सुप्रीम कोर्ट ने एसआईआर विवाद केस अपने हाथ में लिए, हाईकोर्ट के मामलों पर रोक

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के राष्ट्रव्यापी विशेष गहन पुनरीक्षण से संबंधित क़ानूनी लड़ाई की कमान अपने हाथ में ले ली है. शीर्ष अदालत ने चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया है और देश के सभी उच्च न्यायालयों में इससे संबंधित सभी मामलों पर रोक लगा दी. अदालत 26 नवंबर को इस मामले की सुनवाई करेगी.

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार (11 नवंबर) को चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूची के राष्ट्रव्यापी विशेष गहन पुनरीक्षण से संबंधित कानूनी लड़ाई की कमान अपने हाथ में ले ली है. चुनाव आयोग को नोटिस जारी किया और देश के सभी उच्च न्यायालयों में इससे संबंधित सभी मामलों पर रोक लगा दी.

जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ ने राजनीतिक दलों और एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (एडीआर) के वकीलों की दलीलें सुनीं कि यह प्रक्रिया अव्यावहारिक, जल्दबाजी में की गई और असंवैधानिक है. शीर्ष अदालत 26 नवंबर को इस मामले की सुनवाई करेगी और उसने चुनाव आयोग को जवाब देने का आदेश दिया है.

सुनवाई के दौरान मतदाता पुनरीक्षण के समय, चुनाव आयोग के अधिकार और मतदान के अधिकार को लेकर तीखी बहस हुई.

‘एक हास्यास्पद कवायद’: याचिकाकर्ताओं ने समय और वैधता को चुनौती दी

द्रविड़ मुनेत्र कषगम (डीएमके) का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने चुनाव आयोग की एक समान समय-सीमा को तमिलनाडु जैसे राज्यों के लिए अव्यावहारिक बताया.

सिब्बल ने कहा, ‘नवंबर-दिसंबर भारी बारिश का समय होता है… अधिकारी बाढ़ राहत कार्यों में व्यस्त रहेंगे. दिसंबर में क्रिसमस की छुट्टियां होती हैं… जनवरी में फ़सल कटनी होती है – पोंगल का मौसम. यह अवधि सबसे अनुपयुक्त होती है.’

उन्होंने एक महीने के संशोधन को ‘हास्यास्पद कवायद’ बताया और इसकी तुलना पिछले संशोधनों से की जिनमें वर्षों लग गए थे. उन्होंने पूछा, ‘इतनी जल्दी क्या थी?’ और चेतावनी दी कि जल्दबाज़ी और खराब ग्रामीण इंटरनेट गरीबों को मताधिकार से वंचित कर देगा.

एडीआर की ओर से पेश वकील प्रशांत भूषण ने एक गहरी संवैधानिक चिंता जताई. उन्होंने तर्क दिया कि नागरिकता जैसे दस्तावेज़ों की मांग करके यह संशोधन, प्रभावी रूप से चुनाव आयोग को ‘वास्तविक राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी)’ में बदल देता है.

भूषण ने आग्रह किया, ‘चुनाव आयोग को नागरिकता का निर्धारण न करने दें’ और कहा कि यह शक्ति केवल केंद्र सरकार के पास है. उन्होंने डुप्लिकेट मतदाताओं का पता लगाने के विकल्प सुझाए, जैसे मौजूदा सॉफ़्टवेयर का उपयोग करना और ग्राम परिषदों (ग्राम सभाओं) के माध्यम से सत्यापन करना.

न्यायिक जांच और डेटा गोपनीयता

पीठ ने याचिकाकर्ताओं की दलीलों पर सवाल उठाए. जस्टिस कांत ने उनकी चिंता पर संदेह व्यक्त किया. उन्होंने कहा, ‘आप लोग ऐसे व्यवहार कर रहे हैं जैसे मतदाता सूची का पुनरीक्षण पहली बार हो रहा हो! हम ज़मीनी हक़ीक़त से भी वाकिफ़ हैं. एक संवैधानिक प्राधिकारी यह कर रहा है… (कमियों) की ओर इशारा कीजिए, वे सुधार करेंगे.’

जस्टिस जॉयमाल्या बागची ने मतदाता सूचियों को सार्वजनिक सत्यापन के लिए मशीन-रीडेबल बनाने की भूषण की याचिका पर ध्यान केंद्रित किया. 2018 के एक मामले का हवाला देते हुए जस्टिस बागची ने मतदाता गोपनीयता की चिंताओं को उठाया.

उन्होंने कहा, ‘चुनाव आयोग डेटा को जनता के भरोसे रखता है.’ और यह भी कहा कि बड़े पैमाने पर डेटा का दुरुपयोग हो सकता है.

उन्होंने भूषण का जवाब एक उदाहरण से दिया: ‘आप अपने घर पर ताला लगाते हैं. चोर ताला तोड़ देते हैं. क्या यही वजह है कि आप अपने घर पर फिर कभी ताला न लगाएं?’

उन्होंने सुझाव दिया कि चुनाव आयोग इसके बजाय और ज़्यादा सुरक्षा व्यवस्था बना सकता है या पासवर्ड-संरक्षित पहुंच प्रदान कर सकता है.

चुनाव आयोग और अन्नाद्रमुक ने संशोधन का बचाव किया

चुनाव आयोग के वकील राकेश द्विवेदी ने अदालत से उच्च न्यायालय के मामलों को रोकने का अनुरोध किया ताकि परस्पर विरोधी आदेशों से बचा जा सके, जिसे अदालत ने स्वीकार कर लिया. उन्होंने विरोधी राज्य सरकारों पर कटाक्ष करते हुए कहा कि वे यह दिखाने की होड़ में लगे हैं कि वे कितने पिछड़े हैं और एसआईआर की कठोरता को सहन करने में असमर्थ हैं.

तमिलनाडु की मुख्य विपक्षी पार्टी अन्नाद्रमुक ने चुनाव आयोग का समर्थन करने के लिए हस्तक्षेप किया. इसके वकील बालाजी श्रीनिवासन ने संशोधन को ‘वैध और आवश्यक’ बताया और सत्तारूढ़ द्रमुक के उस दावे पर आश्चर्य व्यक्त किया जिसमें उन्होंने अपने राज्य में खराब कनेक्टिविटी का दावा किया था.

कानूनी चुनौती तब शुरू हुई जब संशोधन की पहली बार बिहार में कोशिश की गई, जहां इस पर बड़े पैमाने पर मनमाने ढंग से मतदाताओं के नाम हटाने के आरोप लगे. द्रमुक का तर्क है कि इस दोषपूर्ण मॉडल को देश भर में लागू करना समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सार्वभौमिक मताधिकार के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है.