता के कालिख से पुती हुई है, जहां कोई महिला उठना भी चाहे तो आगे नहीं आ पाती.

(सिद्धार्थ गौतम जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एम.ए सोशियोलॉजी के छात्र हैं.)